नरेंद्र मोदी देश की बागडोर अपने हाथों में लेने के लिए किस कदर बेताब हैं इसकी जानकारी लगभग सभी को है. लेकिन मोदी के अलावा कोई और भी है जो उनके सर पर प्रधानमंत्री का ताज देखने के लिए उतना ही बेताब है. इसके लिए वह दिन-रात एक किए हुए है. यह व्यक्ति अपने ‘साहब’ के गांधीनगर से सात आरसीआर तक के रास्ते में मौजूद हर अड़चन, हर ठोकर को हटाने की जी-जान से कोशिश कर रहा है. मोदी के इस विश्वासपात्र का नाम है अमित अनिलचंद्र शाह. शाह, नरेंद्र मोदी के हनुमान कहे जाते हैं, उनके लिए मोदी भगवान से कम नहीं हैं और वे भी शाह पर ही सबसे अधिक भरोसा करते हैं.
पार्टी महासचिव अमित शाह वर्तमान में उत्तर प्रदेश में भाजपा के चुनाव प्रभारी हैं. भाजपा को पता है कि अगर पिछले 10 साल का संन्यास खत्म करना है तो उत्तर प्रदेश में उसे चमत्कार करना ही होगा. देश को सबसे अधिक सांसद और अब तक सबसे अधिक प्रधानमंत्री देने वाले उसी उत्तर प्रदेश में शाह अपने साहब और भाजपा की जीत सुनिश्चित करने में लगे हुए हैं.
आखिर अमित शाह नाम का यह व्यक्ति है कौन? क्या है इस व्यक्ति की काबिलियत? क्या कारण है कि इतने बड़े और अनुभवी नेताओं वाले इतने महत्वपूर्ण प्रदेश की जिम्मेदारी अमित शाह को दे दी गई है? क्यों नरेंद्र मोदी को शाह पर इतना भरोसा है कि वे उत्तर प्रदेश में पार्टी में न सिर्फ जान फूंक देंगे बल्कि यहां से क्रांतिकारी चुनाव परिणाम भी लाएंगे.
इन सभी प्रश्नों का जवाब तलाशने के लिए हमें थोड़ा पीछे चलना होगा. चलना होगा गुजरात. नरेंद्र मोदी से अमित शाह की पहली मुलाकात अहमदाबाद में लगने वाली संघ की शाखाओं में हुई थी. बचपन से ही दोनों इनमें जाया करते थे. हालांकि जहां मोदी एक बेहद सामान्य परिवार से आते थे, वहीं शाह गुजरात के एक रईस परिवार से ताल्लुक रखते थे. युवावस्था में एकाएक सब कुछ छोड़कर, सभी से संपर्क काटते हुए मोदी कथित तौर पर ज्ञान की तलाश में हिमालय कूच कर गए. वहीं शाह संघ से जुड़े रहते हुए शेयर ट्रेडिंग तथा प्लास्टिक के पाइप बनाने के अपने पारिवारिक व्यापार से जुड़ गए. समय गुजरता रहा.
अस्सी के दशक की शुरुआत में वापस आने के बाद मोदी फिर से संघ से जुड़ गए और बेहद सक्रियता से उसके लिए काम करना शुरू कर दिया. धीरे-धीरे वे संघ की सीढ़िया चढ़ते गए. इसी दौरान उनकी अमित शाह से फिर मुलाकात हुई. शाह उस समय संघ से तो जुड़े थे लेकिन मुख्य रूप से अपने पारिवारिक व्यवसाय में रचे-बसे थे. अमित शाह ने मोदी से भाजपा में शामिल होने की अपनी इच्छा जाहिर की. मोदी, शाह को लेकर गुजरात भाजपा के तत्कालीन प्रदेशाध्यक्ष शंकरसिंह वाघेला के पास गए. वर्तमान में गुजरात विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री वाघेला उस दिन को याद करते हुए कहते हैं, ‘मैं पार्टी ऑफिस में ही बैठा था. मोदी अपने साथ एक लड़के को लेकर मेरे पास आए. कहा कि ये अमित शाह हैं. प्लास्टिक के पाइप बनाने का व्यापार करते हैं. अच्छे व्यवसायी हैं. आप इन्हें पार्टी का कुछ काम दे दीजिए.’
