राजनीति के कद्दावर नेता का अवसान

शायद सन् 2018 में आरएसएस के कार्यक्रम में जाना ही एक ऐसा फैसला था, जो खाँटी कांग्रेस विचारधारा के प्रणब मुखर्जी ने अपने जीवन में पार्टी के सिद्धांतों से हटकर किया। हालाँकि तब वह राष्ट्रपति होने के बाद अपना कार्यकाल पूरा कर चुके थे। अलवत्ता वह आत्मा से कांग्रेसी रहे और एक बार नाराज़ होने के बाद अपनी पार्टी भी बनायी; लेकिन फिर कांग्रेस में ही लौट आये। हालाँकि अपनी पार्टी का नाम उन्होंने कांग्रेस से ही रखा- ‘राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस’। समाजवादी इसलिए कि वह नेहरू के समाजवादी दर्शन से अपनी राजनीति के अंतिम दिन तक प्रभावित रहे।

यह भी आश्चर्य की ही बात है कि उन्हें देश का सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ विपक्षी भाजपा के शासन काल में मिला। बहुत-से लोग मानते हैं कि कांग्रेस की अपील के बावजूद आरएसएस के कार्यक्रम में जाने के कारण आरएसएस ने मोदी सरकार से इसकी सिफारिश की थी। हालाँकि इसमें भी कोई दो-राय नहीं कि प्रणब दा अपने आप में देश की राजनीति की बड़ी शिख्सयत थे। प्रणब दा भारतीय राजनीति के उन बिरले नेताओं में से हैं, जो विवादों से बचे रहे। कभी भी उन्हें लेकर किसी विरोधी तक ने भी कटु टिप्पणी नहीं की।

प्रणब इंदिरा गाँधी से लेकर मनमोहन सिंह तक की सरकारों में मंत्री रहे। राजनीति में उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार माना जाता रहा; लेकिन दो बार यह पद बहुत करीब आकर उनसे दूर सरक गया। वित्त मंत्री के नाते उनकी तारीफ भारत से बाहर भी हुई। हालाँकि सच यह भी है कि बतौर वित्त मंत्री प्रणब ने नेहरू के समाजवाद के ढाँचे के भीतर ही देश की अर्थ-व्यवस्था को साधा। देश में खुली अर्थ-व्यवस्था का रास्ता तो सन् 1991 में प्रधानमंत्री बने नरसिम्हा राव और उनके वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने खोला था। लेकिन इसके बावजूद प्रणब दा देश की बड़ी राजनीतिक शिख्सयत थे। राष्ट्रपति बनने से पहले कांग्रेस से बाहर दूसरे दलों के नेताओं में भी उनका बड़ा सम्मान था। राष्ट्रपति के नाते भी कमोवेश कोई बड़ा विवाद उनसे नहीं जुड़ा। मोदी नीत एनडीए सरकार के साथ उनके सम्बन्ध धुर विपरीत राजनीतिक विचारधारा के बावजूद अच्छे रहे। कई मौकों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनकी और कुछ मौकों पर प्रणब ने भी मोदी की सराहना की। यह दुर्भाग्य ही है कि अच्छी-भली सेहत के बावजूद वह अचानक बीमार हो गये। उन्हें ब्रेन ट्यूमर की सर्जरी के लिए सेना के अस्पताल में भर्ती किया गया था, जहाँ जाँच के दौरान उन्हें कोरोना पॉजिटिव भी पाया गया। ब्रेन ट्यूमर के लिए उनकी सर्जरी तो कर ली गयी; लेकिन वह अचानक इसके बाद कोमा में चले गये और आिखर तक उनकी यह बेहोशी नहीं टूटी। इस तरह देश का एक बड़ा नेता 31 अगस्त को 84 साल की उम्र में इस दुनिया से विदा हो गया।

प्रणब का जीवन

प्रणब मुखर्जी का जन्म 11 दिसंबर, 1935 को पश्चिम बंगाल के वीरभूम ज़िले में किरनाहर शहर के निकट स्थित मिराती गाँव के एक ब्राह्मण परिवार में पिता कामदा किंकर मुखर्जी और माता राजलक्ष्मी मुखर्जी के घर हुआ। उनके पिता सन् 1920 से ही कांग्रेस में सक्रिय थे। वह पश्चिम बंगाल विधान परिषद् में सन् 1952 से 1964 तक सदस्य और वीरभूम ज़िला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रहे थे। वह एक सम्मानित स्वतन्त्रता सेनानी थे और ब्रिटिश शासन की खिलाफत के कारण उन्हें 10 साल से अधिक का समय जेल में सज़ा के तौर पर काटना पड़ा। पढ़ाई के बाद प्रणब तार विभाग में क्लर्क की नौकरी करने लगे। वह वकील और कॉलेज प्राध्यापक भी रहे। उन्हें मानद डी. लिट की उपाधि भी हासिल थी। उन्होंने कॉलेज प्राध्यापक के बाद एक पत्रकार के रूप में बांग्ला प्रकाशन संस्थान देशेर डाक (मातृभूमि की पुकार) में काम किया। यही नहीं, प्रणब बंगीय साहित्य परिषद् के ट्रस्टी और अखिल भारतीय बंग साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष भी रहे। प्रणब का विवाह 22 साल की उम्र में 13 जुलाई, 1957 को शुभ्रा मुखर्जी के साथ हुआ था। उनके दो बेटे और एक बेटी सहित कुल तीन बच्चे हैं। उनकी बेटी और प्रोफेशनल कथक डांसर शर्मिष्ठा मुखर्जी भी राजनीति में सक्रिय हैं और कांग्रेस की नेता हैं। उनके पुत्र अभिजीत मुखर्जी भी सांसद रहे हैं।

