शिवेन्द्र राणा
संसद राष्ट्रीय संप्रभुता का प्रतीक है। हालाँकि इसकी परिभाषा अधिक विस्तृत है। यह देश की सबसे बड़ा पंचायत केंद्र है, जिसमें पूरे राष्ट्र की संवैधानिक आस्था है। लेकिन क्या संसद जन-भावनाओं की उम्मीदों कसौटी के अनुकूल भी है? यह वर्तमान राजनीतिक परिवेश के अवलोकन पर सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न है; जिसका जवाब हर भारतीय को तलाशना चाहिए।
याद करिए, संसद में पिछले कुछ वर्षों में कोई ऐसा विमर्श हुआ हो, जिसकी चेतना राष्ट्रव्यापी हो? जो आम आदमी का समग्र मनोभाव लेकर सदन में उपस्थित हुई हो? आज भारतीय संसद में भाषायी मर्यादा से लेकर विमर्श का स्तर तक देश भर के गली-नुक्कड़ों, चौराहे तथा चाय की दुकानों पर होने वाली बहसों में भिन्न नहीं दिखायी पड़ेगा। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने लिखा है- ‘संसद में शुरुआत के दिनों में जो बहस होती थी, उसमें राष्ट्र और समाज के प्रति सरोकार दिखायी पड़ता था। संसद के सवाल पर गाँव में चर्चा होती थी। आज हालत बदल गयी है। संसद में झगड़ा ज़्यादा होता है। उसी की बाहर चर्चा होती है। संसद में अगर बहस होती है, तो उसमें रस्म-अदायगी ज़्यादा होती है। बहस का स्तर भी गिर गया है। गाँव और संसद की बहस में अब कोई अन्तर नहीं रहा। गाँव में कम-से-कम लोगों की पीड़ा की चर्चा तो होती है! संसद तो उससे भी दूर होती जा रही हैं।’
वह भी एक दौर था, जब संसदीय बहसें इतिहास का निर्णायक मोड़ साबित होती थीं। आज़ादी के बाद देश के सभी क्षेत्र अंग्रेजी लूट के रिस रहे ज़ख़्मों से उबरने हेतु प्रयासरत थे। ऐसा ही एक क्षेत्र था- उत्तर प्रदेश का पूर्वांचल। यहाँ ग़रीबी इतनी विकट थी कि लोग बाजरे का भात, कोदो, गोबरा और कोईना की रोटी खाकर पेट भरने को विवश थे। उस समय पिछड़े इला$कों में कृषि कार्यों में मशीनों का प्रचलन नहीं था। अनाज निकालने की प्रक्रिया अर्थात् मड़ाई (भोजपुरी भाषा में देवरी) बैलों से होती थी। उस दौरान बैल अनाज खा लेते थे; लेकिन वो उन्हें पचता नहीं था और गोबर के साथ बाहर आ जाता था। तब ग़रीब तबक़ा उस गोबर को बटोरकर तालाब में धोकर, फिर सुखाकर उसकी रोटी बनाकर खाता था। इस रोटी को भोजपुरी में ‘गोबरा’ कहा जाता है। दूसरा ‘कोईना’ यानी महुए के बीज की रोटी पेट भरने का साधन थी।