इस तरह से अमित शाह भाजपा में शामिल हो गए. पार्टी में शामिल होने से लेकर लंबे समय तक शाह की पहचान एक छुटभैये नेता की ही थी. लेकिन वे धीरे-धीरे नरेंद्र मोदी के और भी करीब होते जा रहे थे.
नब्बे के दशक में जब गुजरात में भाजपा मजबूत हो रही थी उस समय अमित शाह के राजनीतिक जीवन में सबसे बड़ा मौका आया. वर्ष 1991 में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सांसद का चुनाव लड़ने के लिए गांधीनगर का रुख किया. उस समय शाह ने नरेंद्र मोदी के सामने लालकृष्ण आडवाणी के चुनाव प्रबंधन की कमान संभालने की इच्छा जाहिर की. शाह का दावा था कि वे अकेले बहुत अच्छे से पूरे चुनाव की जिम्मेदारी संभाल सकते है. अगर आडवाणी यहां अपना चुनाव प्रचार नहीं करते हैं तब भी वे इस सीट को आडवाणी के लिए जीत के दिखाएंगे. शाह के इस आत्मविश्वास से मोदी बड़े प्रभावित हुए और आडवाणी की उस सीट के चुनावी प्रबंधन की पूरी कमान उन्हें सौंप दी गई. आडवाणी उस चुनाव में भारी मतों से जीते. इसका असली सेहरा बंधा मोदी और उनके बेहतरीन चुनावी प्रबंधन के माथे पर. उधर मोदी और आडवाणी भी जानते थे कि जो कुछ हुआ था उसमें अमित शाह की काबिलियत की बहुत बड़ी भूमिका थी. इस चुनाव के बाद शाह का कद गुजरात की राजनीति में बढ़ता चला गया.
इसी तरह का मौका 1996 में भी अमित शाह के पास आया. जब पार्टी नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने गांधीनगर (गुजरात) से चुनाव लड़ने का तय किया. मोदी के कहने पर उस चुनाव की पूरी जिम्मेदारी फिर से अमित शाह को ही सौंपी गई. उस समय अटल पूरे देश में पार्टी का प्रचार कर रहे थे. ऐसे में उन्होंने अपने क्षेत्र में न के बराबर समय दिया. पूरा दारोमदार पार्टी ने अमित शाह के कंधे पर दे रखा था. मोदी को यकीन था कि जिस व्यक्ति को पार्टी ने गांधीनगर की जिम्मेदारी सौंपी है, वह इसमें जरूर सफल होगा. और हुआ भी वैसा ही.
राज्य की राजनीति को जानने-समझने वाले बताते हैं कि इन दो चुनावी सफलताओं ने शाह के जीवन पर तीन तरह से असर किया. सबसे बड़ा प्रभाव यह पड़ा कि अमित शाह छुटभैये नेता की छवि से बाहर निकलकर एक ऐसे नेता के रूप में स्थापित हो गए जो चुनावी प्रबंधन में बेहद माहिर है.
दूसरा, भाजपा के दो शीर्ष नेताओं के सफल चुनाव प्रबंधन के चलते वे उन नेताओं यानी वाजपेयी और आडवाणी की नजरों में आ गए थे.
तीसरा, वे नरेंद्र मोदी के और अधिक विश्वासपात्र और करीबी हो गए. मोदी को शाह की क्षमताओं से अपने राजनीतिक भविष्य की तस्वीर भी सुनहरी होती दिखाई देने लगी. गुजरात की राजनीति को लंबे समय से देख रहे एबीपी न्यूज से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार ब्रजेश कुमार सिंह कहते हैं, ‘पॉलिटिकल स्टैटजी तैयार करने और चुनाव प्रबंधन में अमित शाह की मास्टरी रही है. वो चुनावी व्यूह रचना करने और कैंडिडेट जिताने-हराने में महारत रखते हैं. अपनी इसी काबिलियत के दम पर वो मोदी पर प्रभाव डाल पाने में सफल रहे.’
