भारत की विदेश नीति मज़बूत या कमज़ोर?

(FILES) In this file photo taken on July 10, 2008 a Chinese soldier gestures as he stands near an Indian soldier on the Chinese side of the ancient Nathu La border crossing between India and China. - Indian and Chinese troops have became embroiled in a new brawl on their contested border which left injuries on both sides, barely six months after a deadly clash in the Himalayas, military sources and media reports said. (Photo by Diptendu DUTTA / AFP) (Photo by DIPTENDU DUTTA/AFP via Getty Images)

शैलेंद्र कुमार इंसान

भारत की विदेश नीति मज़बूत है या कमज़ोर? यह सवाल एक अहम सवाल है। क्योंकि एक तरफ़ चीन और भारत के मामले में भारत सरकार की ख़ामोशी और दूसरी तरफ़ अन्य देशों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौरे और लंबी-लंबी बातें। ये सब बातें कहीं-न-कहीं दो तरह की विदेश नीति की ओर इशारा करती हैं।

हाल ही में जापान के प्रधानमंत्री फूमियो किशिदा दो दिन की यात्रा पर जब भारत आये, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें गोलगप्पे खिलाये। पार्क में टहलाया। आम पन्ने का, लस्सी का भी लुत्फ़ उठाया। उनके इस दौरे को द्विपक्षीय सम्बन्धों को और मज़बूत करने के रूप में देखा गया। प्रधानमंत्री मोदी और जापान के प्रधानमंत्री फूमियो किशिदा ने भारत-जापान वैश्विक रणनीतिक साझेदारी का विस्तार करने का संकल्प लिया और जापानी भाषा में एमओसी (सहयोग का ज्ञापन) का नवीनीकरण, अनिवार्य रूप से उच्च स्तरीय भाषा सीखने और मुंबई-अमहदाबाद हाई स्पीड रेलवे परियोजना पर 300 बिलियन के जेआईसीए लोन पर नोटों का आदान-प्रदान करने जैसे दो महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर भी किये। दोनों प्रधानमंत्रियों ने दोनों देशों के द्विपक्षीय सम्बन्धों में प्रगति की समीक्षा की और रक्षा उपकरण और प्रौद्योगिकी, व्यापार, स्वास्थ्य, डिजिटल आदि क्षेत्रों में साझेदारी पर विचारों का आदान-प्रदान भी किया। साफ़ है कि जापान क्‍वाड में भारत, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के साथ शामिल है और पुराने रिश्ते होने के चलते वह भारत को नाराज़ नहीं करेगा।

वास्तव में प्रधानमंत्री मोदी और जापानी प्रधानमंत्री किशिदा की इस मुलाक़ात के कई और पहलू भी हैं। ब्‍लूमबर्ग की रिपोर्ट में कहा गया है कि जापानी प्रधानमंत्री किशिदा चाहते हैं कि भारत रूस के प्रति सख़्त रवैया रखे और उसका विरोध करे। लेकिन रूस पिछले पाँच-छ: दशकों से भारत का रणनीतिक साझीदार है और इस दोस्ती को ख़त्म करना नामुमकिन है। वास्तविकता यह है कि जापान के प्रधानमंत्री किशिदा चाहते हैं कि भारत जापान और रूस में से किसी एक से दोस्ती रखे, जबकि भारत की यह सोच है कि दुनिया के ज़्यादातर देशों से मधुर सम्बन्ध रहें। भारत न तो जापान की दोस्ती ठुकराना चाहता है और न रूस से दोस्ती तोडऩे के पक्ष में हैं। रूस केवल भारत का रणनीतिक साझीदार ही नहीं है, बल्कि वह भारत को हथियार और ऊर्जा का भी बड़ा निर्यातक है। जापानी प्रधानमंत्री किशिदा ने भारत दौरे से पहले कहा था- ‘जी-7 और जी-20 देशों के नेताओं के तौर पर मैं आपसी सम्पर्क मज़बूत करने की कोशिशों को आगे बढ़ाना चाहता हूँ।’

