भारतीय जनता पार्टी ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को अपनी चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बना दिया है. यानी वे 2014 में होने वाले 16वें आम चुनाव में भारत की मुख्य विपक्षी पार्टी की कमान संभालेंगे. अक्टूबर, 2001 में मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री बनने से पहले शायद ही किसी ने सोचा होगा कि मोदी एक दिन इतने बड़े हो जाएंगे कि उन्हें देश की सबसे बड़ी गद्दी के दावेदार के तौर पर देखा जाएगा. तब तक वे भाजपा के उन नेताओं में हुआ करते थे जो परदे के पीछे रहकर अपनी जिम्मेदारी निभाते हैं.
इसमें कोई शक नहीं कि यह एक दुर्लभ विशेषाधिकार है जो पार्टी के 33 साल के इतिहास में सिर्फ दो लोगों को मिला है. पहले अटल बिहारी वाजपेयी जो इस दावेदारी के बाद प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने में सफल भी हुए और दूसरे लाल कृष्ण आडवाणी, जो उपप्रधानमंत्री रहे और 2009 के आम चुनावों में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बने. 33 साल की इस अवधि में भाजपा के कई अध्यक्ष हुए, लेकिन इनमें सिर्फ वाजपेयी और आडवाणी थे जिन्हें प्रधानमंत्री पद के योग्य समझा गया. मोदी इस सूची में तीसरा नाम बन गए हैं. आम चुनाव में अब एक साल से भी कम का वक्त बचा है. इस लिहाज से देखें तो जीत के लिए टीम और रणनीति बनाने या 2002 के गुजरात दंगों के चलते बनी विभाजनकारी नेता की अपनी छवि बदलने के लिए उनके पास ज्यादा समय नहीं है.
पिछले आम चुनाव में आडवाणी के नेतृत्व के साथ मैदान में उतरी भाजपा को पराजय मिली थी. सवाल उठता है कि क्या मोदी पार्टी को विजय दिला पाएंगे. क्या वे उन मोर्चों पर सफल हो पाएंगे जहां आडवाणी नाकामयाब रहे थे? क्या 2009 के आडवाणी के मुकाबले वोटरों में मोदी का ज्यादा आकर्षण है? क्या भाजपा के मौजूदा या संभावित सहयोगी प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी को स्वीकार कर पाएंगे? मोदी के समर्थकों और विरोधियों, दोनों में उनकी मुस्लिमविरोधी छवि है. इसके चलते गठबंधन सहयोगी जनता दल यूनाइटेड के साथ भाजपा की तनातनी हुई. मोदी उन कुछ राजनेताओं में से हैं जिन्हें भारत की बहुलतावादी राजनीति के लिए खतरे के तौर पर देखा जाता है. क्या उनकी मुस्लिम विरोधी छवि भारत की 80 फीसदी हिंदू जनसंख्या में भाजपा के समर्थन का तूफान पैदा कर सकेगी? या फिर इसके चलते भाजपा को एक बार फिर पराजय का सामना करना पड़ेगा?
मोदी की एक दूसरी छवि भी है. एक ऐसे नेता की छवि जिसने तेज आर्थिक विकास के बूते अपने राज्य में खुशहाली पैदी की. वे अपनी इस उपलब्धि का जिक्र जमकर करते भी हैं. सवाल उठता है कि गुजरात में सुशासन का मोदी का दावा क्या भारत के 80 करोड़ वोटरों का उतना हिस्सा अपनी तरफ खींच पाएगा जिसके बल पर उनकी पार्टी की सरकार बन सके. 2004 में भाजपा ने भारत उदय और इंडिया शाइनिंग के नारों के साथ ऐसा ही दावा किया था जिसका लोगों पर इतना असर नहीं हो पाया कि भाजपा सत्ता में वापसी कर पाती. और आखिरी सवाल यह है कि विधानसभा चुनाव में लगातार तीन बार जीत क्या संसदीय चुनाव में पहली बार विजय पताका फहराने की उनकी कोशिश में उनके काम आएगी.
