ईमां मुझे रोके है तो खेंचे है मुझे कुफ्र,
काबा मेरे पीछे है, कलीसा मेरे आगे
गालिब का यह शेर मायावती और उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक तबके मुस्लिम समुदाय के लिए भी फिलहाल बेहद मौजूं है. उत्तर प्रदेश की वर्तमान राजनीतिक स्थिति ऊपरी तौर पर मायावती और मोदी के लिए सबसे मुफीद दिख रही है. लेकिन बसपा के नजरिये से इसमें अभी कुछ ऐसे छोटे-छोटे छेद हैं जिन्हें बंद किया जाना जरूरी है. यदि मुफीद हालात को सीटों में तब्दील करना है तो इन छोटे-छोटे कामों को करने का यह आखिरी समय है. बसपा के अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक बहनजी हर कसर को पूरी करने में चुपचाप लगी हुई हैं. जानकारों की मानें तो मायावती की कोशिश बदसूरत पैबंद लगाने की नहीं बल्कि बारीक रफू करने की है. हाल के कुछ दिनों में बसपा सुप्रीमो ने उन तमाम गलतियों को दूर करने के कई दूरगामी उपाय किए हैं जो अतीत में उनसे जाने-अनजाने हुईं.
बसपा का मानना है कि अगर उनका 2007 वाला सर्वजन फार्मूला बना रहे और मुजफ्फरनगर के बाद पैदा हुए हालात में मुसलमान भी उसके साथ जुड़ जाए तो उत्तर प्रदेश में एक ऐसा जातिगत गठजोड़ खड़ा हो जाएगा जिसके आगे सारे समीकरण धराशायी हो जाएंगे. लेकिन जहां मुसलमान के उनसे जुड़ने की बारी आई वहीं उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण समुदाय को मोदी की हवा लगने के हालात भी बनने लगे हैं. इसके इतर अतिपिछड़ी जातियों का जो कुनबा कभी कांशीराम ने जोड़ा था वह भी उनके जाने के बाद कुछ कमजोर हो गया है. लेकिन पिछले कुछ महीनों के दौरान उन्होंने इस दिशा में जो काम किए हैं उनसे ऐसा माहौल जरूर बना है जिसमें सिर्फ बसपा ही अपने पिछले प्रदर्शन को या तो सुधारते हुए दिखती है या फिर पिछले प्रदर्शन को कायम रखने की स्थिति में है.
जैसा कि ऊपर लिखी बातों से भी स्पष्ट है इस समय मायावती के सामने तीन तात्कालिक चुनौतियां हैं. यदि समय रहते वे इनसे निपट लेती हैं तो एक बात आसानी से कही जा सकती है कि भाजपा के अलावा अकेली बसपा ही होगी जो 2009 के अपने आंकड़े में सुधार करेगी. बसपा की पहली चुनौती है ब्राह्मणों के भाजपा प्रेम को नियंत्रित करने की, दूसरी दलितों को मोदी लहर से बचाकर दलित पहचान पर कायम रखने की और तीसरी मुसलमानों के मन से अपने पुराने भाजपा से प्रेम वाले अतीत से जुड़ी आशंकाएं खत्म करने की. जब पूरे प्रदेश में भाजपा और सपा एक-दूसरे की टक्कर में रैली पर रैली करने में लगे हुए हैं, उसी दौरान मायावती ने अंदरखाने में ऐसे कई तमाम सुधारवादी कदम उठाए हैं जिनके चुनावी प्रभाव को लेकर कयासों और अटकलों की शुरुआत हो गई है.