बता दें कि भारत जी-20 का अध्यक्ष है और जापान जी-7 का अध्यक्ष है। लेकिन वह भारत से रूस से रिश्ते तोडऩे की शर्तों पर रिश्ते रखना चाहता है। इधर, जापान और भारत की पहल से चीन तिलमिलाया हुआ है। हालाँकि भारत के विदेश मंत्रालय ने जापान की तरफ़ से हुई बात पर टिप्पणी ही नहीं की है। जापानी प्रधानमंत्री किशिदा चीन के ख़िलाफ़ हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत के ज़रिये नयी पहल करना चाहते हैं। किशिदा ने पिछले साल जून में शांगरी-ला डायलॉग में कहा था कि अगले साल तक शान्ति की योजना के लिए आज़ाद और खुले हिंद-प्रशांत से जुड़ी नीति को वह जारी करेंगे।

इस योजना पर जापान अगले तीन वर्षों में दो अरब डॉलर का ख़र्चा करेगा। वह इस रकम से हिंद-प्रशांत क्षेत्र के देशों को गश्‍ती नाव और ऐसे कई उपकरणों से लैस करना चाहता है, ताकि चीन का मुक़ाबला किया जा सके। यह भारत के हित में है। परन्तु चीन की तरह जापान भी कम चालाक नहीं है। इसलिए यह ऐसा ही होगा कि एक दबंग को हटाने के लिए दूसरे दबंग से हाथ मिलाना। चीन भारत और जापान के प्रधानमंत्रियों की हर गतिविधि पर नज़र रखे हुए था।

इधर अमेरिका और भारत के रिश्तों में बदलाव आ रहा है, जो कि सैन्य गतिविधियों को लेकर चल रहा है। अमेरिकी सेना ख़ुफ़िया जानकारी सीधे भारतीय सेना से साझा कर रही है। अमेरिका चाहता है कि भारत चीन को एलएसी से पीछे करे। दरअसल, इसके पीछे अमेरिका के अपने मक़सद हैं। लेकिन एलएसी को लेकर अमेरिका ने भारत को हाई क्वालिटी की सैटेलाइट की तस्वीरें दी थीं। इस कारण चीन को अपनी आक्रामक नीति पर फिर से सोचने के लिए मजबूर होना पड़ा था। दावा किया जा रहा है कि चीन को बातचीत की मेज पर लाने के पीछे भारत को बड़े पैमाने पर मिल रही विदेशी मदद बड़ा कारण था। ऐसा पहली बार हुआ है, जब अमेरिका ने इतनी जल्दी दूसरे देश से सम्बन्धित ख़ुफ़िया जानकारी को भारत के साथ साझा किया है। लेकिन भारत सरकार की प्रतिक्रिया से लगता है कि वह इस मुद्दे पर ज़्यादा सक्रिय नहीं है। वहीं भारतीय सेना के रणकौशल के आगे चीन टिक नहीं पा रहा है। जब भी चीनी सेना एलएसी का अतिक्रमण करती है, भारतीय सेना उसे पीछे धकेल देती है। पिछले साल गलवान, अरुणाचल प्रदेश में हुई मुठभेड़ों में यही हुआ। अरुणाचल प्रदेश में भारतीय सेना के साथ चीनी सैनिकों की मुठभेड़ में अमेरिका की भूमिका स्पष्ट थी। कहा जा रहा है कि अमेरिकी सेना ने सीधे तौर पर भारतीय सेना के समर्थन में थी। वास्तव में अमेरिका को चीन के आगे बढऩे से समस्या है। भारत के लिए चीन के बढ़ते क़दम किसी बड़े ख़तरे से कम नहीं हैं। चीन की विस्तारवाद जहाँ अमेरिका के लिए सिरदर्द बनी हुई है, वहीं एलएसी पर उसकी अतिक्रमण नीति भारत के लिए इससे भी बड़ा सिरदर्द है।

भारत एक चतुर विदेश नीति को आगे बढ़ाना जानता है। उसे मालूम है कि अगर वह चीन को पीछे धकेलने के लिए अमेरिका की मदद लेगा, तो अमेरिका भारत का इस्तेमाल इससे भी ख़राब तरीक़े से करने की कोशिश करेगा। भारत के परमाणु परीक्षण से पहले ही वह नाराज़ बैठा है और उसने इसका बदला लेने के लिए पहले भी हर सम्भव प्रयास किये हैं। लेकिन चीन से भी भारत निपटना चाहता है और कई बार साफ़ कह चुका है कि चीन उसे कमज़ोर न समझे। चीन भी इस बात को समझता है। भारत ने गुआम किलर को डब्ल्यूटीसी कमॉड में अलग ब्रिगेड शामिल करके चीनी सेना में एक डर बनाया है। यही वजह है कि चीन भारत को अपने लिए बड़ा ख़तरा मानने लगा है। इसी डर से चीन की सेना ने 4,000 से 5,000 किलोमीटर रेंज वाली 64 मिसाइल बेस में वेस्टर्न थिएटर कमांड में नया मिसाइल ब्रिगेड स्थापित किया है। लेकिन भारत ने चीन से निपटने की हर तैयारी कर रखी है। यही कारण है कि चीन भारत की हर गतिविधि पर नज़र रखता है।