राजनीतिक करियर

इंदिरा गाँधी उन्हें राजनीति में लायीं। सन् 1969 में कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य बने। वह सन् 1975, 1981, 1993 और 1999 में फिर से चुने गये। सन् 1973 में वह औद्योगिक विकास विभाग के केंद्रीय उप मंत्री बने। सन् 2004 में वह पहली बार लोकसभा के लिए चुने गये।

इंदिरा गाँधी के भरोसे के चलते वह कांग्रेस का सबसे बड़ा और भरोसेमंद चेहरा बने। सन् 1973 में प्रणब पहली बार केंद्रीय मंत्री बने, उसके बाद लगातार वह इंदिरा गाँधी की सरकार, फिर राजीव गाँधी की सरकार में मंत्री बनते रहे। सन् 1980 में प्रणब को राज्यसभा में कांग्रेस दल का नेता बना दिया गया और प्रधानमंत्री के बाद वह सबसे ताकतवर नेता बन गये। वह सन् 1984 में भारत के वित्त मंत्री बने। न्यूयॉर्क से प्रकाशित पत्रिका यूरोमनी के एक सर्वेक्षण के अनुसार, सन् 1984 में दुनिया के पाँच सर्वोत्तम वित्त मंत्रियों में से प्रणब मुखर्जी एक थे। सन् 1985 में उन्हें पश्चिम बंगाल कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। पी.वी. नरसिम्हा राव जब सन् 1991 में प्रधानमंत्री बने, तब उन्होंने प्रणब मुखर्जी को योजना आयोग का प्रमुख बना दिया। राव के मंत्रिमंडल में सन् 1995 से 1996 तक विदेश मंत्री के रूप में कार्य किया, जबकि सन् 1997 में उन्हें उत्कृष्ट सांसद चुना गया। सन् 2004 में जब कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सरकार बनी, तो पार्टी अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने मनमोहन सिंह, जो राज्यसभा सदस्य थे; को प्रधानमंत्री पद के लिए चुना। उस समय जंगीपुर लोकसभा क्षेत्र से जीतने वाले प्रणब मुखर्जी को लोकसभा में सदन का नेता बनाया गया। सन् 2009 में यूपीए के दोबारा सत्ता में आने के बाद प्रणब फिर मंत्री बने। प्रणब अपने करियर में रक्षा, वित्त, विदेश, राजस्व, नौवहन, परिवहन, संचार, आर्थिक मामले, वाणिज्य और उद्योग, समेत विभिन्न महत्त्वपूर्ण मंत्रालयों के मंत्री रहे। उनके नेतृत्व में ही भारत ने अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के ऋण की 1.1 अरब अमेरिकी डॉलर की अन्तिम िकस्त नहीं लेने का गौरव अर्जित किया।

कुल मिलाकर प्रणब ने इंदिरा गाँधी की सरकार में 15 जनवरी, 1982 से 31 दिसंबर, 1984 तक वित्त मंत्री के पद पर कार्य किया। पी.वी. नरसिम्हा राव सरकार में 24 जून, 1991 से 15 मई, 1996 तक योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे। नरसिम्हा राव सरकार में 10 फरवरी, 1995 से 16 मई, 1996 तक भारत के विदेश मंत्री रहे। मनमोहन सिंह की सरकार में 22 मई, 2004 से 26 अक्टूबर, 2006 तक भारत के रक्षा मंत्री रहे। मनमोहन सरकार में ही 24 जनवरी, 2009 से 26 जून, 2012 तक भारत के वित्त मंत्री के पद पर रहे।

आखिर में चुने गये राष्ट्रपति

सन् 2012 में प्रणब मुखर्जी को कांग्रेस ने राष्ट्रपति पद के लिए अपना उम्मीदवार चुना। भाजपा सहित विपक्ष के उम्मीदवार पी.ए. संगमा को 70 फीसदी वोटों से हराकर 25 जुलाई, 2012 को प्रणब मुखर्जी गणतंत्र भारत के 13वें राष्ट्रपति बने। बतौर राष्ट्रपति राव ने शुरुआती दो साल में मनमोहन सिंह और अंतिम तीन वर्षों में नरेंद्र मोदी के साथ काम किया। मोदी और मुखर्जी की जोड़ी हमेशा चर्चा में रही। इस पद पर अपने पाँच साल के कार्यकाल को पूरा कर 25 जुलाई, 2017 को वह सेवानिवृत्त हुए। प्रणब इस पद पर विराजने वाले पहले बंगाली थे।

