मैं, मेरा और हमारा

socialपिछले दो दशकों में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि मध्यवर्ग का विकास रहा है. यूं तो अंग्रेजों के आने के बाद से ही इस देश में मध्य वर्ग का विकास शुरू हो गया था. समाज में अच्छी हैसियत रखने वाले खासतौर से जमींदार वर्ग ने उभरती हुई संभावनाओं को देखते हुए शिक्षा की तरफ अपने-आपको प्रेरित किया. जब सरकारी नौकरियां खुलने लगीं तो इस वर्ग ने अपने-आपको मध्य वर्ग में परिवर्तित कर लिया. इस पारंपरिक मध्यवर्ग ने राष्ट्रीय आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और आजादी के बाद देश के प्रशासन को चलाने के साथ भविष्य में भारत का क्या रूप होना चाहिए इस पर नीति निर्धारण में भी सराहनीय कार्य किया.

मगर आजादी के बाद और खासतौर से साठ के दशक में एक और मध्यवर्ग उभरा जिसके विकास की प्रक्रिया बिल्कुल अलग थी, इसको समझना अत्यंत जरूरी है क्योंकि विचारधारा और सामाजिक प्रवृत्तियों में यह नवमध्य वर्ग, पारंपरिक मध्यवर्ग से बिल्कुल भिन्न है. नवमध्यवर्ग विरासत में मिली संपन्नता या सामाजिक हैसियत का नतीजा नहीं है. सच तो यह है कि नियंत्रण के अर्थशास्त्र के द्वारा तेजी से उत्पन्न होने वाले भ्रष्टाचार ने इस नवमध्य वर्ग की संभावनाओं को जन्म दिया. अस्सी के दशक में इस देश में मारुति कार बाजार में आई. यदि हास्य व्यंग्य का सहारा लिया जाए तो यह कहा जा सकता है कि मारुति उन सभी मनोवैज्ञानिक और सामाजिक प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करती थी जो नवमध्य वर्ग की प्रवृत्तियां थीं. तेज रफ्तार सड़क पर चलने के लिए बनाए गए कानून और दूसरे तमाम कानूनों का उल्लंघन करते हुए दूसरों से आगे निकल जाना और यह मानना कि यही कामयाबी की निशानी है, इस नए मध्यवर्ग की विशेषता थी.

पारंपरिक मध्य वर्ग जमीन और सामाजिक हैसियत के आधार पर खड़ा हुआ था इसलिए इस पर शुरू से ही उच्चजातियों का आधिपत्य रहा. नवमध्यवर्ग समाज के उन वर्गों से पैदा होकर सामने आया जो जातीय और सामाजिक दृष्टिकोण से बीच की और निचली जातियां थीं. यह नया मध्य वर्ग अपनी बेईमानी और मेहनत की बदौलत अस्तित्व में आया था. चूंकि यह नवमध्यवर्ग शिक्षा की दृष्टि से तो बहुत कुशल था नहीं परंतु एकदम से पैसा आ जाने के कारण समाज में अपनी हैसियत बनाने में कामयाब हो पाया था, इसलिए उसकी सोच पारंपरिक और रूढ़िवादी ही रही. अपनी नई सामाजिक हैसियत को मजबूत करने के लिए और मान्यता दिलाने के लिए इस वर्ग ने बड़े पैमाने पर धर्म का सहारा लिया. उसने न सिर्फ अपने व्यक्तिगत जीवन में धार्मिक पर्वों और मान्यताओं को स्थान दिया बल्कि अपने सार्वजिनक जीवन में भी वह इन्हें खुलकर अपनाने लगा.