गाज़ीपुर से कांग्रेस सांसद विश्वनाथ सिंह गहमरी हुआ करते थे। विचारधारा से समाजवादी थे। संसद में बजट सत्र चल रहा था। विश्वनाथ गहमरी ने पूर्वी उत्तर प्रदेश की ग़रीबी का मार्मिक चित्रण किया। बोलते हुए वह इतने भावुक हो गये कि फफककर रो पड़े और अपने थैले से गोबरा और कोईना की रोटी निकालकर काट-काटकर खाने लगे। पूरी संसद स्तब्ध थी। चारों ओर सन्नाटा छा गया। स्वयं प्रधानमंत्री नेहरू विचलित हो गये। उन्होंने बुलाकर विश्वनाथ गहमरी को शान्त किया तथा तत्काल योजना आयोग को गाज़ीपुर, बलिया, आजमगढ़ समेत पूर्वांचल के छ: ज़िलों में ग़रीबी, पिछड़ेपन के अध्ययन और निवारण के लिए एक आयोग गठित करने का निर्देश जारी किया। यह पृष्ठभूमि थी- सन् 1963 में गठित पटेल आयोग की।
वर्तमान में संसद में बहसों के नाम पर भौंडापन, गाली-गलौज, अभद्रता, हाथापाई आम बात हो गयी है। राष्ट्रीय हित के मुद्दे तो बिलकुल भूल ही जाइए। हाल ही (2023) की कैग रिपोर्ट के मुताबिक, देश में सत्ता संरक्षित भ्रष्टाचार एवं वित्तीय अनियमितता के कई मामले उजागर हुए। जैसे रेडिको खेतान लिमिटेड द्वारा उत्तर प्रदेश सरकार को 1,000 करोड़ से अधिक की एक्साइज ड्यूटी सहित टैक्स का भुगतान कम किया गया। वहीं बिल्डरों को लाभ पहुँचाने के लिए विकास प्राधिकरणों की मनमानी के कारण सरकारी ख़ज़ाने को 200 करोड़ का नुक़सान हुआ। केंद्र सरकार की बहुप्रचारित उड़ान योजना (2017) के तहत देश भर में चुने गये कुल 774 रूट्स मार्च, 2023 तक सिर्फ़ 54 रूट्स पर संचालित हो रहे हैं। इसी प्रकार आम आदमी के इलाज की सहूलियत के लिए शुरू की गयी आयुष्मान भारत योजना में व्यापक गड़बडिय़ाँ हैं। नौ लाख से ज़्यादा लाभार्थी तो सिर्फ़ एक ही मोबाइल नंबर से जुड़े हुए पाये गये हैं। मृत व्यक्तियों के नाम पर भी लाभार्थियों की सूची लम्बी है। इसी तरह द्वारका एक्सप्रेस-वे में हुए वित्तीय अनियमितता हुई है। यह सूची अभी विस्तृत है। क्या देश को यह जानने का हक़ नहीं है कि हज़ारों करोड़ के सपने दिखाने वाली ‘मेक इन इंडिया’ परियोजना और ऐसी ही दूसरी परियोजनाएँ, जिनके बूते देश को अच्छे दिनों और विश्वगुरु बनाने के ख्वाब दिखाये गये; उनकी अब तक क्या उत्पादकता रही है? यह सारे सन्दर्भ संसद के लिए ज़रूरी हैं। लेकिन निकम्मे विपक्ष को इसकी $िफक्र कहाँ है? ऊपर से संसद के बहिष्कार की एक ‘निंजा तकनीक’ सीख चुके विपक्ष को इसका भान नहीं कि संसदीय बहसों के बजाय सदन से बहिर्गमन जनता की उम्मीदों से पलायन, उन्हें रौंदना और उसकी भावनाओं को अपमानित करने सरीखा होता है। राष्ट्रीय हित के लिए किसी सांसद के निलंबन पर विवाद प्राथमिक था या जन-मुद्दे पर सरकार की जवाबदेही तय करना?
