स्मार्ट सिटी बनने की बात जब लोगों के कानों में पड़ी थी, तो देश के सभी शहरों के लोगों के चेहरे पर रौनक़ तो आ ही गयी थी। कुछ लोगों ने स्विटजरलैंड, इंग्लैंड, हॉन्गकॉन्ग जैसी व्यवस्था की कल्पना भी भारत में बनने वाली स्मार्ट सिटी को लेकर की होगी। लेकिन जब बरेली के स्मार्ट सिटी बनने का नंबर आया, तो छोटी छोटी, बड़ी बड़ी पचासों परेशानियों से जूझते बरेली शहर के लोग परेशान दिखायी देने लगे। यहाँ यात्री हवाई अड्डा बनने से लेकर अन्य कई सुविधाएँ भले ही इस शहर के विकास में चार चांद लगा रहे हैं, लेकिन कई ऐसे विनाशकारी काम भी हो रहे हैं, जो काफ़ी दु:खदायी साबित हो रहे हैं।
दरअसल सरकारी मशीनरी जब काम करती है, तो विकास के साथ-साथ विनाश भी करती है। बरेली शहर में नया बस अड्डा बनने की मुहिम में भी यही हुआ। यहाँ सैकड़ों हरे-भरे पेड़ों की बलि बड़ी आसानी से दे दी गयी। जबकि राज्य में क़ानून यह लागू है कि अगर कोई किसान या दूसरा आम आदमी एक भी पेड़ काटता है, तो उसे ज़ुर्माना तो भरना ही पड़ेगा, सज़ा भी हो सकती है। ताज़ूब की बात यह है कि यह क़ानून राज्य के आम लोगों के लिए ही लागू होता दिखता है, लकड़ी के सौदागरों और तस्करों पर कोई क़ानून काम नहीं करता। कैसे लागू हो? जब सरकार ही बिना सोचे हजारों पेड़ों की बलि देने से नहीं चूकती।
किताबों में पढ़ाया जाता है कि वृक्ष हमारे मित्र हैं। हम सबको पौधरोपण करना चाहिए। लेकिन हक़ीक़त में शहर में ही नहीं, ज़िले के गाँव-देहात में भी पेड़ों की संख्या बहुत तेज़ी से घट रही है। बरेली में कटे सैकड़ों पेड़ों के बदले हो रहे विकास के ख़िलाफ़ बहुत लोग सडक़ों पर उतरे, लेकिन प्रशासन पर कोई असर नहीं हुआ। पहले जब किसी नगर को बसाया जाता था, तो उसमें पेड़-पौधों को हटाने से परहेज़ किया जाता था, लोग पेड़ लगाते भी थे। लेकिन अब यह ज़िम्मेदारी केवल किसानों की रह गयी है और एकाध पौधा लगाने का चलन नेता, अधिकारी, समाजसेवी तो फोटो खिंचाने का काम ही करते हैं। अब तो ताक़तवर लोग अपने फ़ायदे के लिए रातोंरात जंगल के जंगल स्वाहा कर देते हैं और कोई हंगामा भी नहीं होता।
कई बार शहर की शक्ल में खड़े कंकरीट के जंगलों को देखकर लगता है कि वह दिन दूर नहीं, जब हमें ऑक्सीजन के सिलेंडर घरों में रखने पड़ेंगे। यह सब शहरों में बड़ी संख्या में काटे जा रहे पेड़ों के चलते होगा। अब हम हरियाली के लिए घरों में गमले सजाने में विश्वास करते हैं, पौधे लगाने में नहीं। गमलों से उतनी मात्रा में ऑक्सीजन तो नहीं मिल सकती, जितनी मात्रा में पेड़ दे सकते हैं। यह वैसे ही है, जैसे भैंस बेचकर डिब्बाबन्द दूध पीकर यह कहते हुए ख़ुश होना कि अब गोबर नहीं होगा। पेड़-पौधे जीवन के लिए भोजन-पानी से पहले और ज़्यादा ज़रूरी हैं। क्योंकि साँस लेने के लिए पेड़ ही ऑक्सीजन दे सकते हैं। अब विकास के लिए ख़ाली मैदानों का उपयोग