मुसलमान
कहा जा सकता है कि इस तबके को अपने साथ जोड़ने के लिए पिछले कुछ दिनों में बसपा ने सबसे अधिक काम किया है. 2012 में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार बनाने में बहुत बड़ा योगदान मुस्लिम समुदाय का था. लेकिन इन दो सालों के दौरान जो हालात उत्तर प्रदेश में रहे हैं उनमें सबसे ज्यादा मोहभंग भी इसी समुदाय का हुआ है. प्रदेश में छोटे-बड़े करीब 100 दंगे सपा के दो साल के शासन में हुए हैं. पिछले साल अक्टूबर महीने में मुजफ्फरनगर में हुए दंगों के बाद स्थितियां पूरी तरह से सपा के हाथ से निकल गई लगती हैं. वरिष्ठ पत्रकार गोविंद पंत राजू बताते हैं, ‘सपा के साथ मुसलमानों की पैदा हुई दूरी का फायदा उठाने के लिए मायावती ने कई उपाय किए हैं. उन्होंनेे जामा मस्जिद के शाही इमाम अब्दुल्ला बुखारी को अपने साथ जोड़ा है. बुखारी का बयान आया है कि वे उत्तर प्रदेश और पूरे देश में बसपा के साथ मिलकर दलित-मुस्लिम गठजोड़ खड़ा करने का प्रयास अगले चुनाव में करेंगे. उन्होंने मुसलमानों से बसपा के पक्ष में वोट डालने की अपील भी की है. इसका कोई तार्किक महत्व भले ही न हो लेकिन पिछड़े मुस्लिम समाज में इसके जरिए एक राजनीतिक संदेश जरूर पहुंच जाता है.’
मुसलमानों को करीब लाने की गंभीर कोशिशों की बाबत बसपा के वरिष्ठ नेता और नेता प्रतिपक्ष स्वामी प्रसाद मौर्य का कहना है, ‘अब्दुल्ला बु्खारी एक बड़े मजहबी नेता हैं. उनकी अपने समुदाय पर जबरदस्त पकड़ है. जिस तरह से सपा और भाजपा ने पिछले एक साल के दौरान आपस में मिलकर पूरे प्रदेश को सांप्रदायिकता की आग में धकेला है, उससे इस प्रदेश के अल्पसंख्यकों में भारी नाराजगी है. बुखारी साहब ने इन दोनों को सबक सिखाने के लिए यह सकारात्मक कदम उठाया है.’
मुस्लिम समुदाय के साथ बसपा के प्रगाढ़ होते रिश्तों की दिशा में एक और पहल जमीयत-उलमा-ए-हिंद के मुखिया महमूद मदनी ने भी की है. उन्होंने बसपा के मुस्लिम सांसद सलीम अंसारी के साथ मुलाकात करके आगामी चुनाव में जमात का समर्थन बसपा को देने की इच्छा जताई है. इस दिशा में बात आगे बढ़ चुकी है, किसी भी दिन महमूद मदनी की मुलाकात बसपा के शीर्ष नेतृत्व के साथ हो सकती है.
पूरे प्रदेश में जब सपा और भाजपा लोकसभा के चुनाव को अपने बीच का मामला दिखाने की कोशिश में हैं तब बसपा की तरफ से चुपचाप एक ऐसा काम किया गया जिसका जवाब चुनाव प्रबंधन के महारथी मुलायम सिंह के पास भी फिलहाल नहीं है. बसपा के लोकसभा उम्मीदवारों की संभावित सूची में कुल 18 मुस्लिम हैं. यह संख्या सपा के 14 उम्मीदवारों से चार ज्यादा है. हालांकि बसपा ने अभी अपने उम्मीदवारों की औपचारिक घोषणा नहीं की है. लेकिन जैसा कि स्वामी प्रसाद मौर्य बताते हैं, ‘हमारे उम्मीदवार तो डेढ़ साल पहले से ही तय हैं और उन्हें चुनावी तैयारी करने का इशारा भी दिया जा चुका है. इसमें कोई फेरबदल नहीं होगा.’ इनमें से लगभग आठ मुस्लिम उम्मीदवार मुजफ्फरनगर और उसके आस-पास की सीटों से चुनाव लड़ेंगे. एक नजरिये से यह बसपा का मुसलमानों को लुभाने का अतिउत्साही कदम भी माना जा सकता है. राजनीतिक विश्लेषक हेमंत तिवारी के शब्दों में यह काउंटर प्रोडक्टिव भी हो सकता है. यानी कि बसपा को इसका नुकसान भी हो सकता है.
