लोगों को मुफ़्त सुविधाएँ देने पर छिड़ी बहस के बीच हर पार्टी कर रही लोक-लुभावन वादे
देश में इस समय राजनीतिक दलों के चुनावों में मुफ़्त सुविधाओं की घोषणाओं को लेकर व्यापक स्तर पर चर्चा चल रही है। मामला देश के सर्वोच्च न्यायालय में है। अब चुनाव आयोग ने भी इसे लेकर राजनीतिक दलों को एक पत्र भेजकर इस मसले पर कुछ सवालों के जवाब के साथ अपने विचार 19 अक्टूबर तक देने को कहा है। इसके पक्ष और विरोध में, दोनों ही तरह की राय हैं। हालाँकि एक सच यह भी है कि नेताओं को मुफ़्त की रेवडिय़ों का सबसे ज़्यादा लाभ मिलता है। दूसरा बड़ा सच यह है कि देश और राज्य क़र्ज़ के जाल में गहरे तक उलझ चुके हैं। इसके विभिन्न पहलुओं पर बता रहे हैं विशेष संवाददाता राकेश रॉकी :-
देश में राजनीतिक दल अपने विरोधी दलों को मात देने और मत (वोट) लेने के लिए चुनावों में जनता से ऐसे वादे करते रहे हैं, जिनको अमल में लाने के लिए बड़े स्तर पर पैसे की ज़रूरत रहती है। मुफ़्त बिजली, पानी, शिक्षा से लेकर स्कूटी, लेपटॉप, आईपैड और अन्य उपहार तक। हाल के वर्षों में इसका प्रचलन कुछ ज़्यादा ही बढ़ा है। अब इस पर देश भर में बहस छिड़ गयी है कि क्या राजनीतिक दलों को जनता के पैसे पर अपने चुनावी लाभ के लिए इस तरह से वादे करने का अधिकार है? मामला सर्वोच्च न्यायालय में है और देश के चुनाव आयोग ने भी तमाम राजनीतिक दलों को पत्र भेजकर इस बारे में उनकी राय पूछी है। यह मामला राजनीतिक भी बन गया है, क्योंकि कई राजनीतिक दलों का कहना है कि यह उनका अधिकार है कि चुनाव में वो वादे करें और ऐसे लोगों को रियायतें दें, जो इसके हक़दार हैं। वैसे बहुत-से विशेषज्ञ यह मानते हैं कि जनता मुफ़्त की घोषणाओं से हमेशा प्रभावित होकर मतदान करती हो, यह सही नहीं है। ऐसा इक्का-दुक्का मामलों में ही होता है। जबकि अन्य का कहना है कि मुफ़्त की घोषणाएँ मतदाता को लुभाती हैं और इससे प्रभावित होकर वह पार्टी विशेष को मतदान करता है।
दिलचस्प बात यह है कि ऐसी योजनाओं को लेकर समाज, राजनीतिक दल, चिन्तक, वुद्धिजीवी बँटे दिखते हैं। कुछ का कहना है कि कि चुनावी फ़ायदे के लिए मुफ़्त की संस्कृति देश के लिए अभिशाप है; तो कुछ का कहना है कि जो योजनाएँ ज़रूरतमंदों को लाभ पहुँचती हैं, उन्हें जारी रखना चाहिए, क्योंकि संविधान में एक कल्याणकारी राज्य (वेलफेयर स्टेट) होने के नाते सरकारों की यह ज़िम्मेदारी है कि वो अन्तिम ज़रूरतमंद तक भी लाभ पहुँचाएँ।
यह मुद्दा तब शुरू हुआ, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगस्त में उत्तर प्रदेश के जालौन में अपने एक सम्बोधन में राजनीतिक पार्टियों के मुफ़्त सुविधाओं के वादों को लेकर टिप्पणी करते हुए कहा कि लोग मुफ़्त की रेवड़ी बाँट रहे हैं। ये रेवड़ी कल्चर देश को आत्मनिर्भर होने से रोकता है। हालाँकि इस बयान के बाद कई विपक्षी नेताओं और देश के एक बड़े तबक़े ने प्रधानमंत्री को सवालों के कटघरे में खड़ा किया था। इसका कारण यह है कि केंद्र सरकार की ऐसी कई योजनाएँ हैं, जो इस तरह की श्रेणी में रखी जा सकती हैं। इसके बाद यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुँच गया, जिसके बाद देश भर में इस मुद्दे पर बहस जारी है।