नहीं किया जाता, उनका उपयोग पार्किंग, क्रिकेट और दूसरी सामाजित गतिविधियों के लिए किया जाता है। इन गतिविधियों के चलते उनकी हरियाली ख़त्म हो जाती है और वे धूल के मैदान में तब्दील हो जाते हैं। गली से लेकर हाईवे तक की राह खड़े पेड़ों पर आरियाँ चलाकर ही निकलती है। कोई नहीं सोचता कि जीवन साँस देने वाले पेड़ों के साथ इतनी निर्दयता क्यों? जबकि कोई भी लोगों द्वारा सडक़ तक क़ब्ज़ायी ज़मीनों को ख़ाली नहीं कराता और न रास्ते में खड़े खम्भों, अतिक्रमण और धार्मिक स्थलों को हटाता है। लेकिन कृत्रिम कार्यों के लिए प्राकृतिक सम्पदा को तहस-नहस करने से न सरकार चूकती है और न प्रशासन इसमें कोताही बरतता है। बरेली में बस अड्डा दूसरी जगह अगर ले ही जाना है, तो इसके लिए बरसों से खड़े हरे-भरे पेड़ों की बलि देने की ही क्या ज़रूरत थी? इस पर प्रशासन को सोचना चाहिए। वैसे प्रशासन क्या सोचेगा इस बारे में, उसने तो 789 पेड़ों के बदले नये पेड़ लगाने की भी नहीं सोची।
सेंट्रल जेल की ज़मीन पर सैकड़ों पेड़ों को हटाकर वहाँ पर बस अड्डा स्थानांतरित किया जाना है। जबकि इस बस अड्डे को यहीं पर पीछे की और वहाँ स्थानांतरित किया जा सकता था, जहाँ पेड़ों की तादाद न की बराबर है। वहाँ पड़ी ख़ाली ज़मीन पर्याप्त होती बस अड्डे के लिए। इसी तरह रोड चौड़ीकरण के नाम पर ईंट पजाया चौराहे से लेकर स्टेडियम और डेलापीर तक न जाने कितने ऐसे पेड़ों को काट डाला गया। यह कैसी स्मार्ट सिटी है कि हरियाली को ही खाए जा रही है। इससे तो अच्छा पहले वाला शहर था, जहाँ भले ही रोडवेज की बसें शहर के बीचोंबीच आकर अपने अड्डे पर खड़ी होती थीं, लेकिन शहर के चारों ओर हरियाली का साम्राज्य था। शहर में भी पेड़ों की संख्या अच्छी-ख़ासी थी, जो धीरे-धीरे मकानों की संख्या बढ़ते-बढ़ते विलुप्त होते गये। आँधी-तू$फान आने पर जब एक भी पेड़ गिरता है, तो एक पेड़ ही नहीं धराशायी होता, बल्कि सैकड़ों पक्षियों के ठौर-ठिकाने भी ज़मींदोज़ हो जाते हैं। साँसों के लिए ज़रूरी ऑक्सीजन की सम्भावना कम हो जाती है। कितने ही जीव-जन्तु मर जाते हैं। यहाँ तो प्रशासन ने एक-दो पेड़ नहीं, पूरा-का-पूरा जंगल उजाड़ दिया।
सरकारी रजिस्टरों के मुताबिक, पिछले दशकों में लाखों पौधे रोपे ज सरकारी रजिस्टरों के मुताबिक चुके हैं, लेकिन ज़मीन पर इसका कोई लेखा-जोखा मिलना मुश्किल है। वैसे भी सरकारी पौधरोपण की हक़ीक़त किसे नहीं पता? पौधरोपण और वन महोत्सव हमारे देश की प्रादेशिक सरकारों के बहुत बड़े वार्षिकोत्सव हैं, जिनके द्वारा पेड़ों की रक्षा का दम्भ भरा जाता है। लेकिन सरकार और प्रशासन का ज़मीन पर का कितना दिखता है, इस पर उन्हें विचार करने की ज़रूरत है। ऑक्सीजन के प्लांट लगवाने वाले लोग ऑक्सीजन देने वाले पेड़ों की जड़ें काटने पर क्यों तुले हुए हैं? जनता के स्वास्थ्य की चिन्ता का दावा करने वाले ही