शुरुआत में काफी लंबे समय तक शाह की राजनीति अहमदाबाद शहर के इर्द-गिर्द ही सीमित थी लेकिन अटल-आडवाणी के आशीर्वाद और मोदी के वरदहस्त ने शाह के राजनीतिक सपनों को उड़ान दे दी. अब उनकी नजर गुजरात की सहकारी संस्थाओं पर थी. पूरे राज्य में, बैंकों से लेकर दूध तक से जुड़ी कोऑपरेटिव संस्थाओं पर कांग्रेस पार्टी का कब्जा था. अमित शाह ने अहमदाबाद में इन संस्थाओं पर भगवा फहराने की शुरुआत कर दी. ब्रजेश कहते हैं, ‘अमित शाह की ये सबसे बड़ी सफलता थी. गुजरात की सहकारी संस्थाओं पर अगर आज भाजपा का कब्जा है तो वो अमित शाह के कारण ही है. इसी व्यक्ति ने अपनी काबिलियत और प्रबंधन से कांग्रेस को दशकों पुराने उसके कब्जे से उखाड़ फेंका.’
प्रदेश की राजनीति को समझने वाले लोग कांग्रेस की राज्य में बदहाल स्थिति को कोऑपरेटिव पर उसके खत्म हुए प्रभाव से भी जोड़ कर देखते हैं. ब्रजेश कहते हैं, ‘इन सहकारी संस्थाओं का गुजरात के ग्रामीण क्षेत्रों पर एक व्यापक प्रभाव था. जिस रफ्तार से कांग्रेस का कंट्रोल इन संस्थाओं पर से कम हुआ, उसी अनुपात में प्रदेश में पार्टी की राजनीतिक सेहत कमजोर होती चली गई.’
सहकारी संस्थाओं के बाद शाह का अगला निशाना गुजरात क्रिकेट संघ था. जानकार बताते हैं कि प्रदेश के क्रिकेट संघ पर वर्षों से कांग्रेस नेता नरहरि अमीन का कब्जा था. शाह ने यहां भी अपनी तैयारी और तिकड़म से कांग्रेस को पटखनी दे दी और डेढ़ दशक से ज्यादा के उसके एकाधिकार को खत्म कर दिया. कालांतर में उन्होंने संघ की कुर्सी पर अपने साहब नरेंद्र मोदी को बिठाया. बदले में मोदी ने शाह को संघ के उपाध्यक्ष की कुर्सी दे दी. यहां यह ध्यान देने वाली बात है कि उस समय जो भी राजनीतिक कलाबाजियां शाह दिखा रहे थे उसमें उनके मार्गदर्शक नरेंद्र मोदी ही थे.
जिस तरह आज मोदी देश के शीर्ष पद पर बैठने को बेताब ह,ैं उसी तरह की बेकरारी से वे उस समय भी ग्रस्त थे जब केशुभाई पटेल गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. मोदी की नजर प्रदेश के मुखिया की कुर्सी पर थी. उन्होंने अपनी व्यूहरचना जारी रखी. शाह के माध्यम से प्रदेश में अपनी राजनीतिक स्थिति मजबूत करने की दिशा में वे काम करते रहे.
जानकार बताते हैं कि इसी राजनीतिक तैयारी के तहत मोदी ने अमित शाह को केशुभाई पटेल के करीब भेजा था. मोदी चाहते थे कि अमित शाह केशुभाई के साथ रहते हुए अंदर की सारी बातें उन तक ले आएं. केशुभाई को इसकी भनक तक नहीं लगी.
हालांकि पार्टी में कुछ लोगों को इस बात का अंदाजा था कि अमित शाह पार्टी में रहकर उससे ज्यादा मोदी के लिए काम करते हैं. शंकरसिंह वाघेला कहते हैं, ‘मोदी ने जब अमित शाह को मुझसे मिलाया और कुछ काम देने के लिए कहा तो मैंने हां कर दी. कुछ समय बाद ही मुझे पता चल गया कि ये आदमी मेरी जासूसी करता है. वो मेरी बातें जाकर मोदी को बताता था. मोदी ने मेरी जासूसी कराने के लिए उसे मेरे पास रखा था. अमित शाह और मोदी की जिस जासूसी वाली हरकत की चर्चा आज है. उस काम को ये दोनों दशकों पहले से करते आए हैं.’