इसे लेकर सर्वोच्च न्यायालय में वहीं के वकील अश्विनी दुबे ने एक याचिका डाली है, जिसमें उन्होंने कहा कि संविधान के अनुच्छेद-21 में यह स्पष्ट कहा गया है कि नागरिकों को ज़िन्दा रहने के लिए सम्मानजनक पर्यावरण देना निर्वाचित सरकार का फ़र्ज़ है। शिक्षा, स्वास्थ्य और साफ़ पानी उपलब्ध कराना उनका संवैधानिक दायित्व है। स्वतंत्रता के बाद कई दशकों तक सरकारें ऐसा करती रही हैं; लेकिन अब वो अपने रास्ते से भटकी हुई नज़र आती हैं। इन तीनों सुविधाओं को बाज़ार के हाथों सौंप दिया गया है, क्योंकि सरकारों की हालत अब ख़स्ता है।
जनहित की योजनाएँ
चुनाव में मुफ़्त या सस्ते में दी जाने चीज़ों की घोषणा की परिभाषा पर ही विवाद है। ऐसी बहुत-सी योजनाएँ हैं, जिनसे वास्तव में जनता या कहिए कि ज़रूरतमंदों को हाल के दशकों में लाभ पहुँचा हैं। बिलकुल हाल की बात करें, तो सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) ने कोरोना के समय में देश की एक बड़ी आबादी को फ़ायदा पहुँचाया। यहाँ तक की कोरोना से सामान्य हो रही परिस्थितियों में भी यह योजना बहुत उपयोगी साबित हो रही है। सरकारें भी इस योजना के सहारे अपनी नाक बचाने में सफल रही हैं।
हाँ, यह भी सच है कि भ्रष्टाचारी इस तरह की योजनाओं की ताक में रहते हैं और इनके नाम पर लूट के रास्ते भी निकाल लेते हैं। लेकिन इससे योजनाओं को ग़लत नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ये समाज के एक बड़े और ज़रूरतमंद तबक़े के लिए बहुत लाभकारी साबित हुई हैं। मुफ़्त घोषणाओं को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह बात कही कि जिन योजनाओं से वास्तव में ज़रूरतमंदों को लाभ पहुँच रहा है, क्या उन्हें भी फ्रीबीस (मुफ़्त घोषणाओं) की श्रेणी में रखा जाएगा?
वैसे भी देखें, तो हाल के वर्षों में एलपीजी सब्सिडी, जो उज्ज्वला सिलेंडर योजना को छोडक़र अब ख़त्म कर दी गयी है; 200 या 300 यूनिट मुफ़्ती बिजली की घोषणाओं की परिभाषा में फ़ेरबदल हुआ है। प्रधानमंत्री मोदी ने जनता से अपील कि जिन लोगों को एलपीजी में सब्सिडी की ज़रूरत नहीं वे स्वेच्छा से इसे त्याग सकते हैं। काफ़ी लोगों ने ऐसा किया भी। लेकिन बाद में सरकार ने उन लोगों को भी सब्सिडी देनी बन्द कर दी। इसी तरह दिल्ली सरकार ने हाल में कहा कि जिन लोगों को 200 यूनिट तक बिजली में रियायत नहीं चाहिए, वे ख़ुद को इससे अलग कर सकते हैं। एक और बात यह है कि दिल्ली में 200 यूनिट तक मुफ़्त बिजली का लाभ सिर्फ़ उन्हीं लोगों को है, जो 200 यूनिट या उससे कम बिजली ख़र्च करते हैं। नियम यह है कि 200 से एक यूनिट ऊपर जाने से आप मुफ़्त वाली सुविधा से वंचित हो जाते हैं। दिल्ली में सरकारी स्कूलों में मुफ़्त शिक्षा, राशनकार्ड धारकों को 10 किलोग्राम अनाज प्रति व्यक्ति के हिसाब से, कुछ ख़ास जगहों पर मुफ़्त वाई फाई और डीटीसी व कलस्टर बसों में महिलाओं के लिए मुफ़्त यात्रा भी है। सरकारी स्कूल और अस्पताल में मुफ़्त इलाज और पढ़ाई के अलावा पंजाब में भी 300 यूनिट तक मुफ़्त बिजली, हर महिला को 1,000 रुपये महीना देने का वादा किया है, जिस पर सरकार क़रीब 17,000 करोड़ रुपये ख़र्च करेगी।