सांसद विश्वनाथ सिंह गाज़ीपुर ज़िले के गहमर गाँव के मूल निवासी थे। गहमर सम्भवत: एशिया का सर्वाधिक आबादी वाला गाँव है। इसकी विशेषता है- पीढिय़ों से चली आ रही सैन्य सेवा की परम्परा। यहाँ प्रत्येक परिवार में न्यूनतम एक व्यक्ति सेना में सेवारत है। गाँव में बच्चे किशोरवय होते ही सेना भर्ती की तैयारी में लग जाते हैं। यूँ कहिए कि सैन्य-सेवा यहाँ के लोगों का दीन-ओ-ईमान है। इनकी अर्थव्यवस्था ही इस पर टिकी है। लेकिन सरकार ने लॉजिस्टिक्स के ख़र्च कम करने एवं सैन्य सेवा में नये विचार के नाम पर अग्निवीर योजना लाद दी। अब गहमर और ऐसे ही हज़ारों गाँवों के युवा सकते में हैं। याद कीजिए अग्निवीर योजना के विरुद्ध हिंसक-प्रदर्शन के दौरान उस रोते हुए बच्चे को, जो प्रशासनिक अधिकारी के समझाने पर उससे अपनी ग़लती पूछ रहा था। क्या सत्ता के दावेदार इन विपक्षी दलों में किसी को याद आयी कि इन बच्चों की रौंदी गयी उम्मीदों पर सरकार से तार्किक जवाब माँगें?
विगत दो दशकों से रिटायर्ड फ़ौजियों के हितार्थ कार्य कर रहे सेवानिवृत सैन्यकर्मी और गहमर के भूतपूर्व सैनिक संगठन के महामंत्री शिवानन्द सिंह कहते हैं- ‘जब कोई सैनिक अपने राष्ट्रीय कर्तव्य के रूप में सीमा पर जान हथेली पर लेकर खड़ा होता है, तो उसे अपनी सरकार पर यह विश्वास होता है कि उसकी मौत के बाद उसका परिवार निराश्रित नहीं होगा। उसकी पेंशन परिवार को दुर्दिनों से बचाएगी। अत: वह निजी हितों से चिन्तामुक्त होकर अपने कर्तव्य का पालन करता है। अग्निवीर योजना ने तो वह भावना ही संकट में डाल दी। सैन्य सेवा कोई कॉर्पोरेट जॉब नहीं है। यह जूनून है। हम जैसे फ़ौजियों की कमायी पर पूरे परिवार का जीवन टिका होता है। फ़ौजियों का वेतन और पेंशन तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था का बड़ा आधार ही है। सरकार तो यह आधार ही मिटाने पर तुली है।’
यदि सरकार इतना ही पेंशन के बोझ का राजस्व बचाना चाहती है, तो इसकी शुरुआत सांसद-विधायकों को मिलने वाली पेंशन को ख़त्म करके की जानी चाहिए। ‘सैन्य सेवा कोई आर्थिक लाभ का अवसर नहीं’, कहने वाले निर्लज्जों को राजनीति क्या जीवन बीमा का कोई कार्यक्रम दिखता है? ट्रेनों में वरिष्ठ नागरिकों को दी जाने वाली सुविधा बन्द कर दी गयी; क्योंकि इससे रेलवे राजस्व बचाना था। लेकिन जनप्रतिनिधियों के लिए यह अब भी है। सार्वजनिक जीवन में त्याग की क़समें खाने वाले इन कपटियों को जनता के धन के अनैतिक उपभोग में ज़रा भी शर्म नहीं आती। साथ ही बेरोज़गारी पर सरकार से सवाल क्यूँ नहीं? सार्वजनिक क्षेत्र में रोज़गार के अवसर सिमट रहे हैं और निजी क्षेत्र छँटनी में लगे हैं। टेक कम्पनियों से ही अगस्त माह में लगभग ढाई लाख कर्मचारियों को निकाल दिया गया।
