कोटा की जीवन रेखा चंबल मध्य प्रदेश से निकलते हुए करोड़ों लोगों का भाग्य तय करती है। लेकिन मुट्ठी भर ख़ुदगर्ज लोग पिछले कुछ दशकों से इस नदी को नष्ट और बर्बाद कर रहे हैं। पौराणिक साक्ष्य और भूगर्भ वैज्ञानिकों के साक्ष्य बताते हैं कि वह काफ़ी पुरानी नदी है। कालिदास के ‘मेघदूत’ में इस नदी को भागीरथी की संज्ञा दी गयी है। किन्तु फ़िलहाल का दौर तो इस नदी की जलराशि के दोहन का है। उसी अनुपात में गंदगी मिलाने और अतिक्रमण का है। जबकि इस नदी को अधिकतम निचोडक़र अपने बल्ब जलाने, अपने कारख़ाने चलाने और अपने खेतों की सिंचाई करने को विकास की योजना मान चुके हैं। कोटा के लाखों लोगों को अपने आँचल में समेटने वाली नदी का चीर हरण चल रहा है।
यदि इसे सर्वनाश की संज्ञा दे दी जाए, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। नदी के प्रदूषण के तीन मुख्य बिन्दु है। कूड़े, मल और ज़हरीले रसायनों को नदी में डालना, नदी में पानी की मात्रा कम होना एवं नदी जल की गुणवत्ता का हृास होना। आ$िखर क्यों इस पर गंभीरता से विचार नहीं किया गया? गंदे नालों से दिन-ब-दिन मटमैली होती शिक्षा नगरी कोटा की जीवन रेखा चंबल नदी के लिए पर्यावरण प्रेमियों का यह कथन एकदम सटीक है कि ‘चंबल शुद्धिकरण योजना सरकारी योजनाओं की नाकामी का मॉडल है।’
बदतर स्थिति तो यह है कि इसके तटीय क्षेत्रों को निगलने की अतिक्रमण की कपट लीला से चंबल अपने किनारे से दो किलोमीटर दूर खिसक गयी है। शुद्ध और स्वच्छ चंबल भले ही इस शहर का सपना हो; लेकिन 18 बड़े नालों के ज़रिये योजना गिरने वाले 960 लाख लीटर गंदे पानी से आज यह नदी नारकीय स्थितियों में है। इस नदी को सीवर की तरह इस्तेमाल करने में यहा के कल-कारख़ाने सबसे आगे है। चंबल शुद्धिकरण योजना के नाम पर अभी तक केवल घाटों का निर्माण किया गया है। चाहे उन घाटों से नदी बहती ही ना हो। जलदाय विभाग ने चंबल शुद्धिकरण योजना के लिए ‘नीरी’ से 127 करोड़ का मसौदा तैयार करवाया था। इसमें चंबल में गिरने वाले सभी नालों को रोककर शोधन प्लांट तक बदलने और शेष पानी को जलापूर्ति के लिए भेजना होता है।
योजना के मुताबिक, नदी किनारे सार्वजनिक शौचालय, विद्युत शवदाह गृह और घाट बनाये जाने थे। साथ ही चंबल के तटीय इलाक़ों में अतिक्रमण करने वालों पर सख़्ती करने की योजना भी शामिल थी; लेकिन इस योजना को केंद्र द्वारा मंज़ूर करना तो दरकिनार योजना का आकार घटाकर मात्र 23 करोड़ का कर दिया गया। एक बड़े प्रस्ताव की बेक़दरी से झुँझलाई राज्य सरकार ने जब तर्कों की तीरंदाज़ी की तो केंद्र तनिक पिघला तो सही; लेकिन इस शर्त के साथ कि इसमें 30 प्रतिशत के भागीदारी राज्य सरकार को निभानी पड़ेगी।