देश में दशकों से राशन कार्ड पर केंद्र सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत सस्ता अथवा मुफ़्त अनाज देती है। वहीं कोरोना-काल से प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण अन्न योजना के तहत पाँच किलोग्राम प्रति व्यक्ति मुफ़्त अनाज दे रही है। कमोवेश सभी राज्यों में यह योजना है। खाद्य सुरक्षा के तहत ज़रूरतमंदों के लिए पीडीएस प्रणाली बहुत उपयोगी साबित हुई है। इसी प्रकार प्रधानमंत्री मोदी के शासन-काल में शुरू की गयी एनडीए के केंद्र सरकार की किसान सम्मान योजना भी ऐसी ही है, जिसमें किसानों के खाते में साल भर में तीन क़िस्तों में 6,000 रुपये डालती है। लेकिन कहा जाता है कि इस योजना का लाभ सभी किसानों को नहीं मिलता। बल्कि यहाँ तक हुआ किसान आन्दोलन से नाराज़ केंद्र सरकार ने कई किसानों को पात्र न बताते हुए उनसे किसान सम्मान की 500 रुपये महीने वाली राशि वापस लौटाने को कहा और ऐसा न करने पर उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करने को कहा। इसी प्रकार प्रधानमंत्री ने घर-घर शौचालय मुफ़्त बनवाये। हालाँकि न तो हर घर में शौचालय बने और न ही इस योजना में भ्रष्टाचार रुका। इसके अलावा कांग्रेस के दौर की इंदिरा आवास योजना, जिसके तहत ग़रीबों को सरकारी ज़मीन पर छोटे घर बनाकर दिये गये थे; प्रधानमंत्री मोदी ने 2022 तक देश के हर नागरिक को घर देने का वादा किया था, जो कि अभी तक पूरा नहीं हुआ है। हाँ, बहुत-से लोगों को इस योजना के तहत घर बनाने के लिए पैसा मिला है। लेकिन यह योजना भी भ्रष्टाचार से नहीं बची। इसी तरह कई राज्य सरकारें बेरोज़गारी भत्ता देने के वादे करती रही हैं। इसके अलावा दिव्यांगों को अब तक की केंद्र सरकारों से लेकर राज्य सरकारों तक ने मुफ़्त रिक्शे, बैसाखी और दूसरे उपक्रम बाँटे हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या ऐसी योजना को मुफ़्त की रेवड़ी कहा जाएगा? नहीं कहा जा सकता। दूसरी बात नेताओं और मंत्रियों को लाखों रुपये की कई सुविधाएँ मुफ़्त मिलती है। क्या यह भी रेवड़ी संस्कृति नहीं है?
इसी प्रकार कई राज्य अपने स्तर पर मुफ़्त की योजनाएँ चला रहे हैं। जैसे- मध्य प्रदेश और बिहार में नल जल योजना। इनमें से कुछ में निश्चित ही भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे हैं। बावजूद इसके इनसे लोगों को लाभ मिला है। इससे पहले 15 अगस्त, 1995 को नरसिम्हा राव की कांग्रेस सरकार ने सरकारी स्कूलों के लिए मिड-डे मील योजना शुरू की थी। यह योजना ज़मीन पर बहुत उपयोगी साबित हुई और बड़ी संख्या में बच्चों को स्कूल लाने में सफल रही। आज मिड-डे मील एक बड़ी योजना मानी जाती है; लेकिन इससे चार दशक पहले सन् 1955 में तमिलनाड में तब के मुख्यमंत्री कामराज ने प्राइमरी स्कूलों में ग़रीब बच्चों के लिए भोजन योजना शुरू की थी। उन्हें इस योजना का आइडिया तब मिला, जब वह तिरुनेलवेली ज़िले के चरण महादेवी नगर में एक चौराहे पर रुके हुए थे। उन्होंने वहाँ खड़े एक बच्चे से जब पूछा कि वह स्कूल क्यों नहीं गया, तो उसने कामराज से कहा कि यदि मैं स्कूल जाता हूँ, तो क्या आप मुझे वहाँ खाना देंगे? क्योंकि मेरे पास खाना नहीं है। कामराज को यहीं से स्कूलों में दोपहर की भोजन योजना चलाने की प्रेरणा मिली।