राज्यों में भाजपा का हाल
2009 के मुकाबले इस वक्त भाजपा की हालत पतली है. इसका मतलब यह हुआ कि मोदी की राह 2009 के आडवाणी से कहीं ज्यादा मुश्किल है. आडवाणी उस समय तुलनात्मक रूप से फायदे की स्थिति में थे. पांच साल पहले भाजपा के पास सात राज्यों की सत्ता थी. आज उसके पास सिर्फ चार राज्य हैं- मध्य प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़ और गोवा. इसमें राजनीतिक प्रासंगिकता के हिसाब से गोवा न के बराबर है. बिहार में वह जदयू के साथ गठबंधन के सहारे सत्ता में है. 2005 से यह गठबंधन वहां अटूट रहा है. 2009 में बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से भाजपा ने 12 जीती थीं और 1999 में अपने सबसे बढ़िया प्रदर्शन की बराबरी की थी. 2010 के विधानसभा चुनाव में भी इसने बढ़िया प्रदर्शन किया. लेकिन आज भाजपा-जदयू गठबंधन टूट के कगार पर है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को चिंता है कि मोदी के साथ दिखने से बिहार के 17 फीसदी मुस्लिम मतदाता उनसे दूर जा सकते हैं. पड़ोसी राज्य झारखंड में अवसरवादी राजनीति के चलते इस साल जनवरी में ही भाजपा ने सरकार गंवाई है. राज्य में अब राष्ट्रपति शासन है. पिछले साल उत्तराखंड और हिमाचल में हुए विधानसभा चुनावों में पार्टी सत्ता से बाहर हुई है.
जनसंख्या और राजनीतिक असर के हिसाब से देश के सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश में भी पार्टी का हाल बुरा है. पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी 403 में से सिर्फ 48 सीटें जीत पाई थी और तीसरे स्थान पर रही थी. उसका यह प्रदर्शन 2007 के मुकाबले तो खराब ही था जब उसने 51 सीटें जीती थीं 2002 की तुलना में तो यह कोसों दूर था जब उसने 88 सीटों पर विजय हासिल की थी. यह दिखाता है कि भाजपा 2002 से राज्य की सत्ता में रही सपा और बसपा सरकारों की असफलताओं का फायदा उठाने में नाकामयाब रही है. उसके लिए चिंता की बात यह भी है कि 2007 के मुकाबले 2012 में जहां सपा और कांग्रेस का वोट प्रतिशत बढ़ा वहीं भाजपा का वोट प्रतिशत 17 फीसदी के मुकाबले 15 फीसदी रह गया. वैसे देखा जाए तो उत्तर प्रदेश में पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से पार्टी का लगातार पतन हुआ है. 1996 से अब तक हुए चार विधानसभा चुनावों में उसकी सीटों की संख्या और वोट प्रतिशत दोनों में गिरावट आई है. 1996 में पार्टी ने 32.5 फीसदी वोटों के साथ 425 में से 174 सीटें जीती थीं.
महाराष्ट्र का हाल भी कुछ ऐसा ही है. 1999 से अब तक हुए तीन विधानसभा चुनावों में वहां भाजपा-शिवसेना गठबंधन हर बार हारा है. सीट संख्या और वोट प्रतिशत दोनों लिहाज से भाजपा का प्रदर्शन लगातार गिरा है. यानी जनसंख्या के मामले में इस दूसरे सबसे बड़े राज्य में भी वह अपने सबसे बुरे दौर में है. उड़ीसा में जब बीजू जनता दल नेता और राज्य के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने 2009 में इससे गठबंधन तोड़ा तो इसकी नैया ही डूब गई थी. भाजपा को कुछ राहत पिछले साल पंजाब में मिली जहां शिरोमणि अकाली दल के साथ इसके गठबंधन ने विधानसभा चुनाव में अपनी सत्ता कायम रखी थी. बड़े लाभ की उम्मीद भाजपा को सिर्फ राजस्थान में है जहां वह नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनावों में सत्ता विरोधी लहर के सहारे सत्तासीन कांग्रेस को हराने के सपने देख रही है.
मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पार्टी ने 2003 से लगातार दो बार सरकार बनाई है. यहां भी विधानसभा चुनाव छह महीने दूर हैं. हालांकि वहां की भाजपा सरकारें खुद को लोकप्रिय बता रही हैं, लेकिन कांग्रेस को उम्मीद है कि दस साल से सत्ता में बैठी इन सरकारों के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर बनेगी और वहां वह वापसी करेगी. अगर भाजपा ने इन दो में से एक भी राज्य गंवा दिया तो वोटरों और पार्टी दोनों में मोदी की अपील बुरी तरह घट सकती है.
