एक खबर- सरकार हरकत में आई. हरकत… शब्द बहुत दिलचस्प है. जब यह सरकार के साथ जुड़ता है, तो अलग अर्थ देता है और जब आम आदमी के साथ चस्पा होता है, तो सर्वथा अलग. भला यह कैसी हरकत! बचपन में जब कभी हम हरकत करते थे मास्साब की छड़ी हरकत करती थी. वो भी हमारे बदन पर. कई बार तो ऐसा होता था कि हम हरकत कम करते थे और मास्साब की छड़ी हमसे ज्यादा. मगर यहां क्या हो रहा है!
सरकार विधिवतरूप से हरकत कर भी नहीं रही है, खरामा-खरामा अभी तो वह हरकत में बस आई है कि पहले पेज की मुख्य खबर बन गई. हरकत में उसके आने का स्वागत हो रहा है. खबर सुनकर एकबारगी ऐसा लगता है जैसे सरकार आईसीयू में भर्ती हो, अचानक से उसके बदन में हरकत हुई हो. और लोग खुश.
देखो! देखो! हरकत कर रही है! हरकत हो रही है! नहीं, नहीं, अभी मरी नहीं, अभी जिंदा है हमारी सरकार. सरकार हरकत में आई! जाहिर-सी बात है अब तक वह शांत थी. अगर सरकार सोई हुई होती, तो कहा जाता सरकार जागी. इसका मतलब यह हुआ कि सरकार सोई हुई नहीं होती, सब देखती-समझती है, मगर हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती है. अनुभवों के आधार पर कहा जा सकता है कि सरकार सही समय पर हरकत में नहीं आती. प्राय: लोग सरकार का मुंह जोहते रहते हंै कि सरकार कब हरकत में आएगी. जनता की तरह सरकार की भी याददाश्त थोड़ी कमजोर होती है. सरकार को याद दिलाना पड़ता है कि वह सरकार है. उसकी कुछ जिम्मेदारी है. इत्ती सी बात याद दिलाने के लिए बस जलाना, ट्रेन रोकना, भारत बंद जैसे पावन कृत्य करने पड़ते हैं. तब जाकर सरकार हरकत में आती है.
इतने दिनों में सरकार की एक पहचान बहुत पुख्ता हुई है. वह यह कि वह लगातार हरकत करने में असमर्थ रहती है. तब सरकार हरकत में कब आती है! किसान मर जाते हैं. मजदूर का पूरा परिवार आत्महत्या कर लेता है. बस्तियां जला दी जाती हैं. ट्रेन पलट जाती है. बाढ़ आती है. सूखा पड़ता है. तब भी नहीं. तब सरकार हरकत में कब आती है! शायद जब वोटबैंक में से अपना खाता बंद होने की आंशका उसे घेरती है. तब!
लोग कहते हैं कि सरकार तुरत-फुरत में हरकत में क्यों नहीं आती! देखा जाए तो इसमें सरकार का कोई दोष नहीं. वह क्या करे. अब इतनी बड़ी सरकार. उसके इतने हाथ तो इतने पैर. इनको हिलाने-डुलाने में काफी ऊर्जा खर्च करनी पड़ती होगी, लिहाजा वह लेटी (पड़ी) रहती है. सरकार बहुत ठस्स चीज होती है. भारी भरकम. कितने तो पुरजे उसके, कितने तो जोड़ उसके. वह एकदम से हरकत में आ भी जाए तो कैसे. सरकार की मजबूरी है. कुछ तो मजबूरी है, कुछ उसकी रूढ़ हो चुकी छवि का भी सवाल है. बात-बात पर हरकत में आ जाएगी, जरूरत के वक्त हरकत में आ जाएगी, तो उसे सरकार कहेगा कौन!
अब यह हरकत देखिए! सरकार के चलते रहने को हरकत नहीं माना जाता. न ही तो सरकार के गिरने को ही. जबकि ये दोनों भी क्रियाएं हैं. यह सरकार के साथ ज्यादती है. चलिए इसे हरकत न मानिए जैसी आपकी मर्जी. चलिए मगर यह मानिए, सरकार किसी भी तरह से हरकत में आ तो गई! तो पहले पहल तो विपक्ष के ऊपर ठीकरा फोड़ेगी. वर्तमान चुनौतियों को भूतपूर्व सरकार के पहलू से नत्थी करेगी. जब इतनी हरकत से बात नहीं बनेगी तो सरकार और हरकत करेगी और उसके बदन से आयोग, बयान, खंडन, जांच कमीशन! पैकेज! आदि झड़ेंगे. फिर! फिर क्या! फिर सरकार शांत, ठस्स, क्रियाविहीन, लगभग मरणासन्न हो जाती है. तब तक, जब तक कोई होनी अनहोनी में, घटना दुर्घटना में, खबर त्रासदी में न बदल जाए.
-अनूप मणि त्रिपाठी