दशकों से चल रहीं मुफ़्त योजनाएँ
देश में आज़ादी के एक दशक के भीतर ही राजनीतिक दल लोकलुभावन योजनों की घोषणा करने लगे थे। इसका एक बड़ा कारण यह भी था कि उस समय प्रति व्यक्ति आय बहुत कम थी और देश की एक बड़ी आबादी ग़रीबी की रेखा के नीचे थी। ऐसा नहीं कि देश में अब ग़रीबी ख़त्म हो गयी है। आज भी लाखों-लाख लोग ग़रीबी रेखा के नीचे जीवन बसर कर रहे हैं। लेकिन निश्चित ही ऐसी योजनाएँ इन लोगों के लिए काफ़ी उपयोगी साबित होती हैं।
वादों की बढ़ती सूची
देखा जाए, तो वादों की जननी दक्षिण के राज्य हैं; जहाँ सस्ते अनाज से लेकर अन्य वाडे किये गये और पूरे भी हुए। एन.टी. रामाराव ने अपने समय में आंध्र प्रदेश में दो रुपये प्रति किलो चावल दिये, तो तमिलनाडु में राजनीतिक दलों ने प्रेशर कुकर, मिक्सर ग्राइंडर, मंगल सूत्र तह देने की शुरुआत की। उत्तर प्रदेश और पंजाब में हाल के चुनावों में यह वादे वाशिंग मशीन, मुफ़्त वाई फाई, स्कूटी, लैपटॉप और टैबलेट तक जा पहुँचे। हालाँकि इसकी चर्चा दिल्ली में भी है। दिल्ली में मुफ़्त बिजली, पानी और शिक्षा का वादा तो देश भर में चर्चा में रहा। अब भाजपा भी बिजली मुफ़्त करने के वादे कर रही है। हाल ही में चुनावों को देखते हुए उसने हिमाचल में 125 यूनिट बिजली मुफ़्त देने का वादा किया है; जबकि इससे कई साल पहले से बिजली उत्पादन करने वाले हिमाचल प्रदेश में बिजली के बिल का आधा ही जनता को देना होता है।
तमिलनाडु में पिछले विधानसभा चुनाव में एआईएडीएमके और डीएमके दोनों ही दलों ने वॉशिंग मशीन, केबल कनेक्शन, मुफ़्त सोलर गैस स्टोव, हर परिवार को छ: गैस सिलेंडर मुफ़्त, कॉलेज छात्रों को एक साल के लिए 2जीबी इंटरनेट (सभी वादे एआईएडीएमके), जबकि डीएमके ने सरकारी स्कूल और कॉलेज के छात्रों को मुफ़्त में टैबलेट देने, गैस सिलेंडर पर 100 रुपये की कटौती जैसे वादे किये और अब सत्ता में आकर डीएमके उन्हें पूरा भी कर रही है।
कांग्रेस ने पंजाब और उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान मुफ़्त में आठ सिलेंडर, 12वीं पास लडक़ी को 20,000 रुपये, 10वीं पास को 10,000 रुपये, कॉलेज जाने वाली लडक़ी को स्कूटी देने के वादे किये। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने 12वीं पास लड़कियों को स्मार्ट फोन, कॉलेज जाने वाली लडक़ी को स्कूटी और 300 यूनिट मुफ़्त बिजली, जबकि भाजपा ने मुफ़्त स्कूटी और लैपटॉप का वादा किया।
राजस्थान में कांग्रेस सरकार प्रदेश की 1.33 करोड़ महिलाओं को स्मार्टफोन, तीन साल की कनेक्टिविटी और मुफ़्त इंटरनेट डाटा का वादा करके इस पर काम कर रही है। राज्य सरकार ने स्मार्ट मोबाइल ख़रीदने के लिए बाक़ायदा 7,500 करोड़ रुपये का बजट मंज़ूर किया। कांग्रेस ने अब हिमाचल के चुनाव में हर घर मुफ़्त बिजली, 18 से 60 साल की आयु की महिलाओं को 1,500 रुपये हर महीने वित्तीय मदद का वादा किया है। आम आदमी पार्टी भी गुजरात और हिमाचल में 300 यूनिट मुफ़्त