लेकिन फिलहाल बसपा इसे बड़ी समस्या नहीं मान रही है. मुस्लिम समुदाय को विश्वास में लेने और उनके साथ दीर्घकालिक रिश्ते बनाने की दिशा में पार्टी ने अपने राज्यसभा सांसद मुनकाद अली को पश्चिमी उत्तर प्रदेश का प्रभारी भी नियुक्त किया है. इन उपायों के साथ एक और सच्चाई यह भी है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बसपा का पलड़ा हमेशा सपा पर भारी ही रहा है. हेमंत तिवारी बताते हैं, ‘पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुसलमानों का एकमुश्त वोट बसपा को मिलेगा और अगर मायावती ने कोई बड़ा हेर-फेर नहीं किया तो प्रदेश के दूसरे हिस्सों में भी उन्हें मुसलमानों का अच्छा समर्थन मिल सकता है. बसपा के 70 फीसद प्रत्याशी अपने-अपने क्षेत्रों में पिछले डेढ़ साल से काम कर रहे हैं, जबकि सपा ने हाल ही में अपने 77 में से 39 उम्मीदवारों को बदल दिया है. इससे सपा में जबरदस्त भितरघात होगी.’
मायावती को अपने लिए उम्मीद की एक किरण 2009 के लोकसभा चुनाव से भी मिल रही है. उस साल के आम चुनावों में हालांकि बसपा कोई खास प्रदर्शन नहीं कर पाई थी. उसे कुल 2० लोकसभा सीटें प्राप्त हुई थीं. पर इन 20 में से उसके पास चार मुसलमान सांसद थे, जबकि मुसलमानों के मसीहा के रूप मे स्थापित मुलायम सिंह का एक भी मुसलमान प्रत्याशी उन चुनावों में जीत नहीं सका था. उस वक्त बसपा के कुल 47 उम्मीदवार बेहद कम अंतरों से चुनाव हारे थे. आंकड़ों को थोड़ा और खंगालने पर कुछ नई सच्चाइयां सामने आती हैं. उत्तर प्रदेश में करीब 18 फीसदी मुस्लिम आबादी है. 23 फीसदी के करीब दलित आबादी है. इस लिहाज से देखा जाए तो अगर मायावती केवल दलित-मुस्लिम गठजोड़ ही खड़ा कर पाती हैं तो उन्हेंे हरा पाना किसी भी सियासी दल के लिए लगभग असंभव होगा. राजनीतिक टिप्पणीकार और बीबीसी के पूर्व पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं, ‘अगर बसपा दलित-मुस्लिम गठजोड़ खड़ा कर ले तो वह हमेशा के लिए उत्तर प्रदेश की राजनीति पर कब्जा कर लेगी और राष्ट्रीय राजनीति को भी प्रभावित करने की हालत में होगी. पर यह मुश्किल काम है क्योंकि इसके आड़े मायावती का अपना अतीत आता है जो मुसलमानों को बताता है कि वे बार-बार भाजपा के साथ आती-जाती रही हैं.’
यह जो समस्या मायावती के आड़े आ रही है उससे निपटने की गंभीर कोशिशें उन्होंने हाल के दिनों में की हैं. 15 जनवरी को लखनऊ स्थित रमाबाई रैली स्थल पर आयोजित बसपा की विशाल रैली में मायावती ने एलान किया कि वे चुनावों के बाद न तो भाजपा के साथ जाएंगी न ही कांग्रेस के साथ. उनके लिए एक नागनाथ है तो दूसरा सांपनाथ. राजनीतिक विश्लेषक उनके इस बयान के दो निष्कर्ष निकालते हैं. एक तो वे उस मुसलमान को साफ संदेश देना चाह रही हैं जिसके मन में उनके भाजपा से जुड़ाव को लेकर थोड़ी-बहुत आशंका है. राजनीतिक टिप्पणीकार और मायावती की जीवनी बहन जी के लेखक अजय बोस कहते हैं, ‘मुसलमान इस समय चुप है क्योंकि वह सपा को सबक सिखाना चाहता है. वह सपा को दुविधा में रखकर आखिरी वक्त में मायावती को वोट करेगा.’