लोकसभा में भाजपा
केंद्र में भाजपा की पहली सरकार सिर्फ 13 दिन चली थी. 1996 में तब उसे बहुमत के आंकड़े यानी 272 सीटों तक पहुंचने के लिए पर्याप्त दलों का समर्थन नहीं मिल पाया था. 1998 में बनी पार्टी की दूसरी सरकार 13 महीने चली. 1999 में बनी इसकी तीसरी सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया. 1998 में भाजपा ने 182 सीटें जीती थीं. 1999 में यह आंकड़ा 183 हुआ. दोनों बार दूसरे दलों के समर्थन से उसकी सरकार बनी.
माना जा सकता है कि अगर भाजपा अगले आम चुनाव में 185 सीटों के आस-पास पहुंच जाती है तो वह केंद्र में सरकार बनाने की दावेदार होगी. इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए मोदी के रास्ते में जो अड़चनें हैं वे उन अड़चनों से कहीं बड़ी हैं जो 2009 में आडवाणी के सामने थीं. 2009 में जब भाजपा आडवाणी के नेतृत्व में मैदान में उतरी थी तो उसके खाते में 2004 के आम चुनावों में मिली 137 लोकसभा सीटों की पूंजी थी. यानी पार्टी को करीब 45 सीटों की खाई पाटनी थी. अभी भाजपा के पास 116 लोकसभा सीटें हैं. यानी मोदी को दूसरी पार्टियों से 70 के करीब सीटें छीननी होंगी. जिस तरह से 2009 के बाद हुए विधानसभा चुनावों और लोकसभा उपचुनावों में भाजपा का प्रदर्शन गिरा है, उसे देखते हुए उनके सामने बहुत बड़ी चुनौती है. खासकर तब तो बहुत ही बड़ी अगर पिछली बार की तरह इस बार भी भाजपा 543 में से 365 लोकसभा सीटों पर लड़ी और बाकी सीटें उसे गठबंधन सहयोगियों के लिए छोड़नी पड़ीं.
उत्तर प्रदेश
अपनी पार्टी को सत्ता में लाने और खुद प्रधानमंत्री बनने का जो सपना मोदी देख रहे हैं वह तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक वे उत्तर प्रदेश में पार्टी की किस्मत नहीं बदल देते. उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 80 सीटें हैं जो किसी भी राज्य की तुलना में सबसे ज्यादा हैं. इनमें से सिर्फ नौ ही आज भाजपा के पास हैं. 1996, 1998 और 1999 के तीन लोकसभा चुनावों में भाजपा लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में आई थी. इन चुनावों में उसने क्रमश: 52, 59 और 29 सीटें जीती थीं. 2004 में जब वाजपेयी सरकार सत्ता से बाहर हुई तब भाजपा सिर्फ 10सीटें जीत पाई थी.
यह रिकॉर्ड इशारा करता है कि दिल्ली की सत्ता में वापसी करने के लिए भाजपा को उत्तर प्रदेश में कम से कम 25 सीटें तो जीतनी ही होंगी. यानी मौजूदा सीटों से 16 सीट ज्यादा. अगले साल 25 सीटें जीतना भाजपा के लिए 1999 की स्थिति की तुलना में कहीं ज्यादा मुश्किल है. 1999 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने कुल 30 प्रतिशत वोट हासिल करके 25 सीटें जीती थीं. दरअसल 1991 से 1999 का दौर उत्तर प्रदेश में भाजपा का स्वर्णिम दौर रहा था. इस दौरान हुए चारों लोकसभा चुनावों में पार्टी ने 30 प्रतिशत से ज्यादा वोट हासिल किए. 1998 में तो यह आंकड़ा 37.5 प्रतिशत तक भी पहुंचा. लेकिन 2004 में यह घटकर 22 प्रतिशत पर आ गया और 2009 में तो पार्टी को कुल 17.5 प्रतिशत वोट ही हासिल हुए. कोढ़ में खाज यह कि 14 साल में सपा और बसपा जैसे क्षेत्रीय दल उत्तर प्रदेश में मजबूत ही हुए हैं. 90 के दशक में हुए विधानसभा और लोकसभा चुनावों में भाजपा का वोट प्रतिशत या तो सबसे ज्यादा होता था या फिर वह इस मामले में दूसरे स्थान पर रहती थी. लेकिन अब स्थिति ऐसी नहीं है. अपवाद के रूप में 2009 के लोकसभा चुनाव को छोड़ दें जब कांग्रेस ने बसपा से एक ज्यादा यानी 21 सीटें हासिल की थीं, तो वोट प्रतिशत का सबसे बड़ा हिस्सा अब सपा और बसपा में बंटता है.