बिजली और पानी की घोषणा कर चुकी है। अब केजरीवाल दिल्ली और पंजाब की तर्ज पर दूसरे राज्यों में मुफ़्त बिजली, पानी और शिक्षा का वादा कर रहे हैं। आम आदमी पार्टी के संयोजक कहते हैं कि लोक कल्याणकारी योजना और मुफ़्त योजना में अन्तर है। सन् 2006 में बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की मुख्यमंत्री बालिका साइकिल योजना को एक बड़ी योजना माना जाता है, जिसमें सरकार ने युवा बालिकाओं को साइकिल ख़रीदने में मदद दी। सरकार का कहना था कि इस योजना के बाद सरकारी माध्यमिक स्कूलों में लड़कियों के दाख़िले में 30 से ज़्यादा फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई। ऐसी योजनाएँ समय-समय पर राज्य सरकारें चलाती रहती हैं।
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने शिशु साथी योजना शुरू की, जिसमें ग़रीब बच्चों की हृदय शल्य चिकित्सा (हार्ट सर्जरी) मुफ़्त में की जाती है। ममता ने वैसे तो सबुज साथी, खाद्य साथी, शिक्षा श्री, गतिधारा से लेकर रूपश्री जैसी आर्थिक रूप से जुड़ी कई योजनाएँ लागू कीं; लेकिन उनकी कन्याश्री योजना की तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तारीफ़ हुई और इसके उन्हें संयुक्त राष्ट्र पब्लिक सर्विस अवार्ड भी मिला। शिक्षा को लेकर दिल्ली की केजरीवाल सरकार की नीति की भी हाल में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तारीफ़ हुई है। तमाम आबादी को इसका लाभ भी मिला है। ऐसे में यह फ़र्क़ करना बहुत कठिन है कि ऐसी योजनाएँ सिर्फ़ मत (वोट) लेने के लिए हैं।
मुफ़्त की योजनाओं के विरोध में तर्क
देश में आर्थिक विशेषज्ञों और बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग है, जो मुफ़्त की योजनाओं का कड़ा विरोध करता है। इनमें से ज़्यादातर का मानना है कि यह वादे देश की आर्थिक हालत को ख़राब और खोखला कर रहे हैं। चुनाव में राजनीतिक दलों में इस बात ही होड़ लग जाती है कि वह कितने मुफ़्त वादी जनता से कर सकता है, ताकि उसे वोट मिल सकें। वास्तव में यह वादे ऐसे होते हैं, जिनका बजट प्रस्तावों में कोई ज़िक्र या प्रावधान नहीं होता।
विरोध करने वालों का कहना है कि मुफ़्त सुविधाएँ देने से अंतत: सरकारी ख़ज़ाने पर बोझ पड़ता है। देखा जाए, तो देश के अधिकांश राज्यों की वित्तीय स्थिति मज़बूत नहीं है। यही नहीं, उनके वित्तीय संसाधन बहुत सीमित हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि मुफ़्त की घोषणाएँ वांछित लाभ नहीं देतीं और सिर्फ़ ग़ैर-ज़िम्मेदाराना ख़र्च को बढ़ावा देती हैं। उनके मुताबिक, ग़रीबों की मदद के लिए बिजली और पानी के बिल माफ़ करने जैसी योजनाएँ तो कल्याणकारी कही जा सकती हैं; लेकिन पार्टियों की चुनाव और वोट-प्रेरित अव्यवहारिक घोषणाएँ विनाशकारी हैं।
विशेषज्ञ कहते हैं कि आर्थिक नीतियों को यदि प्रभावी तरीक़े से बनाया जाए, भ्रष्टाचार या लीकेज की सम्भावना न हो और लाभार्थियों तक सही तरीक़े से इनकी पहुँच सुनिश्चित बनायी जाए, तो ऐसे मुफ़्त घोषणाओं की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। उनका यही भी तर्क है कि राजनीतिक दलों को आर्थिक प्रभावों की ज़्यादा समझ नहीं होती और वे वादा करते हुए इसके नफ़ा-नुक़सान की नहीं सोचते। दूसरे कई योजनाओं में केंद्र से पैसे की ज़रूरत रहती है और जब इन्हें राजनीतिक रूप से घोषित किया जाएगा, तो केंद्र भी पैसा देने में आनाकानी करेगा।