इसके अलावा उन्होंने कांग्रेस से दूरी बनाकर पूरे देश में कांग्रेस के खिलाफ जो हवा है उससे हो सकने वाले किसी भी नुकसान की संभावना को खत्म करने की कोशिश की है. जनवरी से पहले इस बात की खूब अटकलें लग रही थीं कि कांग्रेस-बसपा के बीच लोकसभा चुनाव से पहले गठबंधन हो सकता है. केंद्रीय इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा ने इस संभावना से जुड़ा एक चर्चित बयान भी दिया था, ‘उत्तर प्रदेश और देश भर में सांप्रदायिक ताकतों को रोकने के लिए कांग्रेस और बसपा को साथ आना चाहिए. अगर यह गठजोड़ हो जाता है तो लोकसभा चुनाव में बाकी सभी पार्टियों का पत्ता साफ हो जाएगा.’ बेनी बाबू की यह इच्छा धरी की धरी रह गई. इसी तरह की बेरुखी मायावती ने मोदी या भाजपा के प्रति नरमी दिखाने वालों के साथ भी दिखाई है. कुछ महीने पहले राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण बुंदेलखंड क्षेत्र से बसपा सांसद विजय बहादुर सिंह ने मोदी की तारीफ कर दी थी. मायावती ने उन्हें अगले ही दिन पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया. यानी मुसलमानों के मन में विश्वास बढ़ाने का वे कोई मौका छोड़ नहीं रही हैं.
ब्राह्मण
2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा को अभूतपूर्व जीत हासिल हुई थी. पहली बार उत्तर प्रदेश में बसपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी थी. बसपा के वोटों का आंकड़ा 30 फीसदी तक पहुंच गया था. इस चमत्कारिक जीत के पीछे मायावती की सोशल इंजीनियरिंग की बड़ी भूमिका बताई गई थी. सुर्खियों के पायदान पर सतीश चंद मिश्रा का नाम बड़ी तेजी से ऊपर चढ़ा था. उनकी प्रतिष्ठा मायावती के विश्वस्त लेफ्टिनेंट के तौर पर स्थापित हो गई थी. हालांकि गोविंद पंत राजू का आकलन दूसरा है, ‘जितना कहा सुना गया उतना ब्राह्मण वोट बसपा को 2007 में नहीं मिला था. यह मुलायम के कुशासन से पीड़ित जनता का उनके खिलाफ दिया गया वोट था जिसमें सभी समुदायों ने मायावती का साथ दिया था.’ उस दौर में सतीश मिश्रा के बारे में कहा जाता था कि उन्होंने एक साल तक लगातार पूरे प्रदेश में घूम-घूमकर दलित-ब्राह्मण एकता से जुड़ी सर्वजन रैलियां की थीं जिसका फायदा 2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा को मिला.
लेकिन 2014 में हालात बदल चुके हैं. इस दौरान बसपा को दो बड़ी हार का सामना करना पड़ा है. 2009 के लोकसभा चुनाव और 2012 के विधानसभा चुनाव में बसपा की हालत खराब रही है. उसकी वोटों की हिस्सेदारी पांच फीसदी तक घट गई है. जाहिर-सी बात है कि दलित ब्राह्मण फार्मूला इन चुनावों में काम नहीं कर सका है. जानकारों की मानें तो आगामी लोकसभा चुनावों में भी ब्राह्मणों का बसपा से दुराव बना रह सकता है. उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रवक्ता सुरेंद्र राजपूत कहते हैं, ‘लोकसभा चुनाव में बसपा को ब्राह्मणों का वोट किसी हालत में नहीं मिलेगा. ब्राह्मणों ने 2009 में भी इन्हें वोट नहीं दिया था. फिलहाल तो ब्राह्मण मोदी और भाजपा के पीछे खड़ा है क्योंकि उसे पता है कि प्रधानमंत्री भले ही मोदी बन जाएं लेकिन चुनाव जीतने की स्थिति में पार्टी और संघ के जरिए ब्राह्मण ही सबसे ज्यादा ताकतवर रहने वाले हैं.’