प्रणब मुखर्जी को अवॉड्र्स

सन् 2019 में प्रणब मुखर्जी को भारत रत्न सम्मान से नवाजा गया। इससे पहले अपने जीवन में प्रणब दा ने कई अवॉड्र्स हासिल किये। सन् 2008 में उन्हें देश का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान पद्मश्री मिला। सन् 2010 में उन्हें एक रिसर्च के बाद फाइनेंस मिनिस्टर ऑफ दी इयर फॉर एशिया अवॉर्ड दिया गया। सन् 2011 में वोल्वरहैम्टन विश्वविद्यालय ने प्रणब को डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया। सन् 2013 में बांग्लादेश सरकार ने उन्हें वहाँ के दूसरे सबसे बड़े अवॉर्ड बांग्लादेश लिबरेशन वॉर ऑनर से सम्मानित किया। सन् 2016 में आइवरी कोस्ट की ओर से प्रणब को ग्रैंड क्रॉस ऑफ नेशनल ऑर्डर ऑफ द आइवरी कोस्ट अवॉर्ड दिया गया। सन् 1997 में उन्हें श्रेष्ठ सांसद चुना गया। सन् 2012 में विश्वेस्वराइया टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी और असम विश्वविद्यालय की ओर से उन्हें डी लिस्ट की मानद उपाधि दी गयी। सन् 2013 में ढाका विश्वविद्यालय में मुखर्जी ने बांग्लादेश के राष्ट्रपति से कानून की डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की।

जब प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए प्रणब

दो बार ऐसा मौका आया जब लगा कि प्रणब मुखर्जी प्रधानमंत्री होने की अपने दिल की हसरत पूरी कर ही लेंगे। लेकिन दोनों बार पद उनके हाथ से रेत की तरह फिसल गया। प्रणब मुखर्जी इंदिरा गाँधी कैबिनेट में वित्त मंत्री थे और उनके बाद हैसियत में दूसरे नम्बर पर थे। सन् 1984 में जब इंदिरा गाँधी की हत्या हुई तो राजीव गाँधी और प्रणब मुखर्जी बंगाल के दौरे पर थे और उन्हें बीबीसी न्यूज से इसकी खबर मिली। तब राजीव कांग्रेस के महासचिव थे। एक ही विमान से जब वह दिल्ली लौट रहे थे, तो राजीव ने उनसे पूछा कि अब प्रधानमंत्री कौन होगा? प्रणब ने जबाव दिया- ‘मंत्रिमंडल का सबसे वरिष्ठ मंत्री (जो वह खुद थे)। ऐसा पहले भी हुआ, जब लाल बहादुर शास्त्री के अचानक निधन के बाद सबसे वरिष्ठ मंत्री गुलजारीलाल नंदा को कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाया गया था। हालाँकि उनके दिल्ली पहुँचने से पहले ही उस समय के राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह राजीव गाँधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाने का फैसला कर चुके थे; क्योंकि कांग्रेस नेता अरुण नेहरू और अन्य ने राष्ट्रपति से मिलकर कहा कि यही करना संकट की इस घड़ी में सबसे बेहतर रास्ता होगा। राजीव को अनुभव नहीं था, लेकिन यही हुआ और राजीव के नेतृत्व में इसके कुछ समय बाद हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को रिकॉर्ड 411 सीटें मिलीं। इस तरह प्रणब का प्रधानमंत्री बनने का सपना अधूरा रह गया।

इसके बाद राहुल ने अपनी सरकार में प्रणब को जगह नहीं दी, जिससे रुष्ट होकर उन्होंने अपनी अलग पार्टी बना ली। हालाँकि ऐसा करके प्रणब जैसा सक्षम नेता हाशिये पर चला गया, लिहाज़ा वह कांग्रेस में लौट आये। राजीव की हत्या के बाद सन् 1991 में जब नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने, तो भी प्रणब को मंत्री नहीं बनाया गया। हालाँकि बाद में उन्हें राव ने पहले योजना आयोग का उपाध्यक्ष बनाया और जब कांग्रेस के भीतर वरिष्ठ नेता अर्जुन सिंह राव के लिए चुनौती बनने लगे, तो राव ने इसकी काट के लिए प्रणब को सन् 1995 में विदेश मंत्री बना दिया। सन् 2004 के चुनाव में जब सोनिया गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनी और भाजपा ने उनके विदेशी मूल का सवाल उठा दिया। भाजपा नेता सुषमा स्वराज ने तो अपने केश काटने तक की धमकी दे दी। ऐसे में सोनिया ने प्रधानमंत्री नहीं बनने की घोषणा की और लगा कि उनके भरोसेमंद प्रणब मुखर्जी अब प्रधानमंत्री बन ही जाएँगे। लेकिन सोनिया गाँधी ने अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह को इस पद के लिए चुन लिया। इस तरह प्रधानमंत्री का पद दूसरी बार प्रणब के हाथ से निकल गया।