उनका कहना है कि केवल वही योजनाएँ नुक़सान नहीं करतीं, जिन्हें राज्य अपने बजट में आसानी से समायोजित कर सकें। बुनियादी ज़रूरतों में सब्सिडी जैसे- छोटे बच्चों को मुफ़्त शिक्षा देना या स्कूलों में मुफ़्त भोजन देना ज़रूर सकारात्मक दृष्टिकोण है। उनका यह भी कहना है कि इसके अलावा सब्सिडी (उपदान) और मुफ़्त में अन्तर करना भी ज़रूरी है। वे सब्सिडी को उचित और लक्षित लाभ बताते हैं, जो माँग से पैदा होता है; जबकि मुफ़्तख़ोरी इससे भिन्न है।
चुनाव आयोग सख़्त
मुफ़्त की रेवड़ी को लेकर राजनीतिक दलों में छिड़ी बहस के दौरान चुनाव आयोग ने 4 अक्टूबर, 2022 को राजनीतिक दलों को एक पत्र लिखकर मुफ़्त की योजनाओं पर उनसे 19 अक्टूबर तक इस पर अपनी राय माँगी है। आयोग ने पत्र में यह कहा है कि राजनीतिक दल अगर कोई चुनावी वादा करने पर उन्हें साथ में यह भी बताना होगा कि अगर वह सत्ता में आते हैं, तो वादे को कैसे पूरा करेंगे? इस पर कितना ख़र्च आएगा? पैसे कहाँ से आएँगे? इसके लिए वो टैक्स बढ़ाएँगे या नॉन-टैक्स रेवेन्यू को बढ़ाएँगे? योजना के लिए अतिरिक्त क़र्ज़ लेंगे या कोई और तरीक़ा अपनाएँगे? चुनाव आयोग भविष्य में राजनीतिक दलों के चुनाव घोषणा-पत्र में एक अलग फार्म होगा, जिसमें यह भरकर यह बताना होगा कि पार्टियों के चुनावी वादे क्या हैं? और वो कैसे इन्हें पूरे करेंगे? उन्हें यह भी बताना होगा कि राज्य की वित्तीय सेहत को देखते हुए उन वादों को कैसे पूरा किया जाएगा। चुनाव आयोग का मानना है कि चुनाव घोषणा-पत्र में यदि ऐसी सूचना होगी, तो मतदाता को विभिन्न राजनीतिक दलों के वादों की तुलना करने और अपना निर्णय लेने में मदद मिलेगी। ज़ाहिर है चुनाव आयोग इसके लिए चुनाव आदर्श आचार संहिता में संशोधन करके ज़रूरी बदलाव करेगा। आयोग का भले कहना है कि चुनाव घोषणा-पत्र बनाना किसी भी राजनीतिक दल का संवैधानिक अधिकार है; लेकिन उन्हें उन वादों पर जानकारी देनी होगी, जिनमें बड़े पैमाने पर धन की ज़रूरत होगी। आयोग इसे स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए ज़रूरी बता रहा है। ज़ाहिर है आयोग का इस बात पर ज़ोर है कि पार्टियाँ सिर्फ़ ऐसे वादे करें जिन्हें पूरा किया जाना सम्भव हो। इस मसले पर हाल में मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने एक बैठक की अध्यक्षता की थी, जिसमें यह कहा गया आयोग ऐसे मसलों पर चुपचाप नहीं बैठ सकता। बेशक आयोग यह सब क़वायद कर रहा है; लेकिन विपक्ष आयोग के इन निर्णयों के पीछे केंद्र सरकार को देख रहा है। उसका कहना है कि यह लोकतंत्र के ताबूत में एक और कील होगी। वास्तव में मोदी सरकार इन सब चीज़ों को चुनाव सुधार का हिस्सा बता रही है। यह साफ़ संकेत मिल रहे हैं कि केंद्र इन सब बातों को क़ानून का हिस्सा बनाने के लिए जन प्रतिनिधित्व क़ानून में बदलाव की तैयारी कर रही है।
सर्वोच्च न्यायालय में क्या हुआ?