खैर, प्रदेश के राजनीतिक समीकरण आने वाले समय में कुछ इस कदर बदले कि मोदी को केशुभाई पटेल और तत्कालीन संगठन मंत्री संजय जोशी ने गुजरात से बाहर भिजवाने का इंतजाम कर दिया. वर्ष 1986 में मोदी राष्ट्रीय सचिव बनकर दिल्ली आ गए. यहां आकर वे कई राज्यों के प्रभारी बने और कुशाभाऊ ठाकरे के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद महासचिव भी बनाए गए. लेकिन मोदी का मन गुजरात से दूर नहीं हो पाया था. वे वहां की गतिविधियों पर लगातार नजर बनाए हुए थे. इस दौरान अमित शाह ने केशुभाई पटेल के करीबी लोगों में अपनी जगह बना ली थी. उन्हें प्रदेश सरकार और केशुभाई पटेल की हर हरकत का पता होता था, जिसकी सूचना वे बिना देरी किए मोदी तक पहुंचाया करते थे.
उधर केशुभाई पटेल के नेतृत्व में प्रदेश भाजपा की स्थिति लगातार कमजोर होती जा रही थी. पार्टी स्थानीय चुनावों से लेकर उपचुनावों तक में हार का मुंह देख रही थी. इसी बीच 2001 में गुजरात को भयानक भूकंप का सामना करना पड़ा. भूकंप पीड़ितों को राहत पहुंचाने के मामले में भी प्रदेश सरकार की काफी आलोचना होने लगी. इसके बाद तो पूरा एक ऐसा माहौल बना कि केशुभाई पटेल के नेतृत्व में अगर सरकार को छोड़ा गया तो आगामी चुनावों में भाजपा की हार तय है. केशुभाई के खिलाफ दिल्ली में खूब लॉबीइंग हुई. स्थानीय अखबारों से लेकर राष्ट्रीय पत्रिकाओं के पास गुजरात भाजपा की तरफ से ही केशुभाई के खिलाफ खबरें आने लगीं. केशुभाई के खिलाफ बने माहौल के सूत्रधार मोदी थे और इसमें उनकी मदद अमित शाह कर रहे थे. पदमश्री से सम्मानित गुजरात के वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक देवेंद्र पटेल कहते है, ‘केशुभाई के खिलाफ माहौल बनाने का काम नरेंद्र मोदी के लिए अमित शाह ने ही किया था.’
खैर, केशुभाई के जिस तख्तापलट की उम्मीद नरेंद्र मोदी लगाए बैठे थे और जिसके लिए अमित शाह दिल्ली में फील्डिंग सजा रहे थे वह अंततः सफल रही. मोदी और शाह की मेहनत रंग लाई. केशुभाई को प्रदेश के मुखिया की गद्दी से हटाकर मोदी को प्रदेश की कमान सौंप दी गई.
यहां से मोदी और अमित शाह के संबंधों के एक नए दौर की शुरुआत होती है. उस अमित शाह के बनने की शुरुआत होती है जो आज हमारे सामने है.
2002 में अमित शाह को पार्टी ने सरखेज विधानसभा से टिकट दिया. चुनाव में वे रिकॉर्ड एक लाख 60 हजार मतों से जीत कर आए. जीत का यह आंकड़ा मोदी की चुनावी जीत से भी बड़ा था. यह 2007 में जाकर 2 लाख 35 हजार पर पहुंच गया.
खैर, 2002 में जब प्रदेश में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की फिर सरकार बनी तो सरकार में सबसे कम उम्र के अमित शाह को गृह (राज्य) मंत्री बनाया गया. यही नहीं, सबसे अधिक 10 मंत्रालय उन्हें दे दिए गए. मोदी ने शाह को 90 फीसदी से अधिक कैबिनेट समितियों का सदस्य भी बनाया जिनसे उनके विभागों का कोई लेना-देना तक नहीं था. जानकार बताते है कि यह भी मोदी की अपने मंत्रियों पर नजर रखने की रणनीति ही थी. कुछ लोगों की नजर में शाह पर ये मेहरबानियां केशुभाई के तख्तापलट में उनका साथ देने का इनाम थीं.
अमित शाह के रसूख में दिन दोगुनी, रात चौगुनी तरक्की होने की यह सिर्फ शुरुआत भर थी. धीरे-धीरे प्रदेश में स्थिति ऐसी होती गई कि अमित शाह राज्य में मोदी के बाद सबसे अधिक प्रभाव वाले नेता बन गए. कैबिनेट में शाह का रुतबा मोदी से कम नहीं था.
