सवाल उठता है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा का यह हाल क्यों हुआ. इसकी प्रमुख वजह यह रही कि सवर्ण वोटों पर उसकी पकड़ लगातार कमजोर होती गई. प्रदेश में सवर्ण वोट लगभग 18 प्रतिशत हैं. पहले यह वोट कांग्रेस को जाता था, लेकिन 1989 के बाद से ही भाजपा लगातार इसे अपने पक्ष में करने में कामयाब हो रही थी. 1999 तक प्रदेश के सवर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) वोट का एक बड़ा हिस्सा पार्टी को मिल रहा था. लेकिन पिछले दस साल में सपा और बसपा ने अपना प्रभाव बढ़ाकर और सवर्ण प्रत्याशियों को मैदान में उतार कर ऊंची जातियों के वोट का अच्छा-खासा हिस्सा अपनी तरफ खींच लिया.
1996 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने प्रदेश के कुल सवर्ण वोटों का 74 प्रतिशत हासिल किया था. यानी तीन-चौथाई सवर्ण वोट भाजपा के पास थे. लेकिन 2002 में यह घटकर मात्र 47 प्रतिशत रह गए. इसके ठीक उलट बसपा के पास जहां 1996 में सिर्फ चार प्रतिशत ब्राह्मण वोट थे, वे 2002 में बढ़कर 14 प्रतिशत हो गए. बसपा को मिलने वाले अन्य सवर्ण जातियों के वोट भी इस दौर में लगभग दोगुने हो गए. पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में सपा को लगभग 19 प्रतिशत ब्राह्मण वोट मिले. सपा और बसपा दोनों ही एक दौर में जाति आधारित पार्टियां मानी जाती थीं. लेकिन सवर्ण वोटों को अपने पक्ष में करने के बाद इन पार्टियों की राजनीति लगातार समावेशी हुई है. पिछले दो विधानसभा और दो लोकसभा चुनावों में सपा और बसपा ने ब्राह्मण, बनिया और ठाकुर प्रत्याशियों को रिकॉर्ड संख्या में टिकट दिए. इस कारण सवर्ण वोट का एक बड़ा हिस्सा उनके खाते में गया जिसने पिछड़े और दलित वोट के साथ मिलकर भाजपा की नैया डुबो दी. 2009 के लोकसभा चुनाव में तो बसपा का हर पांच में से एक प्रत्याशी ब्राह्मण था. बसपा में ब्राह्मण प्रत्याशियों की संख्या दलित प्रत्याशियों से भी ज्यादा थी, जबकि दलित ही बसपा के अस्तित्व का मुख्य कारण रहे हैं. ऐतिहासिक तौर पर उत्तर प्रदेश में हमेशा ठाकुर और ब्राह्मण की चुनावी लड़ाई रही है. भाजपा के वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ब्राह्मण विरोधी छवि वाले ठाकुर हैं. मोदी के लिए राजनाथ सिंह के साथ मिलकर राज्य के ब्राह्मणों को अपने पक्ष में करना आसान नहीं होगा.
फिर भी भाजपा किसी तरह से उत्तर प्रदेश में 25 सीटें जीत भी जाती है तो भी मोदी को दौड़ में बने रहने के लिए पूरे देश से 160 सीटें और जोड़नी होंगी. ये सीटें वे कहां से लाएंगे? ला भी पाएंगे या नहीं? जानने के लिए दूसरे राज्यों की स्थितियों पर गौर करते हैं.
महाराष्ट्र
महाराष्ट्र में भाजपा क्षेत्रीय दल शिव सेना के साथ मिलकर चुनाव लड़ती है. यहां 48 लोकसभा सीटें हैं. इनमें सबसे ज्यादा 18 भाजपा ने 1996 में जीती थीं. 1999 में भी पार्टी का प्रदर्शन यहां ठीक रहा और उसे 14 सीटें हासिल हुईं. 2004 में भाजपा के खाते में 13 सीटें आईं, लेकिन 2009 में ये घटकर सिर्फ नौ रह गईं . जबकि 2009 में भाजपा को अपनी बड़ी जीत की उम्मीद थी. चुनाव से छह महीने पहले ही मुंबई पर आतंकी हमला हुआ था जिसमें 150 लोगों की जान चली गई थी. प्रदेश और केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और भाजपा ने इस हमले को सुरक्षा के मामले पर सरकार की नाकामयाबी बताते हुए मुद्दा बनाया था .
लेकिन पार्टी मुंबई की ही छह लोकसभा सीटों में से एक भी नहीं जीत सकी. 2009 में भाजपा को अपने बेजोड़ नेता प्रमोद महाजन की कमी भी काफी खली जिनकी 2006 में उन्हीं के भाई द्वारा हत्या कर दी गई थी . पिछले साल शिव सेना ने भी अपने संस्थापक बाल ठाकरे को खो दिया. उनके बेटे और राजनीतिक वारिस उद्धव ठाकरे की क्षमताओं पर ज्यादातर लोगों को संदेह है. इसके अलावा उद्धव के चचेरे भाई राज ठाकरे द्वारा 2006 में बनाई गई अलग पार्टी मनसे भी लगातार कांग्रेस विरोधी वोटों को बांटने में कामयाब रही है. इस लिहाज से यहां 2014 का पूर्वानुमान भाजपा के लिए बहुत उजले नहीं दिखाई पड़ते .
पश्चिम बंगाल
पश्चिम बंगाल में भाजपा का अस्तित्व लगभग शून्य ही रहा है. 2009 में पार्टी यहां की कुल 42 में से 40 सीटों पर चुनाव लड़ी थी. इनमें से सिर्फ पार्टी के दिग्गज जसवंत सिंह ही दार्जीलिंग से जीत पाए. (संयोग से जसवंत सिंह मोदी के कट्टर विरोधी हैं) बंगाल में भाजपा का सबसे अच्छा प्रदर्शन 1999 में रहा था जब उसे दो सीटें हासिल हुई थीं. वाजपेयी ने तुरंत ही दोनों जीते हुए प्रत्याशियों को अपनी सरकार में मंत्री बना दिया था. दोनों 2004 और 2009 के आम चुनाव में खेत रहे.
भाजपा को 1999 में मिली दो सीटों की जीत भी सिर्फ तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन के कारण ही संभव हो पाई थी. तृणमूल कांग्रेस ही राज्य में मुख्य विपक्षी दल थी जिसने 2011 के विधानसभा चुनाव में 34 साल पुराने साम्यवादी गठबंधन को ध्वस्त किया. भाजपा के लिए 2009 का चुनाव और भी ज्यादा दुखद रहा होगा जब उसके बंगाल के दोनों पूर्व सांसद तृणमूल कांग्रेस के प्रत्याशियों से चुनाव हार गए. तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी एक बार फिर से भाजपा से हाथ मिला सकती हैं. खास तौर से तब जब उन्होंने कांग्रेस से अपना सात साल पुराना गठबंधन तोड़ दिया है. लेकिन क्या वे मोदी का नेतृत्व स्वीकार करेंगी? यह काफी मुश्किल है. पश्चिम बंगाल के लगभग एक चौथाई मतदाता मुस्लिम हैं और तृणमूल के 19 में से दो सांसद भी. ऐसे में ममता बनर्जी मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए समर्थन देने से बचना ही चाहेंगी.