सर्वोच्च न्यायालय में इस मुद्दे पर एक जनहित याचिका दायर की गयी है, जिसमें घोषणा-पत्र में किये गये अपने वादों को पूरा करने में विफल रहने वाले राजनीतिक दलों की मान्यता रद्द करने का चुनाव आयोग को निर्देश देने की माँग की गयी है। सर्वोच्च न्यायालय में इस जनहित याचिका को दायर कर केंद्र और चुनाव आयोग को चुनाव घोषणा-पत्र को विनियमित करने और उसमें किये गये वादों के लिए राजनीतिक दलों को जवाबदेह बनाने के लिए निर्देश देने की भी माँग की गयी। यह भी कहा गया है कि प्रत्यक्ष रूप से यह घोषित किया जाए कि चुनाव घोषणा-पत्र एक विजन डॉक्यूमेंट है। यह राजनीतिक दल के इरादों, उद्देश्यों और विचारों की एक प्रकाशित घोषणा है, जिसका उस राजनीतिक दल के लिए सत्ता प्राप्ति की राह में व्यापक योगदान देखा जा रहा है। इसलिए यह वैधानिक और क़ानूनी रूप से लागू करने वाला एक योग्य दस्तावेज़ भी कहा जा सकता है।
इससे जुड़ी याचिका पर सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि चुनावी मौसम के दौरान राजनीतिक दलों की ओर से मुफ़्त उपहार का वादा एक गम्भीर मुद्दा है, क्योंकि इससे अर्थ-व्यवस्था को नुक़सान हो रहा है। रेवड़ी संस्कृति को सर्वोच्च न्यायालय ने गम्भीर मुद्दा माना। हालाँकि मुफ़्त सौगात देने का वादा करने वाले राजनीतिक दलों की मान्यता रद्द करने पर कहा कि यह विचार अलोकतांत्रिक है। कल्याणकारी योजनाओं और मुफ़्त के रेवड़ी संस्कृति दोनों में कितना अन्तर है, इसको लेकर विवाद है। सर्वोच्च न्यायालय की ओर से भी इस बारे में सुझाव माँगे गये हैं। यूयू ललित से पहले जब यह मामला तब के प्रधान न्यायाधीश एन.वी. रमना के सामने आया था तब उन्होंने कहा था कि यह सरकार का काम है कि वह लोगों के लिए काम करे। उस समय मुख्य न्यायाधीश रमना की अगुवाई वाली बेंच ने कहा कि न्यायालय राजनीतिक दलों को मुफ़्त में चीज़ें देने की योजनाओं का ऐलान करने से नहीं रोक सकती। यह सरकार का काम है कि वह लोगों के लिए वेलफेयर के लिए काम करे। न्यायालय ने कहा था कि चिन्ता की बात यह है कि कैसे जनता के पैसे को ख़र्च किया जाए। यह मामला काफ़ी जटिल है। इस बात का भी सवाल उठता है कि क्या इस मसले पर कोई फ़ैसला देने का अधिकार न्यायालय के पास है।
प्रधान न्यायाधीश ने यह भी कहा था कि किन योजनाओं को मुफ़्तख़ोरी की घोषणाओं में शामिल किया जा सकता है और किन्हें नहीं, यह बहुत जटिल मसला है। उन्होंने कहा था कि हम राजनीतिक दलों को वादे करने से रोक नहीं सकते। सवाल यह है कि कौन-से वादे सही हैं? क्या हम मुफ़्त शिक्षा के वादे को भी मुफ़्त योजना मान सकते हैं? क्या पीने का पानी और कुछ यूनिट बिजली मुफ़्त देने को भी मुफ़्त योजना माना जा सकता है? या फिर उपभोग की वस्तुओं और इलेक्ट्रॉनिक्स आइटम्स दिये जाने को वेलफेयर स्कीम में शामिल किया जा सकता है। फ़िलहाल चिन्ता की बात यह है कि जनता के पैसे को ख़र्च करने का सही तरीक़ा क्या हो सकता है। कुछ लोगों का कहना होता है कि पैसे की बर्बादी हो रही है। इसके अलावा कुछ लोगों की राय होती है कि यह वेलफेयर है। यह मामला जटिल होता जा रहा है। आप अपनी राय दे सकते हैं। बहस और चर्चा के बाद हम इस पर फ़ैसला ले सकते हैं। यही नहीं कोर्ट ने यह भी कहा कि अकेले वादों के आधार पर ही राजनीतिक दलों को जीत नहीं मिलती। तब रमना ने मनरेगा का उदाहरण भी दिया था। उन्होंने कहा था कि कई बार राजनीतिक दल वादे भी करते हैं; लेकिन उसके बाद भी जीतकर नहीं आ पाते।