ऐसा नहीं है कि मोदी और शाह के संबंधों में कोई उतार-चढ़ाव नहीं आया या फिर शाह को किसी तरह की कोई चुनौती नहीं मिली. शाह के लिए भी मोदी के मन पर एकछत्र राज कर पाना बहुत आसान नहीं था. इसका सबसे बड़ा कारण थीं वर्तमान में गुजरात की शिक्षा मंत्री आनंदी बेन पटेल.
गुजरात में नरेंद्र मोदी जिन दो लोगों के बेहद करीब थे उनमें से एक थे अमित शाह और दूसरी थीं आनंदी बेन. मोदी के बेहद करीबी मानी जाने वाली आनंदी और अमित शाह के बीच लंबे समय तक शीतयुद्ध चलता रहा. दोनों मोदी पर किसी और के प्रभाव को देखने को तैयार नहीं थे. लेकिन मोदी ने कभी दोनों में से किसी एक को चुनने का काम नहीं किया. पार्टी के एक नेता कहते हैं, ‘अमित शाह मोदी जी की परछाई हैं लेकिन आनंदी बेन मोदी जी के बेहद करीब हैं. ये दोनों लोग आरएसएस के समय से ही एक साथ हंै. शाह और आनंदी के बीच में असहमति हो सकती है. लेकिन मोदी जी कभी इस बात को बर्दाश्त नहीं करते कि शाह आनंदी बेन से कंपटीशन करें.’ दोनों के साथ काम कर चुके शंकरसिंह वाघेला कहते हैं, ‘दोनों बहुत अलग-अलग स्वभाव के लोग है. शाह जहां षड़यंत्र वाले कामों में महारत रखते हैं वहीं आनंदी की प्रशासन पर बेहतर पकड़ रही है.’
हालांकि कैबिनेट के तमाम सदस्यों और पार्टी के अन्य नेताओं की तरफ से भी शाह के प्रति नापसंदगी की खबरें दबे-छिपे आती रही हैं. लेकिन मोदी से नजदीकी की वजह से किसी ने मुंह खोलकर शाह का विरोध करने की हिम्मत नहीं की. ब्रजेश कहते हैं, ‘मोदी सरकार में अमित शाह सब कुछ थे. मोदी के बाद वही सरकार थे. इस वजह से कैबिनेट के बाकी लोग, जो उम्र और अनुभव में शाह से वरिष्ठ थे, उनका शाह से नाराज होना स्वाभाविक था.’ खैर मोदी ने हरसंभव तरीके से शाह को आगे बढ़ाया और शाह ने भी उन्हें प्रसन्न करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी.
देवेंद्र पटेल कहते हैं, ‘अब तक गुजरात में मोदी ने जो भी रणनीति अपनाई है जो कुछ भी किया है उसके पीछे असली दिमाग अमित शाह का ही रहा है. भले ही पर्दे के सामने मोदी दिखाई देते हों. अब तक के अपने राजनीतिक करियर से उन्होंने ये स्थापित किया है कि वो एक बेहद चालाक, सोशल और पॉलिटिकल इंजीनियरिंग में माहिर व्यक्ति हैं.’
शाह का व्यक्तित्व विश्लेषण करते हुए शंकरसिंह वाघेला कहते हैं, ‘ये आदमी बहुत बढ़िया मैनेजर है. अपने मालिक के प्रति वफादार रहता है. इसी आदमी ने गुजरात में कांग्रेस को तोड़ा. सहकारी संस्थाओं से कांग्रेस को खत्म करने का काम किया. ये आदमी 24 घंटे राजनीतिक षडयंत्र में लगा रहता था. आज भी वही करता है. उत्तर प्रदेश में वही करने वो गया है.’
चुनावी राजनीति में माहिर अमित शाह के नाम यह रिकॉर्ड भी है कि अपने जीवन में उन्होंने अभी तक कुल 42 छोटे-बड़े चुनाव लड़े लेकिन उनमें से एक में उन्होंने हार का सामना नहीं किया. दूसरी ओर अमित शाह पर कई फर्जी एनकाउंटर कराने, हत्या कराने, फिरौती, अपहरण जैसे संगीन आरोप भी हैं. हाल ही में उन पर यह आरोप भी लगा कि जब वे गृह राज्य मंत्री थे तो उन्होंने मोदी के आदेश पर अवैध तरीके से एक महिला की जासूसी करवाई थी.