आज भी नवमध्यवर्ग मानता है कि राष्ट्र को सिर्फ आर्थिक विकास ही चाहिए. दूसरे सामाजिक मुद्दे जैसे समानता या सामाजिक न्याय इस वर्ग के लिए कोई मायने ही नहीं रखते

यदि हम याद करें तो दिखाई देगा कि साठ और सत्तर के दशक में इस देश में नए-नए पर्व मनाने की परंपरा प्रबल रूप से सामने आई. समाज में उभरते नए मध्यवर्ग ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. बडी से बड़ी रकम देकर उसने धार्मिक रथों पर बैठकर शहर में घूमने का सिलसिला शुरू किया, मानो वह समाज के दूसरे वर्गों को बताना चाहता था कि कल तक तुम मुझे एक छोटा आदमी समझते थे परंतु आज मेरी भी हैसियत है और देखो, मैं धार्मिक मंच पर कितनी ऊंची जगह पर बैठा हुआ हूं. साठ और सत्तर के दशक में जिस प्रकार से धार्मिक, आर्थिक या सामाजिक कारणों से धर्म का इस्तेमाल शुरू हुआ उसने अस्सी और नब्बे के दशक में इस देश के सांप्रदायिक वातावरण को ही नहीं गरमाया बल्कि संकीर्ण हिंदूवादी विचारधारा को उभारने की संभावनाएं भी पैदा कीं जिससे हम अभी तक मुक्ति प्राप्त नहीं कर पाए हैं.

नवमध्यवर्ग की एक और विशेषता उपभोगवाद है. एक समय कहा जाता था कि जब आसानी से पैसा आ जाता है तो उसका इस्तेमाल गलत तरीके से होता है. इस वर्ग के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है. उसके लिए उपभोग स्वयं में ही एक धर्म बन गया है जिसके समाज में व्यापक दुष्प्रभाव पैदा हो रहे हैं. यह नया मध्यवर्ग उन सभी जगहों पर देखने को मिल जाता है जहां पैसे खर्च करने की संभावनाएं हों और जहां उपभोगवादी प्रवृत्तियों की संतुष्टि हो सकती हो. इसके साथ-साथ दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि समाज का वंचित वर्ग भी नए मध्यवर्ग के लोगों खासतौर से युवाओं को ऐसा करते देखकर उपभोगवाद की तरफ आकर्षित हो रहा है. उसमें भी ख्वाहिश पैदा होती है कि वह भी ब्रांडेंड शर्ट खरीदे या पिज्जा हट या डोमिनोज में जाकर खाना खाए. सामर्थ्य न होने के कारण या तो इस वर्ग के लोग ऐसा करने के लिए अपनी दूसरी जरूरतों का गला घोंट देते हैं या फिर अवैध तरीके अपनाते हैं ताकि उनके पास भी वह सब कुछ हो जो एक सामान्य मध्यवर्गीय व्यक्ति के पास है.

सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से नवमध्यवर्ग का रवैया इस देश में गरीबों और असहाय लोगों की ओर, जो आजादी के साठ साल बाद भी केवल अपनी जीविका भर चला पाते हैं, अत्यंत नकारात्मक है. एक ओर नवमध्यवर्ग का सोचना है कि गरीबी के लिए गरीब स्वयं जिम्मेदार हैं. यदि थोड़ा सा बढ़ाचढ़ाकर कहें तो यह वर्ग समझता है कि गरीबों को तो समंदर में डुबो देना चाहिए क्योंकि मक्खियों और मच्छरों की तरह वह जनसंख्या पर रोक लगाने को तैयार नहीं हैं इसलिए उनके कारण समाज की प्रगति में बाधा पैदा होती है. मध्यवर्ग अक्सर यह भूल जाता है कि बहुत सी सेवाएं जिनका वह उपभोग करता है, वास्तव में गरीब परिवार ही उपलब्ध कराते हैं. अल्पसंख्यक समुदायों की तरफ भी नवमध्यवर्ग की   सोच कुछ इसी प्रकार की है. उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा समझता है कि अल्पसंख्यकों के कारण देश की तरक्की नहीं हो रही है क्योंकि अल्पसंख्यक पिछड़ा है, शिक्षा की तरफ उसका रवैया नकारात्मक है, वह या तो शिक्षा प्राप्त नहीं करता और अगर करता भी है तो मदरसों में जाता है जिसका कोई फायदा नहीं होता. मतलब यह निकलता है कि यह नवमध्यवर्ग समझने को ही तैयार नहीं है कि समाज के सभी सदस्यों और नागरिकों को अपनी-अपनी तरह से रहने का अधिकार है. समस्या यह है कि धीरे-धीरे नवमध्यवर्ग यह समझने लगा है कि देश की सभी समस्याओं का हल उसके पास है और कुछ हद तक उसमें इस बात के लिए कुंठा है कि जो वह सही समझता है उस पर राजनीतिक नेतृत्व द्वारा कुछ नहीं किया जा रहा.