भारत की विदेश नीति अपनी जगह काफ़ी अलग और मज़बूत है। भारत को पता है कि उसे किस देश से किस हद तक किस तरह के रिश्ते रखने हैं। पिछले आठ-नौ वर्षों में इन रिश्तों में कई तरह के मोड़ भी आये हैं; लेकिन फिर भी मज़बूती मिली है। यह भारत सरकार के नुमाइंदों का कहना है। पिछले आठ-नौ वर्षों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विदेश यात्राओं को जितनी तवज्जो दी है और दूसरे देशों के प्रतिनिधियों को भी भारत बुलाया है। वास्तव में भारत क्षेत्रीय अखंडता और विदेशी सीमा सुरक्षा को लेकर सतर्क रहता है और इसकी वजह भारत की सीमा में विदेशियों का बार-बार अतिक्रमण करना भी है। कहा जाता है, जब कोई किसी पर बार-बार हमला करने की सोचे तो वह सचेत रहता है। भारत को पता है कि उसकी सभी सीमाएँ सीमावर्ती देशों द्वारा दबाने के प्रयास होते रहे हैं। विदेशों के आंतरिक मामलों में ग़ैर-संयोजक नीति अपनाने के सिद्धांतों को मज़बूत करने के भारत के इस प्रयास को सही नज़रिये से देखा जाना चाहिए। साथ ही भारत को विदेशी भागीदारों के साथ बातचीत करके कुछ मुद्दों को सुलझाने की आवश्यकता है, ताकि प्रत्यक्ष विदेशी नीति और परोक्ष विदेश नीति के अतिरिक्त उसे वित्तीय समझौतों, मेक इन इंडिया और औद्योगिक मसलों को सुलझाने में कठिनाई न हो। भारत का बुनियादी विकास का ढाँचा काफ़ी मज़बूत है, परन्तु उसे इसकी सुरक्षा के लिए विदेशों से बिना बात बिगाडऩे की आवश्यकता भी नहीं है और इसी रास्ते पर भारत चल भी रहा है। उल्लेखनीय है कि हाल के वर्षों में भारत ने विदेश नीति के मामले में राजनीतिक कूटनीति के साथ आर्थिक कूटनीति को एकीकृत करके एक दृष्टिकोण अपनाया है।

समझना होगा कि भारत दुनिया में सबसे बड़ा प्रवासी देश है, जहाँ लगभग दो करोड़ प्रवासी भारतीय और लगभग 138 करोड़ भारतीय मूल के लोग रहते हैं। इनमें से कुछ लोग पूरी दुनिया में फैले हुए हैं। इसलिए भारत को अपनी विदेश नीति के तहत किसी भी देश से बिगाडऩे का मतलब ही नहीं बनता, जो सही भी है। वास्तव में यह ठीक भी है, क्योंकि भारत की संस्कृति वसुधैव कुटुंबकम की है। इसलिए जापान के प्रधानमंत्री के साथ जैसा व्यवहार और आवभगत भारत को करनी थी, वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की।

भारत सरकार ऐसा वातावरण तैयार कर रही है, जिससे भारत के समूल विकास के लिए एक समावेशी और अनुकूल माहौल बन सके। इसके लिए हर देश से मधुर रिश्तों की आवश्यकता भी है। सबसे गम्भीर मुद्दा है भारत का अभी तक विकासशील देशों में ही रहना। भारत को बहुत पहले ही विकसित देशों की सूची में आ जाना चाहिए था। लेकिन यह क्यों सम्भव नहीं हो सका है, इसका जवाब किसी के भी पास नहीं है। अब भारत को इस ओर क़दम बढ़ाना चाहिए और विकास के नये रास्ते तैयार करते हुए विकसित देशों की दौड़ में शामिल होना चाहिए। इसके लिए विदेशों की आर्थिक मदद से बेहतर है, अपने यहाँ अपने दम पर औद्योगिक स्थापना करना। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस दिशा में काम करना चाहिए।