सोहराबुद्दीन शेख की फर्जी मुठभेड़ के मामले में अमित शाह को 2010 में गिरफ्तारी का सामना करना पड़ा. शाह पर आरोपों का सबसे बड़ा हमला खुद उनके बेहद खास रहे गुजरात पुलिस के निलंबित अधिकारी डीजी बंजारा ने किया. फर्जी मुठभेडों के मामले में ही जेल में बंद बंजारा ने एक चिट्ठी लिखकर नरेंद्र मोदी और अमित शाह पर फर्जी मुठभेड़ का आरोप लगाते हुए कहा कि ये दोनों नेता भी फर्जी मुठभेड़ में हुई उन मौतों के आरोपी हैं जिसके चलते वे और 31 अन्य अधिकारी वर्षों से जेल में कैद हैं. साबरमती केंद्रीय कारागार से लिखे गए इस पत्र में वंजारा ने शाह पर पुलिस अधिकारियों को धोखा देने का आरोप लगाया. बंजारा ने लिखा कि वह नरेंद्र मोदी को लंबे समय तक एक भगवान की तरह मानता था, लेकिन उसे यह कहते हुए खेद हो रहा है कि ‘मेरा भगवान अमित भाई शाह जैसे शैतान के प्रभाव से नहीं उबर सका.’ शाह पर गुजरात में ईमानदार पुलिस अधिकारियों को हाशिये पर धकेलने और मनमानी करने के भी आरोप हैं.
अपने अब तक के राजनीतिक करियर में शाह ने एक बेहद लो-प्रोफाइल रखने वाले व्यक्ति की छवि बनाई है. एक ऐसा व्यक्ति जो मीडिया से मोदी के समान ही दूरी बरतता है. बेहद नपे-तुले शब्दों में अपनी बात रखने वाले शाह पर पार्टी के नेता तानाशाह और घमंडी होने समेत कई आरोप लगाते रहे हैं.
गुजरात में पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष कानजी एस ठाकुर इन आरोपों का खंडन करते हुए कहते हैं, ‘ऐसा नहीं है. वो सभी को साथ में लेकर चलते हैं. उनमें कोई घमंड नहीं है. हां, ये है कि वो जो सच होता है वो सीधे मुंह पर बोल देते है. किसी को अच्छा लगे या बुरा.’
उत्तर प्रदेश में उन्हें भेजे जाने के सवाल पर कानजी कहते हैं, ‘जो व्यक्ति यहां गुजरात में कमाल कर सकता है, उसे पार्टी आगे क्यों ना बढ़ाए. हमें विश्वास है कि वो वही करिश्मा उत्तर प्रदेश में दिखाएंगे जो उन्होंने यहां किया है. मोदी जी को किससे क्या काम लेना है ये अच्छी तरह से आता है.’
उत्तर प्रदेश
मोदी और शाह के बीच के अब तक के आपसी संबंध और शाह की चुनावी काबिलियत से यह बात समझी जा सकती है कि क्यों मोदी ने उनको उत्तर प्रदेश का चुनाव प्रभारी बनाया. उत्तर प्रदेश का चुनाव प्रभारी बनने के बाद से अमित शाह ने प्रदेश में भाजपा की जीत के लिए युद्ध स्तर पर काम करना शुरू कर दिया है.
भाजपा के स्थानीय पार्टी नेता बताते हैं कि प्रभारी बनने के बाद लखनऊ में अमित शाह अकेले नहीं आए बल्कि उनके साथ एक पूरी टीम आई है. इसमें बड़ी संख्या में लोगों को वे गुजरात से लेकर आए हैं, ये सभी लोग अमित शाह के मार्गदर्शन में पार्टी की रणनीति बनाते रहे हैं. इनके अलावा आईआईटी और आईआईएम के लड़कों की भी एक टीम शाह ने बनाई है. इसी टीम के माध्यम से शाह उत्तर प्रदेश की व्यूहरचना करने में जुटे हैं. उन्होंने लखनऊ में अपना एक पूरा तंत्र स्थापित किया है.