क़र्ज़ में देश और राज्य
रेवड़ी संस्कृति की चर्चा के बीच यह जानना भी ज़रूरी है कि देश और राज्यों पर कितना क़र्ज़ है। सरकार के ही आँकड़े देखें, तो 31 मार्च, 2022 तक भारत का विदेशी क़र्ज़ 620.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर था, जो मार्च 2021 के अन्त में रहे 573.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर के क़र्ज़ से 8.2 फ़ीसदी अधिक है। जीडीपी के अनुपात मार्च 2022 के अन्त में विदेशी क़र्ज़ जीडीपी के अनुपात में गिरकर 19.9 फ़ीसदी हो गया, जो एक साल पहले 21.2 फ़ीसदी था। विदेशी क़र्ज़ के अनुपात के रूप में विदेशी मुद्रा भण्डार गिरकर मार्च, 2022 के अन्त में 97.8 फ़ीसदी पर रहा, जो एक साल पहले 100.6 फ़ीसदी था। दीर्घ अवधि का क़र्ज़ 499.1 बिलियन अमेरिकी डॉलर अनुमानित था, जो कुल क़र्ज़ का 80.4 फ़ीसदी है। वहीं, 121.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर का काम अविधि क़र्ज़ ऐसे कुल ऋण का 19.6 फ़ीसदी था। आरबीआई के मुताबिक, देश भर की सभी राज्य सरकारों पर मार्च 2022 तक 72 लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा का क़र्ज़ था। मार्च 2022 तक देश में 19 राज्य ऐसे थे, जिन पर एक लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा का क़र्ज़ था। सबसे ज़्यादा क़र्•ो में तमिलनाडु सरकार है, जिस पर 6.59 लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा क़र्ज़ है। इसके बाद उत्तर प्रदेश पर 6.53 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ है।
“हमारे देश रेवड़ी कल्चर को बढ़ावा देने कोशिश हो रही है। मुफ़्त की रेवड़ी बाँटकर वोट बटोरने का कल्चर लाने की कोशिश हो रही है। यह रेवड़ी कल्चर देश के विकास। के लिए बहुत घातक है। इस रेवड़ी कल्चर से देश के लोगों को बहुत सावधान रहना है। मोदी ने कहा कि रेवड़ी कल्चर वाले कभी आपके लिए नये एक्सप्रेस-वे नहीं बनाएँगे। रेवड़ी कल्चर वालों को लगता है कि जनता जनार्दन को मुफ़्त की रेवड़ी बाँटकर उन्हें ख़रीद लेंगे।”
नरेंद्र मोदी
प्रधानमंत्री
“मुझ पर आरोप लगाये जा रहे हैं कि केजरीवाल मुफ़्त की रेवडिय़ाँ बाँट रहा है। मुझे गालियाँ दी जा रही हैं। मेरा मज़ाक़ उड़ाया जा रहा है। आज मैं देश के लोगों से पूछना चाहता हूँ कि मैं क्या ग़लत कर रहा हूँ। दिल्ली के ग़रीबों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में शानदार शिक्षा दे रहा हूँ। मुफ़्त शिक्षा दे रहा हूँ। मैं देश के लोगों से पूछना चाहता हूँ कि क्या मैं मुफ़्त की रेवडिय़ाँ दे रहा हूँ। दिल्ली के सरकारी स्कूलों में 18 लाख बच्चे पढ़ते हैं। अभी तक इन बच्चों को भविष्य अंधकार में था। पहले पढ़ाई नहीं होती थी। बोर्ड, डेस्क नहीं थे। बच्चों का भविष्य बर्बाद था। आज मैं इनका भविष्य बनाना रहा हूँ। 75 साल में पहली बार 99 फ़ीसदी से ज़्यादा रिजल्ट आया है। प्राइवेट स्कूलों को पीछे छोड़ दिया है। चार लाख बच्चों ने प्राइवेट से नाम कटवाया और सरकारी में दाख़िल करवाया।”
अरविन्द केजरीवाल
मुख्यमंत्री, दिल्ली