नवमध्यवर्ग का विकास पिछले बीस से तीस साल में हुआ है और इसी से इस वर्ग से जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण आशंका पैदा होती है. क्योंकि उसका सामाजिक स्तर जल्दी से उठा इसलिए उसे यह विश्वास ही नहीं है कि कब तक उसकी यह संपन्नता बरकरार रहेगी. इसलिए उसको अपने स्तर को बनाए रखने की चिंता अंदर ही अंदर तंग करती रहती है. आर्थिक मंदी के प्रभाव से यही वर्ग सबसे ज्यादा चिंतित और आशंकित है क्योंकि यदि आर्थिक संकट गहरा होगा तो उसका सीधा और छुपा असर सबसे ज्यादा इसी पर पड़ेगा. इस बढ़ती हुई परेशानी का अंदाजा लगाने के कई मापदंड हैं: शेयर बाजार में उतार-चढ़ाव से नवमध्यवर्ग का रक्तचाप आए दिन उसी तरह ऊपर-नीचे होता रहता है. साथ ही साथ नौकरियों में होने वाली कटौतियां इस वर्ग के लिए अस्थिरता पैदा कर रही हैं जिसके कारण उसकी हैसियत खतरे में पड़ सकती है. आर्थिक संकट के कारण नवमध्यवर्ग के कुछ लोगों द्वारा आत्महत्या करना या दीवालिया हो जाना इस चिंता और परेशानी को और भी प्रबल बना देता है.

चमकते भारत के सपने ने मध्यवर्ग को सबसे ज्यादा आकर्षित किया था. उस नारे के चलन में आने के बाद नवमध्यवर्ग सोचने लगा था कि अब उसका भविष्य सुरक्षित रहेगा क्योंकि उभरती आर्थिक शक्ति के रूप में भारत में उसके लिए संभावनाएं बढ़ेंगी. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि बढ़ती हुई आर्थिक मंदी ने इस आशा को आशंका में बदल दिया है. लेकिन आज भी नवमध्यवर्ग मानता है कि राष्ट्र को सिर्फ आर्थिक विकास ही चाहिए. दूसरे सामाजिक मुद्दे जैसे समानता या सामाजिक न्याय इस वर्ग के लिए कोई मायने ही नहीं रखते. उसकी सोच है कि सेज़ बनने चाहिए. औद्योगीकरण की प्रक्रिया और मजबूत होनी चाहिए और अर्थव्यवस्था के उदारीकरण की प्रक्रिया को व्यापक बनाया जाना चाहिए ताकि विदेशी पूंजी भारत में आए और देश का विकास हो. उसके लिए यदि कठिनाई है तो केवल इतनी कि इस देश का एक बहुत बड़ा हिस्सा गरीब और असहाय है और धीरे-धीरे लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया से उसने भी अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना सीख लिया है. इससे लोकतंत्र गहरा और मजबूत हुआ है इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता. परंतु वह नवमध्यवर्ग की चिंता नहीं है क्योंकि उसका लोकतंत्र में विश्वास हमेशा से कमजोर रहा है.

आशाएं और आशंकाएं
31 जनवरी 2009