अमित शाह ने सालों से मरणासन्न पड़े संगठन को सक्रिय करने से अपने काम की शुरुआत की है. पार्टी नेता बताते हैं कि एक रणनीति बनाई गई है जिसके तहत लखनऊ से लेकर राज्य के हर बूथ तक पार्टी संगठन को सक्रिय बनाने की कोशिश की जा रही है. पार्टी प्रवक्ता मनोज मिश्रा कहते हैं, ‘सबसे पहले अमित शाह जी के नेतृत्व में पार्टी ने कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने का काम किया है. उन्होंने तेजी से जनसंपर्क किया है और सभी आठ क्षेत्रों में व्यक्तिगत दौरा किया है. पूरे राज्य में वैज्ञानिक तरीके से बूथ कमेटियां बनाई जा रही हैं.’ शाह के उत्तर प्रदेश में आने के बाद हुए बदलावों की चर्चा करते हुए वाजपेयी कहते हैं, ‘आज लगभग 80 प्रतिशत जगहों पर हमारी बूथ कमेटियां तैयार हो चुकी हैं. पहले ऐसा नहीं होता था. होता ये था कि अगर मुझे टिकट नहीं मिला तो फिर बूथ जाए भाड़ में मैं पार्टी के औपचारिक प्रत्याशी के खिलाफ काम करूंगा. इस बार ऐसा नहीं है. इस बार व्यक्ति नहीं पार्टी चुनाव लड़ रही है. संगठन के तंत्र से चुनाव लड़ा जा रहा है.’
इसके अलावा शाह के नेतृत्व में पार्टी उत्तर प्रदेश में कुछ उसी तरह से तकनीक के साथ गलबहियां कर रही है जिस तरह का प्रयोग प्रमोद महाजन ने अपने समय में किया था. पार्टी नेता बताते हैं कि तकनीक का जैसा प्रयोग इस बार के चुनाव में हो रहा है वैसा उत्तर प्रदेश में पहले कभी नहीं हुआ. हाल ही में अति अत्याधुनिक 400 मोदी रथों को पूरे राज्य में रवाना किया गया है.
पार्टी के नेता बताते हैं कि शाह के यहां आने के बाद एक बड़ा बदलाव यह आया है कि प्रदेश के नेताओं की आपसी सिर-फुटौव्वल बंद हुई है. पार्टी के एक नेता कहते हैं, ‘पहले बड़े नेता आपस में खूब जूतमपैजार करते थे. लेकिन अमित शाह के आने के बाद कार्यकर्ताओं की सुनवाई शुरू हुई है. इन नेताओं को पता है कि शाह मोदी के आदमी हैं. मोदी भाजपा का वर्तमान और भविष्य हैं, ऐसे में जिसे अपने भविष्य की चिंता है वो शाह के सामने जी सर वाली मुद्रा में रहने में ही अपनी भलाई समझ रहा है. सभी कार्यकर्ता इससे बेहद खुश हैं.’
शाह से जुड़े अपने अनुभव को साझा करते हुए एक भाजपा कार्यकर्ता राकेशचंद्र त्रिपाठी कहते हैं, ‘वो प्रैक्टिकल एप्रोच वाले व्यक्ति हैं. उत्तर प्रदेश के उन पुराने नेताओं की तरह नहीं हैं कि पांच घंटे भाषण देंगे जिसमें से तीन लाइनें ही काम की निकलेंगी. वो तीन लाइनें ही बोलते हैं और सभी काम की होती हैं.’ पार्टी के एक जिलाध्यक्ष शाह के काम करने के तरीके पर चर्चा करते हुए कहते हैं, ‘उनकी बातचीत से एक बात साफ हो जाती है कि उन्हें सिर्फ जीत से मतलब है. उनके लिए कुछ और मायने नहीं रखता. आप देख सकते हैं कि प्रदेश में तमाम लोगों को पार्टी से जोड़ा जा रहा है. उन्होंने साफ कर रखा है किसी भी कीमत पर हमें नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री बनाना है. हमको ये चुनाव किसी भी तरह से जीतना ही होगा.’ भाजपा के उत्तर प्रदेश से लेकर गुजरात और दिल्ली तक के नेताओं से बातचीत में यह बात सामने आ जाती है कि कैसे मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए कोई पूरी पार्टी में पागलपन की हद तक मेहनत कर रहा है तो वह अमित शाह ही हैं.