ब्राह्मण और शहरी मध्यवर्ग के ऊपर मोदी का असर साफ-साफ देखा जा सकता है. मोदी के इस बहाव ने उत्तर प्रदेश की जातिगत खांचों में बंटी राजनीति में एक नए तरह का ध्रुवीकरण पैदा किया है. अजय बोस एक दिलचस्प विचार रखते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में लंबे समय बाद ऐसा चुनाव हो रहा है जो काफी हद तक बाईपोलर है. इसमें ब्राह्मण, ठाकुर और मध्यवर्ग मोदी के समर्थन में है जबकि दलित, मुसलिम और महापिछड़ी जातियां बसपा के पाले में हैं. कांग्रेस यहां पर पहले से ही दौड़ से बाहर हो चुकी है. मुलायम सिंह के पास केवल अपना यादव वोटबैंक ही बचा हुआ है. हो सकता है कि यादवों का भी एक बड़ा हिस्सा उनसे कट जाए क्योंकि जिस तरह से उन्होंने पिछले दो सालों में अपने परिवार को आगे बढ़ाने का काम किया है उससे यादवों के एक बड़े वर्ग में नाराजगी है.’
यहां अहम सवाल है कि जिस दलित-ब्राह्मण गठजोड़ के जरिए मायावती ने चमत्कार किया था उसमें से ब्राह्मण के अलग होने का कितना नुकसान बसपा को हो सकता है और पार्टी इसकी भरपाई कैसे करेगी. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता बताते हैं, ‘फिलहाल पार्टी का ध्यान 40 फीसदी वाले फार्मूले (दलित-मुस्लिम) को ठोस रूप देने पर है न कि तीस फीसदी (दलित-ब्राह्मण) वाले फार्मूले पर.’ जाहिर-सी बात है बसपा के भीतर ब्राह्मणों के मोदी की तरफ जाने की कोई खास चिंता नहीं है. अजय बोस के शब्दों में, ‘बसपा को इतना ब्राह्मण वोट कभी नहीं मिला है, हल्ला ज्यादा हुआ है.’ इसके बावजूद ब्राह्मण समुदाय को आश्वस्त करने और उसके साथ हर-संभव मधुर रिश्ते कायम रखने की कोशिश दो स्तरों पर चल रही है. पहला, पार्टी महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा 2006 की तर्ज पर प्रदेश भर में घूम-घूम कर दलित-ब्राह्मण गठजोड़ वाली रैलियां कर रहे हैं. दूसरा, पार्टी ने अपने घोषित लोकसभा उम्मीदवारों में करीब 18 टिकट ब्राह्मण समुदाय को दिए हैं. यहां पार्टी की रणनीति यह है कि उम्मीदवारों के निजी प्रभाव के जरिए ब्राह्मण वोटों का एक हिस्सा भी पार्टी अपने हक में कर लेती है तो यह उसके लिए बोनस होगा.
