मोदी और राजगणित

आंध्र प्रदेश 
जहां तक आंध्र प्रदेश में भाजपा की संभावनाओं की बात है तो इस बारे में जितना कम कहा जाए उतना अच्छा. 2009 के आम चुनाव में पार्टी ने प्रदेश की कुल 42 लोकसभा सीटों में से 37 पर उम्मीदवार खड़े किए थे लेकिन किसी को संसद में जाने का मौका नहीं मिला. हालांकि इससे पहले भाजपा यहां उम्मीद जगाने वाला प्रदर्शन कर चुकी थी. तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) के साथ मिलकर जब उसने 1999 के आम चुनाव में भागीदारी की थी तब उसे सात सीटों पर जीत मिली थी. लेकिन पिछले दो आम चुनावों से उसका एक भी उम्मीदवार संसद नहीं पहुंच पा रहा है. विधानसभा चुनावों में भी उसका प्रदर्शन इतना ही बुरा रहा है. 2009 के चुनावों में प्रदेश की 294 सीटों में से 271 पर भाजपा के उम्मीदवार थे. इनमें से दो के अलावा सभी को हार का मुंह देखना पड़ा. 1998-99 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनवाने में टीडीपी की भूमिका महत्वपूर्ण रही थी. 2004 में यह रिश्ता टूट गया. अब अगर यह जुड़ता भी है तो इससे किसी चमत्कार के होने की खास संभावना नहीं है क्योंकि टीडीपी खुद अपनी चमक खो चुकी है. 2004  के विधानसभा चुनाव में जनता ने पार्टी को सत्ता से बाहर कर दिया था. 1999 के आम चुनाव में जहां उसके पास राज्य की 42 में से 29 सीटें थीं वहीं 2004 और 2009 के आम चुनावों में इनकी संख्या छह से आगे नहीं बढ़ पाई. इस बार प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री स्व. वाईएसआर रेड्डी के बेटे जगनमोहन अपनी नई पार्टी के साथ कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले हैं. इन जटिल समीकरणों के बीच टीडीपी 2009 के आम चुनावों में 31 सीटें जीतने वाली कांग्रेस के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर का फायदा उठाने की कोशिश करेगी.

बिहार
2009 में भाजपा को 12 सीटों पर जीत मिली थी. पार्टी के इस प्रदर्शन की 2004 के आम चुनाव, जब उसकी झोली में सिर्फ चार सीटें आई थीं, से तुलना करें तो साफ होता है कि जदयू से गठबंधन उसके लिए फायदेमंद साबित हुआ. इससे पहले 1998 के आम चुनावों में जब भाजपा लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी  बनकर उभरी थी तब भी आज के बिहार में उसके पास महज आठ सीटें थीं (शेष 12 सीटें झारखंड वाले हिस्से में थीं). इस समय भाजपा के बड़े नेता दावा कर रहे हैं कि यदि जदयू अगले साल आम चुनाव से पहले गठबंधन से अलग होता है तो उसे बिहार में काफी नुकसान उठाना पड़ेगा, पर सच्चाई उलट हो सकती है. जदयू की वजह से भाजपा को पिछड़े और मुस्लिम दोनों वर्गों के वोट मिले हैं. 1996 में जब वह पहली बार लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी तब उसे बिहार में सिर्फ छह सीटें हासिल हुई थीं. 1991 में राम मंदिर अभियान के समय जब उसने पहली बार लोकसभा सांसदों के मामले में तीन अंकों का आंकड़ा पार किया था तब तो बिहार में उसका खाता शून्य पर पहुंच गया था. इससे पहले 1989 में वर्तमान बिहार में भाजपा को 40 में से महज चार सीटों पर जीत मिली थी (इनमें झारखंड की सीटें शामिल नहीं हैं).

तमिलनाडु
यहां लोकसभा की 39 सीटें हैं. अतीत में भाजपा के पास एक ऐसा मौका आया है जब उसने इस राज्य से बड़ी उम्मीदें बांध ली थीं. 1998 के आम चुनाव में सभी राजनीतिक पार्टियों को चौंकाते हुए उसने न सिर्फ यहां खाता खोला बल्कि 1999 में हुए आम चुनाव में उसने अपनी सीटें बढ़ाकर पांच कर ली थीं. लेकिन खुशहाली का यह किस्सा यहीं खत्म हो गया और इसके बाद वह राज्य में एक भी लोकसभा सीट नहीं जीती. आज के हालात में राज्य की दोनों क्षेत्रीय पार्टियां द्रविड़ मुनेत्र कझगम (डीएमके) और ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कझगम (एआईएडीएमके) के बीच भाजपा के लिए गुंजाइश बहुत कम है. इन दोनों पार्टियों का अतीत बताता है कि वे खांटी अवसरवादी हैं. दोनों ही मोदी के नेतृत्व में बनने वाली सरकार में शामिल होने के लिए एक-दूसरे से होड़ कर सकती हैं. लेकिन यहां लोकसभा चुनावों में ऐसा दुर्लभता से ही होता है कि एक पार्टी दूसरी का पूरी तरह से सफाया कर दे. यानी इनमें से कोई भी मोदी को समर्थन देती है तो संभावना कम ही है कि वह सीटों के आंकड़े में बहुत बड़ी संख्या जोड़ पाए.