लक्ष्मीकांत बाजपेयी कहते हैं, ‘अमित शाह को पूरी तरह से फ्री हैंड मिला हुआ है. वो प्रदेश में सब कुछ कर रहे हैं जो करना चाहते हैं.’ शाह के माध्यम से आए नवाचारों में एक व्यवस्था यह भी शामिल है कि इस बार पार्टी किसी प्रत्याशी को कैश में कोई रकम नहीं दे रही. लक्ष्मीकांत कहते हैं, हम लोग लोकसभा के स्तर पर पार्टी का बैंक एकाउंट खुलवा रहे हैं. पार्टी प्रत्याशी को जो भी पार्टी की तरफ से सहयोग होगा वो इसी तरह से जाएगा और प्रत्याशी तीन अन्य लोगों की सहमति के बाद ही उस एकाउंट से पैसे निकाल सकता है. बाद में उसको खर्च का पूरा ब्यौरा देना होगा. काले-नीले धन की कोई गुंजाइश नहीं रहने देंगे. ये सब शाह जी की रणनीति का हिस्सा है.’
हालांकि पार्टी के अन्य वरिष्ठ नेताओं से विस्तार से बातचीत करने पर शाह के तौर-तरीकों को लेकर उनकी अप्रसन्नता भी सामने आ जाती है. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक शरत प्रधान कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में शाह दो तरह के लोगों को साथ लेकर काम कर रहे हैं. एक उन्होंने संघ के लोगों की टीम बनाई है. दूसरी गुजरात से वो अपने लोगों को लाए हैं. प्रदेश के नेताओं को वो तवज्जो नहीं दे रहे. यही कारण है कि प्रदेश के बड़े नेताओं में उनको लेकर नाराजगी है. लेकिन लोग डर के मारे मुंह नहीं खोल रहे.’
शाह की कार्यप्रणाली और प्रदेश के वरिष्ठ नेताओं से उनकी नाराजगी के प्रश्न को जब हम प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी के सामने रखते हैं तो वे कुछ यूं जवाब देते हैं, ‘जो वरिष्ठ नेता राज्य में पार्टी को 10 और 47 पर ले आए वो आज राज्य में अपने अस्तित्व का संकट झेल रहे हैं. इसीलिए वो ऐसा माहौल बना रहे हैं. इन लोगों से शाह जी बात करते हैं. उनकी राय ली जाती है लेकिन अब नीतियों के कार्यान्वयन में उनकी बात नहीं माना जाएगी ये तय है. अगर वही निर्णय होना है जो ये काबिल नेता आज तक करते आए हैं तो फिर नई टीम का मतलब क्या रह जाएगा? इन नेताओं ने प्रदेश में हुई रैलियों में अब तक न एक नए पैसे की मदद की है और न भीड़ में एक आदमी बढ़ाने में मदद की है. बस इन लोगों से आप भाषण दिलवा लीजिए.’
उधर शाह के आने से पार्टी के जिला स्तर के नेता और सामान्य कार्यकर्ता खुश नजर आते हैं. वाराणसी महानगर के भाजपा जिलाध्यक्ष तुलसी जोशी कहते हैं, ‘शाह जी पार्टी को हर वार्ड और हर घर से जोड़ने की रणनीति पर काम कर रहे हैं. पहले ऐसा नहीं था. पार्टी को उनके जैसे चार लोग और मिल जांए तो पूरे भारत में वो पार्टी की सूरत बदल देंगे. वो आम कार्यकर्ता को खुद फोन करते हैं. हम जब चाहें वो फोन पर उपलब्ध रहते हैं. ऐसा पहले कभी नहीं था.’
गुजरात, दिल्ली से लेकर उत्तर प्रदेश के राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा है कि अगर नरेंद्र मोदी किसी तरह से पीएम बन जाते हंै तो फिर भारतीय राजनीति और खासकर भाजपा की अपनी राजनीति में अमित शाह सबसे अधिक राजनीतिक प्रभाव वाले नेता होंगे.
खैर, मोदी को गुजरात का सीएम बनाने में सफल भूमिका अदा करने वाले अमित शाह अपनी तरफ से तो वह हर कोशिश करते नजर आ रहे हैं जिससे मोदी को वे पीएम बनवा सकें लेकिन समय की बंद मुट्ठी में क्या है यह तो वक्त ही बताएगा.