केंद्र ने इसी विस्तृत रिपोर्ट तैयार करके भेजने को कहा था; लेकिन प्रश्न है कि क्या यह रिपोर्ट भेज दी गयी। दरअसल योजना के महँगी होने की मुख्य वजह है चंबल में गिरने वाले नालों को रोककर पहले शोधन संयंत्रों तक पहुँचाना। जलदाय विभाग का कहना है कि भले ही योजना महँगी हो; लेकिन जब तक नालों को सीधे चंबल में गिरने से नहीं रोका जाएगा, तब तक शुद्धिकरण योजना का कोई लाभ मिलने वाला नहीं है। हालाँकि चंबल शुद्धिकरण की एक समानान्तर योजना नगर निगम भी बना रहा था। इसके लिए शोधन संयंत्र धाकडख़ेड़ी में बनाया जाना था; लेकिन यह योजना चर्चाओं के घेरे से अभी तक बाहर नहीं आयी है।
कोटा शहर को जलापूर्ति बैराज के अपस्ट्रीम से होती है। इसमें चार छोटे और चार बड़े नाले नदी में गिर रहें हैं। इनमें शिवपुरा, गोदावरीधाम, किशोरपुरा और साजीदेहड़ा के नाले शामिल हैं। दिलचस्प बात है कि अतिक्रमण भी अपस्ट्रीम में ही हो रहा है। बैराज के डाउन स्ट्रीम की हालत तो और ज़्यादा $खराब है। इसमें पोर्टवाल का नाला, भटजी घाट, बड़ी समाध, भाटापाड़ा, लाडपुरा, नयापुरा, गांवड़ी, नेहरू नगर, सकतपुरा तथा कुन्हाड़ी समेत 10 नाले शामिल है। शहर को पर्यटन विकास के मद्देनज़र वाटर स्पोट्र्स का ख़्वाब दिखा चुकने में किशोर सागर तालाब भी प्रदूषण से बचा हुआ नहीं है। इसमें छोटे-बड़े मिलाकर लगभग 22 गंदे नालों का पानी गिरता है।
हालाँकि जलदाय विभाग इस बात का दावा तो करता है कि अगले तीन वर्षों में नदी का 80 प्रतिशत हिस्सा प्रदूषण मुक्त हो जाएगा। लेकिन रेंगती योजना को देखकर यह दावा केवल प्रलाप लगता है। चंबल शुद्धिकरण योजना में नदी के तटों का विकास करना भी शामिल है। लेकिन भूमाफ़िया यहाँ अवैध ढंग से इमारतें बनाकर तटीय क्षेत्रों को निगलने पर उतारू है। नगर निगम के सूत्र यह कहकर अपने दायित्वों की इतिश्री कर लेते हैं कि हमने नोटिस जारी कर दिये हैं। लेकिन सवाल है कि इन पर अमल क्यों नहीं हो रहा?
मध्य प्रदेश में 274 किलोमीटर चलने के बाद चंबल राजस्थान के कोटा में पहाड़ों से नीचे उतरती है। यहीं से इसके साफ़ जल है। गंदगी घुलनी शुरू हो जाती है और कोटा शहर की परछाइयाँ इसके गंदले पानी से धुँधली दिखायी देने लगती है। कोटा में प्रदूषण पैदा करने वाली लगभग 30-35 औद्योगिक इकाइयाँ है। ये इकाइयाँ एन.एच. मर्करी और शीशा लीड जैसे तत्त्व प्रदूषण रूप में नालों में प्रवाहित करती है, जो जलचरों और मनुष्यों के स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक है। चंबल के पान में प्रदूषण की मात्रा कितनी हो चुकी है?
इस बारे में पर्यावरण विशेषज्ञ एवं मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त एम.सी. मेहता का कथन काफ़ी मायने रखता है कि ‘चंबल में लगातार ज़हर घुल रहा है।’ कोटा में स्वास्थ्य सम्बन्धी गड़बडिय़ों के बढ़ते ग्राफ का मुख्य कारण भी यही है। धूप से झिलमिलाते जल में चंबल फेस्टीवल का नयनाभिराम समारोह देख चुके लोगों में इस शहर करे पर्यटन से जोडऩे का गहरी चाह जगा दी है। लेकिन चंबल की दयनीय दशा देखते हुए, तो इस सपने के सच होने की कोई उम्मीद नज़र नहीं आती।
दिलचस्प बात है कि चंबल का आँचल साफ़ करने से बेफ़िक्र एक केंद्रीय मंत्री पिछले दिनों इसमें ख़्वाब दिखा चुके हैं। कहीं यह उनका बौद्धिक दर्प तो नहीं?