मध्य प्रदेश
मोदी यह बिल्कुल अपेक्षा नहीं कर सकते कि मध्य प्रदेश और राजस्थान में भाजपा के बड़े नेता उनका लाल कालीन बिछाकर स्वागत करेंगे. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तो सीधे उनके प्रतिस्पर्धी हैं. वे 13 साल की उम्र से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य हैं. एक हिसाब से तो भाजपा का वर्तमान संकट उसी समय से शुरू हुआ था जब कार्यक्रम में लालकृष्ण आडवाणी ने चौहान की तारीफ करते हुए उन्हें बधाई दी कि उन्होंने गुजरात में मोदी द्वारा किए गए काम की तुलना में मध्य प्रदेश में बेहतर काम करके दिखाया है. यह भी दिलचस्प है कि 2009 के आम चुनाव में चौहान के मुख्यमंत्री रहते हुए मध्य प्रदेश से भाजपा के 16 (29 सीटों में से) उम्मीदवार जीते थे, तो वहीं नरेंद्र मोदी के गुजरात में इससे कम 15 (26 सीटों में से). हालांकि पिछले दिनों दो सीटों पर हुए लोकसभा के उपचुनावों में जीत के बाद यह संख्या 17 हो चुकी है. सौम्य स्वभाव के चौहान पार्टी में दिग्गज नेता नहीं हैं लेकिन वे हमेशा से राष्ट्रीय नेताओं के प्रिय रहे हैं. इनमें भाजपा की दूसरी पांत के नेता अरुण जेतली, अनंत कुमार से लेकर सुषमा स्वराज तक शामिल हैं. संघ परिवार भी उनका समर्थन करता है. इस साल नवंबर में मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं और मोदी के लिए मुश्किल होगा कि उम्मीदवारों के चयन में वे चौहान की पसंद को नजरअंदाज करें. राज्य में यदि तीसरी बार फिर भाजपा की सरकार बनती है तो लोकसभा चुनावों में भी वे अपने करीबियों को टिकट दिलवाएंगे.

मोदी को याद रखना होगा कि वे चौहान को हल्के में नहीं ले सकते. 2003 में भारी बहुमत के साथ भाजपा को सत्ता दिलाने वाली उमा भारती लाख कोशिशों के बाद भी न चौहान को उनके पद से हटने के लिए मजबूर कर पाईं और न ही भाजपा में वापसी के बाद मध्य प्रदेश में उनका राजनीतिक पुनर्वास हो पाया.

राजस्थान
राजस्थान में इस साल विधानसभा चुनाव होने हैं. इसकी पूरी संभावना है कि राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे इनमें मोदी की सक्रियता पर उत्साहित न दिखें. दरअसल राजे अभी से मानकर चल रही हैं कि राज्य में भाजपा को स्पष्ट बढ़त मिली हुई है और वे कांग्रेसनीत सरकार को आसानी से हरा देंगी. उन्हीं के नेतृत्व में भाजपा 2003 के विधानसभा चुनाव के बाद सत्ता में आई थी. हालांकि यह प्रदर्शन 2008 में वे दोहरा नहीं पाईं और भाजपा सत्ता से बाहर हो गई. चौहान की तरह ही यदि वे राजस्थान में भाजपा को जिता पाईं तो अगले साल होने वाले आम चुनाव में राज्य की लोकसभा सीटों पर उम्मीदवारों के चयन में मोदी एकतरफा फैसला नहीं ले पाएंगे. राजस्थान भाजपा के लिहाज से इसलिए बहुत महत्वपूर्ण है कि यहां की कुल 25 लोकसभा सीटों में से फिलहाल उसके पास मात्र चार सीटें हैं. यानी अगले आम चुनाव में उसके पास बड़ा मौका होगा.

कर्नाटक
आगामी आम चुनाव में बहुत कम वक्त बचा है और उसे देखते हुए अगर मोदी कर्नाटक से दूरी बनाए रखने का फैसला करते हैं तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं होनी चाहिए. 2009 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को राज्य की 28 में से 18 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. यह आंकड़ा गुजरात में उसे हासिल सीटों से बेहतर था. लेकिन तीन माह पहले कर्नाटक की सत्ता गंवाने के बाद से वहां पार्टी जनता दल (सेक्युलर) से भी पिछड़ते हुए तीसरे स्थान पर खिसक गई. पार्टी को राज्य के मुख्यमंत्री रहे कद्दावर नेता बीएस येदियुरप्पा ने भी अपूरणीय क्षति पहुंचाई. भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद भाजपा से इस्तीफा देने वाले येदियुरप्पा ने नई पार्टी बना ली और पुरानी पार्टी के महत्वपूर्ण वोट काट लिए.

उड़ीसा
उड़ीसा में मोदी के सफल होने की गुंजाइश कम ही है. राज्य के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने कहा है कि भाजपा के इस नए नायक के पास देश की समस्याओं को हल करने के लिए कम ही सुझाव हैं. वर्तमान में उड़ीसा से भाजपा का एक भी सांसद नहीं है. 1999 में बीजू जनता दल (बीजद) की लहर पर सवार भाजपा को 21 में से नौ सीटें जीतने में कामयाबी मिली थी. वर्ष 2004 में पार्टी को सात सीटों पर जीत हासिल हुई और उसने 1998 के अपने प्रदर्शन की बराबरी कर ली. लेकिन संघ से जुड़े लोगों की ईसाई विरोधी हिंसा से नाराज पटनायक ने 2009 के आम चुनाव से एक महीने पहले गठबंधन तोड़ दिया. भाजपा का वहां से सफाया हो गया. जाहिर है कि मोदी वहां कोई करामात नहीं कर पाएंगे.