जनता को बीमार करने पर तुले हैं। इन लोगों के पास तो बड़े-बड़े बंगले हैं, जहाँ उनके अन्दर ही बीसियों पेड़, गमलों में सैकड़ों पौधे और फुलवारी लगी होती है। ऐसे में वे लोग क्या करें, जिन्हें साँस लेने के लिए उनके पूर्वजों से विरासत में मिले फलों के पेड़ों और स्वत: उगी वनस्पतियों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। ऐसी स्मार्ट सिटी किसे चाहिए, जिसमें साँस भी कोई न ले सके? बरेली के बस अड्डे को स्थानांतरित करने के लिए एक झटके में बीसियों प्रजातियों के 789 पेड़ बिना सोचे काट दिये गये। इसमें कितने ही जीवों की मौत हो गयी, किसी ने नहीं सोचा। भारतीय दण्ड संहिता के अनुसार, इस अशोभनीय और ग़ैर-क़ानूनी कार्य के एवज़ में विधिवत् हत्या का मामला बनता है। हमारे धर्मशास्त्र भी इस तरह के उजाड़ की तो दूर की बात, हरे पेड़ों तक को किसी तरह के नुक़सान तक की इजाज़त नहीं देते। चिडिय़ाघर, अप्पू घर बनाने से काम नहीं चलेगा। जीवों के लिए जंगल ही बेहतर होते हैं। जंगलों और आबादी में पेड़-पौधों के होने से ही लोग ज़िन्दा हैं।
कुछ दिन पहले डोहरा लालपुर वाली सडक़ के फोरलेन के नाम पर किये जा रहे चौड़ीकरण के लिए बीडीए और वन विभाग ने मिलकर पचासों हरे पेड़ों को काट गिराया। जब इसका ज़ोर-शोर से विरोध हुआ, तो ज़िलाधिकारी महोदय की नींद टूटी और उन्होंने इन पेड़ों का कटान बन्द करा दिया। डोहरा लालपुर सडक़ के चौड़ीकरण में आ रहे पेड़ों को बचाने के लिए उन्होंने ट्रांस लोकेट की योजना अपनाने की बात कही है। बीडीए और वन विभाग के अधिकारी अब ट्रांस लोकेट की प्रक्रिया के लिए आवश्यक औपचारिकताएँ पूरी कर रहे हैं। ज़िलाधिकारी ने इस सडक़ पर हो रहे पेड़ों के कटान को तो रुकवा दिया; लेकिन जो पेड़ कट गये, उनकी भरपाई के लिए कोई योजना नहीं बनायी। इसके लिए उनसे ईमेल के ज़रिये बरेली में सैकड़ों पेड़ों की बलि ले लेने के बारे में जब पूछा, तो उनका भी कोई जवाब नहीं आया। दु:ख इस बात का होता है कि जिस वन विभाग को बनाया ही पेड़ों की रक्षा के लिए गया है, वही हरे पेड़ों का दुश्मन बना हुआ है। वन विभाग के अधिकारी पेड़ों की उपयोगिता को समझे बिना ही हरे पेड़ों को काटने की अनुमति देते हैं। इस बारे में एक वन विभागकर्मी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि वन विभाग के अधिकारी अपने वेतन से कई गुना पैसा हरे पेड़ों को चुपचाप कटवाकर कमाते हैं। ऐसा सब अधिकारी नहीं करते; लेकिन जो करते हैं, उन्हें सम्मान भी ज़्यादा मिलता है। पेड़ों को न काटने देने वालों के ख़िलाफ़ सियासी भँवें हमेशा तनी रहती हैं और उनके तबादले जंगलों में कर दिये जाते हैं। जंगलों के साथ वहशीपन और रिश्वतखोरी या दबाव के चलते पेड़ कटने की इस स्थिति से कब निजात मिलेगी? यह कहना मुश्किल है। लेकिन यह तय है कि इसका परिणाम अंतत: इंसानों की ही भुगतना है।