महापिछड़ी जातियां
कांशीराम ने जिस सोशल इंजीनियरिंग के जरिए राजनीतिक सत्ता तक पहुंचने का रोडमैप बनाया था उनमें दलितों के साथ-साथ उत्तर प्रदेश की 15-16 महापिछड़ी जातियां भी शामिल थीं. कांशीराम की इस विशाल छतरी के नीचे बिंद, राजभर, बरई, कुशवाहा और पासी आदि अत्यंत पिछड़ी जातियां शामिल थीं. लेकिन 1998 के बाद बसपा में कांशीराम का प्रभाव धीरे-धीरे कम होता गया और उनकी जातियों की छतरी छिन्न-भिन्न होती गई. कांशीराम ने पहले ही मायावती को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था. पार्टी में मायावती का प्रभाव बढ़ गया था. जानकार इस छतरी के बिखरने के पीछे मायावती के निरंकुश रवैये को जिम्मेदार मानते हैं. मायावती ने उन नेताओं को एक-एक कर किनारे लगाना शुरू कर दिया जिनसे उनके एकाधिकार को चुनौती मिल सकती थी. अफरा-तफरी के इस दौर में कांशीराम के इकट्ठा किए गए तमाम साथी बसपा से बाहर निकाल दिए गए. इनमें बरखूराम वर्मा, आरके चौधरी, रामसमुझ पासी, डॉ. मसूद, किशनपाल जैसे तमाम नेता शामिल थे. यह 2001 के आस-पास की घटना है. इनके जाने के बाद बसपा में मायावती की एकल सत्ता स्थापित हो गई. लेकिन हाल के दिनों में मायावती को इस बात का इल्म हुआ है कि दलितों को दिल्ली के दरबार तक पहुंचाने के लिए उसी रास्ते पर चलना होगा जिस पर चलने का सपना कभी कांशीराम ने देखा था.
पिछले कुछ महीनों के दरमियान मायावती ने इस दिशा में कई सुधारवादी कदम उठाए हैं जिनसे महापिछड़ी जातियों के बसपा के साथ एक बार फिर से जुड़ाव की संभावना बलवती हो गई है. पार्टी में दलितों के साथ अतिपिछड़ों की हिस्सेदारी फिर से बढ़ी है. बसपा की अंदरूनी समझ रखने वाले अजय बोस बताते हैं, ‘आरके चौधरी को बहनजी एक बार फिर से पार्टी में वापस लाने जा रही है. चौधरी, कांशीराम के साथी और बसपा के संस्थापक सदस्य थे. इसी तरह से पासियों के बड़े नेता रामसमुझ पासी की भी बसपा में वापसी की बात चल रही है. उत्तर प्रदेश में पासी समुदाय की बड़ी आबादी है.’
महापिछड़ी जातियों का छाता बसपा ने काफी फैलाया है. फिलहाल पार्टी के पास सुखदेव राजभर, रामअचल राजभर, स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे तमाम अतिपिछड़े नेता हैं. पुराने साथियों की वापसी के सवाल पर स्वामी प्रसाद मौर्य इशारों ही इशारों में पुष्टि करते हैं, ‘बसपा व्यक्तियों पर ध्यान नहीं देती. हमारा लक्ष्य सर्वजन को साथ लाने का है. जो लोग किसी कारणवश दूर हो गए थे, अगर वे चाहेंगे तो बहनजी उन पर विचार करेंगी.’
संगठन और मुद्दे
अजय बोस के शब्दों में, ‘मोदी के पक्ष में हवा तो है लेकिन उस हवा में 1990 के मंदिर आंदोलन जैसा भावनात्मक लगाव नहीं है.’ वे हमें उत्तर प्रदेश के दलित मध्यवर्ग में मायावती के प्रति फिर से पैदा हुए भावनात्मक लगाव के बारे में भी बताते हैं. प्रमोशन में आरक्षण का मुद्दा पिछले दिनों काफी चर्चा का
विषय रहा था. बसपा को छोड़कर शेष सभी पार्टियों ने इसका विरोध किया था विशेषकर सपा और भाजपा ने. बोस के मुताबिक दलितों के नौकरीपेशा तबके और मध्यवर्ग में इस बात को लेकर गुस्सा है कि सभी पार्टियां प्रमोशन में आरक्षण की विरोधी हैं. सिर्फ मायावती ही उन्हें यह अधिकार दिला सकती है.
बसपा ने भी अपने कोर वोटबैंक के बीच इस मुद्द को काफी आक्रामक ढंग से आगे बढ़ाया है.