इस बार विपक्ष के लिए ऐसे बहुत-से मुद्दे थे, जिन पर वह सरकार को घेर सकता था। लेकिन छप्पन भोगों से भरी थाली को थूककर कैसे ख़राब किया जाता है; यह राहुल गाँधी को देखकर समझ लीजिए। संसद सदस्यता बहाल होने के बाद राहुल गाँधी आये। हल्की-सी ही सही; लेकिन उम्मीद थी कि संसद में इस बार एक ज़ोरदार निर्णायक बहस होगी। सरकार से इस सदस्यता हरण की कुप्रथा के संचालन पर सवाल किया जाएगा। ग़रीबी, बेरोज़गारी भ्रष्टाचार पर तीखे हमले होंगे। विपक्ष के पास मुद्दों का अभाव नहीं था; लेकिन पीएम इन वेटिंग और अपने यात्रा वृतांत में सबको भटका दिया गया और असल मुद्दे दबा दिये गये।
ऐसी कमज़ोर ज़ेहनियत के व्यक्ति का नेतृत्व कांग्रेस की मजबूरी तो हो सकती है, किन्तु विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ को इनके पीछे खड़ा होने का औचित्य समझ पाना कठिन है। ऊपर से विपक्षियों के ज्ञान और समझदारी का स्तर देखिए कि राज्यसभा सांसद राघव चड्ढा ने अपनी पार्टी को आप ‘फास्टेस्ट ग्रोइंग पॉलिटिकल स्टार्ट अप’ कहा। ये राजनीतिक दल व्यवसायी कबसे होने लगे? और राजनीति जब व्यावसाय बन जाए, तो नेताओं को दलाल बनते ज़्यादा समय नहीं लगता।
महात्मा गाँधी ने कभी संसद को बाँझ और वेश्या कहा था। यह तो फिर भी ठीक विश्लेषण है। अगर आज वह जीवित होते, तो इस संसद को ‘चकला’ और ‘कोठा’ कहते; क्योंकि यहाँ रोज़ लोकतान्त्रिक उम्मीदों, जनाकांक्षाओं, संवैधानिक मर्यादाओं की, तो कभी-कभी जनप्रतिनिधियों के ईमान की नीलामी होती है। डॉ. आंबेडकर ने ब्रिटिश तर्ज पर संसदीय प्रणाली अपनाये जाने का बचाव करते हुए संविधान सभा में कहा था- ‘स्थायित्व के स्थान पर उत्तरदायित्व को मान्यता दी गयी।’
लेकिन अब भी प्रश्न यही है कि कौन-सा उत्तरदायित्व? देश के विधानमंडलों में न सिर्फ़ अयोग्य, बल्कि ज़ाहिलों की पूरी फ़ौज इकट्ठी हो गयी है। महाराष्ट्र का एक मंत्री सार्वजनिक रूप से कहता है कि मछली खाने से औरतें चिकनी दिखती हैं। तो राजस्थान के एक मंत्री का विधानसभा में बयान था कि यह मर्दों का प्रदेश है, इसलिए बलात्कार का आँकड़ा भी ज़्यादा है। अब ऐसे लम्पटों से कोई मूर्ख ही सामाजिक परिवर्तन और नारी सुरक्षा की उम्मीद कर सकता है। असल में भारतीय जनतंत्र की व्यवस्था इतनी गलीज़ हो चुकी है कि यहाँ जन तो कहीं है ही नहीं। सिर्फ़ तंत्र बचा है, जो सत्तावाद, भ्रष्टाचार, परिवारवाद, जातीयता आदि से आक्रांत है एवं पथभ्रष्ट हो चला है।
वैचारिक धुंध के दौर में डॉ. लोहिया याद आते हैं। वह कहते थे- ‘जब सडक़ें सूनी हो जाएँ, तो संसद आवारा हो जाती है।’ वर्तमान भारतीय राजनीतिक परिवेश का यथार्थ यह है कि जनता के समक्ष विकल्पहीनता ही नहीं, बल्कि नैराश्य की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। जनता सिर्फ़ सत्तापक्ष से ही नहीं, बल्कि विपक्ष से भी उतनी ही निराश है। क्योंकि राजनीतिक निकृष्टता इस समय दलगत प्रभाव से परे सर्वव्यापी है। ऐसी ही विकल्पहीनता की स्थिति जनविद्रोह को जन्म देती है। आवश्यकता उस जनचेतना के उभार की है, जो इस निकम्मी व निर्लज्ज जनप्रतिनिधियों की जमात को उखाड़ फेंके।
(लेखक पत्रकार हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)