1998 और 1999 में भाजपा अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में चुनाव लड़ी थी. संजीदा, समझदार और अनुभवी राजनेता की छवि रखने वाले वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर उसे दोनों बार केंद्र की सत्ता हासिल हुई. लेकिन जब उनकी सरकार भी पुरानी सरकारों जैसी ही निकली तो 2004 में जनता ने उसे सत्ता से बाहर कर दिया. क्या मोदी के पास वाजपेयी जैसी अपील है?
कम से कम इस वक्त तो ऐसा नहीं लगता. 2002 में गुजरात दंगों के बाद मोदी की एक कट्टर नेता की छवि बनी थी जिसके सहारे वे गुजरात की सत्ता में लौटे. लेकिन यह भी अब 11 साल पुरानी बात हो चुकी है और अब इसके सहारे उतने वोट नहीं बटोरे जा सकते जितने वोटों की मोदी उम्मीद कर रहे होंगे. भाजपा ने 2004 और 2009 के चुनावों में उनकी इस छवि का इस्तेमाल किया भी था, लेकिन नतीजे बहुत उत्साहजनक नहीं रहे. 2009 में मुंबई में मोदी ने जमकर प्रचार किया फिर भी पार्टी वहां की सभी छह सीटों पर हार गई. यह 26/11 के हमले के बाद की बात है. तुलनात्मक रूप से देखें तो 1990 के दशक में अयोध्या आंदोलन के चलते आम मानस में भाजपा की कट्टर हिंदूवादी छवि कहीं अधिक प्रभावी थी जिसका फायदा उसे 1996, 1998 और 1999 के चुनावों में मिला भी.
मोदी का दूसरा दांव है अच्छे प्रशासन और 11 साल मुख्यमंत्री रहते हुए गुजरात में किए गए विकास का दावा. लेकिन इसमें भी उतना दम नहीं लगता कि उनके लिए पूरे देश में वोटों का तूफान खड़ा हो जाए. पिछले दिनों जब आडवाणी ने कहा कि गुजरात पहले से ही विकसित था और मोदी ने सिर्फ उसकी हालत सुधारी है तो वे तो निश्चित रूप से राजनीति कर रहे थे, लेकिन अगर यह बात पूरी तरह गलत होती तो आडवाणी ऐसा कहते ही नहीं. अब जब आम चुनाव करीब हैं तो स्वाभाविक ही है कि गुजरात में अच्छे प्रशासन और आर्थिक विकास के मोदी के दावों की पहले के मुकाबले कहीं सघन समीक्षा की जाएगी.
तो सवाल यह उठता है कि भाजपा के भीतर और बाहर मोदी समर्थक उनके पार्टी की चुनाव अभियान समिति का प्रमुख बनने पर इतने अधिक उत्साहित क्यों हैं. इसका जवाब आसान है. कई बार व्यक्ति के उठान में उसकी खूबियों से ज्यादा परिस्थितियों का भी हाथ होता है. दरअसल भाजपा में विश्वसनीय नेतृत्व का पूर्णतया अभाव है. भले ही कांग्रेस के नेतृत्व वाली मनमोहन सिंह सरकार की छवि पर कई बट्टे लग चुके हों फिर भी भाजपा के मन में संशय है कि शायद सिर्फ सरकार के खिलाफ पड़ा वोट उसे दिल्ली की गद्दी तक पहुंचाने के लिए पर्याप्त न हो.
भाजपा की प्रचार मशीनरी ढोल पीट रही है कि पार्टी के कार्यकर्ता आगामी चुनाव में एकमत से मोदी का नेतृत्व चाहते हैं. अगर यह सच भी है तो इसे तभी सही माना जा सकता है जब कस्बों और शहरों में पार्टी कार्यकर्ता ऐसी मांग के साथ नजर आने लगें. जानकारों के मुताबिक जो बात सच है वह यह है कि भाजपा में दूसरी, तीसरी और चौथी पांत के नेताओं और उनके खेमों को लग रहा है कि अगले साल का आम चुनाव उनके लिए केंद्र की सत्ता और उससे जुड़े फायदों तक पहुंचने का आखिरी मौका है. उनका मानना है कि 2009 में फेल हुए आडवाणी उन्हें यह मौका नहीं दे सकते इसलिए उन्होंने मोदी पर दांव लगाया है.