इस काम को आगे बढ़ाने में बसपा अपने पुराने संगठनों का इस्तेमाल कर रही है. बसपा के सांगठनिक ढांचे पर रोशनी डालते हुए गोविंद पंत राजू बताते हैं, ‘डीएसफोर और कांशीराम द्वारा 70 के दशक में खड़े किए गए दलित कर्मचारी संगठन आज भी बसपा के लिए काडर का काम करते हैं. अंबेडकर जयंती, महात्मा फूले जयंती, रविदास जयंती के अलावा तमाम दलित महापुरुषों की जयंतियों और पुण्यतिथियों के माध्यम से ये संगठन साल भर जिलों-तहसीलों में सक्रिय रहते हैं. इनमें दलित और अतिपिछड़े समुदायों की जमकर हिस्सेदारी होती है. इन आयोजनों के जरिए बसपा अपने दलित वोटरों को लामबंद करने और अपनी बात को नीचे तक पहुंचाने में सफल रहती है. ये संगठन बसपा के अपने राजनीतिक ढांचे के साथ बहुत गहराई से जुड़े हुए हैं. इसमें प्रदेश स्तर की कमेटियां, जोनल कमेटियां, उसके नीचे जिला कमेटियां और ब्लाक स्तरीय कमेटियां होती है. इसके जरिए छोटा से छोटा संदेश भी देखते-देखते मायावती से आम वोटर तक और आम वोटर से मायावती तक पहुंच जाता है.’
ऊपर से देखने पर मायावती भले ही ज्यादा सक्रिय नहीं दिखती हों लेकिन इस ढांचे के जरिए उनका जमीन से संपर्क लगातार बना रहता है.
बसपा की दिक्कत
मुलायम सिंह यादव को चुनाव प्रबंधन का बड़ा खिलाड़ी माना जाता है. यह चर्चा लगातार बनी हुई है कि मुलायम सिंह अपना दावा यूं ही नहीं छोड़ेंगे. लिहाजा उनके तरकश से निकलने वाले तीर का सबको इंतजार है. सुरेंद्र राजपूत के मुताबिक ‘मुसलमानों को अपने पाले में खींचने के लिए मुलायम सिंह ने मुस्लिम उलेमाओं की एक पूरी फौज खड़ी कर रखी है जो गांव-गांव जाकर सपा के पक्ष में वोट मांगने का काम करेंगे.’
इसके अलावा मुलायम सिंह की उम्मीद नरेंद्र मोदी भी हैं. जानकारों के मुताबिक मुलायम सिंह की फौज मुजफ्फरनगर को भुलाकर मुसलमानों के बड़े दुश्मन के रूप में मोदी को आगे बढ़ाएगी. अगर यह दांव कामयाब होता है तो मायावती के लिए रास्ता कठिन हो जाएगा. अगर मुसलमान काबा और कलीसे के फेर में फंस गया तो मायावती का खेल खराब हो जाएगा क्योंकि उनके सर्वजन फार्मूले से ब्राह्मण पहले ही अलग होकर मोदी के पक्ष में मन बनाता दिख रहा हैै.
अब बात आती है बसपा को मिलने वाली संभावित सीटों की. इस मुद्दे पर ज्यादातर लोग किसी तरह की भविष्यवाणी करने से बचते हैं. रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं, ‘सीटों के बारे में विश्वास से तभी कुछ कहा जा सकता है जब फाइनल उम्मीदवारों के नाम सामने आ जाएं क्योंकि अंतिम समय में उम्मीदवार और उसकी व्यक्तिगत क्षमता सबसे अहम होती है.’
जानकारों की इस मुद्दे पर सहमति है कि भाजपा के अलावा सिर्फ बसपा उत्तर प्रदेश में अपने पिछले प्रदर्शन को दोहराने में कामयाब रहेगी और यदि मायावती के हालिया उपाय काम कर गए तो उत्तर प्रदेश में और शायद राष्ट्रीय राजनीति में भी मोदी का रथ रोकने का काम मायावती ही कर सकती हैं.