फिल्म समीक्षक से फिल्म निर्देशक बने सुधीश कामथ की नई फिल्म गुड नाइट, गुड मॉर्निंग देखना ऐसा अनुभव है मानों आप चोरीछिपे एक लड़के और लड़की की निजी बातचीत सुन रहे हों. गौरव सोलंकी का आलेख
मुम्बई के एक मल्टीप्लेक्स में हम टिकट खिड़की पर हैं. हम सुधीश कामथ की फिल्म ‘गुड नाइट गुड मॉर्निंग’ देखने आए हैं जिसका कोई विज्ञापन आपको किसी अखबार या टीवी चैनल में नहीं दिखेगा. न ही हमें सिनेमाहॉल के आसपास फिल्म का कोई पोस्टर दिखता है और कतार में मेरे आगे खड़ा एक लड़का, जो टिकट बेचने वाले से कहता है कि किसी भी फिल्म का टिकट दे दो, वह ‘गुड नाइट..’ का टिकट लेने से सिर्फ इसलिए मना कर देता है क्योंकि उसने इसका नाम नहीं सुना. वही हम सब हैं. जो गाना जितना टीवी पर बजता है, उसे उतना ही गुनगुनाते हुए.
वे आज भी मोटरसाइकिल पर ऑफिस जाते हैं, घर या कार खरीदने जैसी चीजें उनकी योजनाओं में दूर-दूर तक नहीं हैं और सारी कमाई उन्होंने अपनी दो फिल्में बनाने पर लगा दी है
बाद में सुधीश बताते हैं कि एक स्वतंत्र फिल्मकार की इस तरह की फिल्म का रिलीज हो पाना ही बड़ी बात है और प्रचार के लिए जितना पैसा चाहिए, वह तीस लाख में एक फिल्म बना लेने वाले सुधीश के पास नहीं है. वे इस पर हंसते हैं कि कैसे उन्होंने यूं ही विज्ञापनों की दरें पता करने के लिए कल एक बड़े अंग्रेजी अखबार से सम्पर्क किया और उन्हें बताया गया कि 30 वर्गमीटर के एक विज्ञापन के लिए उन्हें सत्तर हजार रुपए देने होंगे.
आप जानते हों या न जानते हों, लेकिन सच यही है कि ढेरों छोटी फिल्में सिर्फ इसलिए रिलीज नहीं हो पाती कि उनके पास प्रचार के लिए पैसा नहीं है और वह भी तब, जब उनका मुकाबला ऐसी दानव फिल्मों से है, जो हवा की तरह पैसा बहा सकती हैं.
लेकिन फिर भी सुधीश के चेहरे और आवाज में मुस्कुराता हुआ हौसला है. यह दूसरी फिल्म है, जो उन्होंने अपनी तनख्वाह की बचत के पैसे और कुछ उधार से बनाई है. वे जान गए हैं कि हमारे सिनेमा में स्वतंत्र फिल्मकार होने का मतलब सबसे मजबूर फिल्मकार होना है जिसे फिल्म बनाने के बाद भी जाने कितने वक्त तक वेटिंगरूम में बैठे रहना पड़ता है. वे जैसे बारह साल पहले नौकरी के शुरुआती दिनों में जाते थे, आज भी मोटरसाइकिल पर ऑफिस जाते हैं, घर या कार खरीदने जैसी चीजें उनकी योजनाओं में दूर-दूर तक नहीं हैं और सारी कमाई उन्होंने अपनी दो फिल्में बनाने पर लगा दी है लेकिन फिर भी सुधीश के चेहरे पर हौसला है. आप ‘गुड नाइट गुड मॉर्निंग’ देखेंगे (अगर वह आपके सिनेमाघरों तक पहुंची या इस लेख के पहुंचने तक बड़े सितारों वाली फिल्म ने उसे लगे रहने दिया) तो जान जाएंगे कि रात भर की एक फोन कॉल पर मामूली से बजट में इतनी खूबसूरत ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म बनाने वाले फिल्मकार का उस हौसले पर हक तो बनता ही है.
सुधीश ‘द हिन्दू’ के फिल्म समीक्षक हैं. मैं पूछता हूं कि क्या इससे कुछ फायदा होता है? वे हंसते हुए कहते हैं कि बस इतना ही कि लोग आपको नोटिस कर लेते हैं. लोग आपकी फिल्म की समीक्षाएं पढ़कर बधाइयां देते हैं लेकिन आसानी से फिल्म देखने नहीं जाते. और यही रवैया दिनदहाड़े फिल्मों की हत्या करता है. जब आप अपनी बैठक में आराम से पसरकर इस बात पर बहस कर रहे होते हैं कि अच्छा सिनेमा आखिर बन क्यों नहीं रहा, तब आपके नजदीकी सिनेमाघर में एक छोटी फिल्म किसी चिकनी चमेली या रा.वन के पैरों तले कुचली जा रही होती है.
सुधीश की पहली फिल्म ‘दैट फोर लैटर वर्ड’ जब 2007 में मुम्बई के एक सिनेमा में रिलीज हुई तो पहले शो में एक भी दर्शक नहीं पहुंचा था. वजह वही कि प्रचार शून्य था. शो कैंसल करना पड़ा. उस फिल्म पर सुधीश ने आठ साल लगाए थे और इस दौरान पूरी फिल्म को दो बार शूट किया था. हालांकि अब वे उस फिल्म को दस में से चार नम्बर वाली फिल्म मानते हैं लेकिन उन्हें उन आठ सालों से एक बड़ी सीख मिली- कि अच्छी स्क्रिप्ट और अच्छे एक्टर एक फिल्म के लिए सबसे जरूरी चीज हैं. और ‘गुड नाइट गुड मॉर्निंग’ में आपको ये दोनों चीजें ही कमाल दिखेंगी.
यह सुधीश और उनकी साथी लेखक शिल्पा रत्नम के डायलॉग और उनके मुख्य अभिनेताओं मनु नारायण और सीमा रहमानी की एक्टिंग का ही जादू है कि आप उस एक घंटा लम्बी फोन कॉल को – जो सेक्स की उम्मीद में शुरू होती है और किसी अमर प्रेमकथा की तरह खत्म- उसे आप ऐसे सुनते हैं जैसे सचमुच चोरी से किसी का फोन सुन रहे हों. पुरानी फिल्मों की तरह लगभग पूरी फिल्म में स्क्रीन दो हिस्सों में बंटी रहती है और आप दोनों किरदारों को एक ही वक्त में देखते हैं. दोनों के सीन अलग-अलग वक्त में शूट किए गए हैं और परदे पर उन्हें एक साथ इतना स्वाभाविक दिखाना बहुत मेहनत का काम है.
सुधीश अपनी फिल्म की ही तरह बहुत मीठे हैं और ट्विटर पर सार्वजनिक रूप से यह प्रस्ताव वही दे सकते हैं कि अगर आपको उनकी फिल्म पसंद नहीं आई तो बाद में कभी वे आपको एक कॉफी पिला देंगे. मैं उनसे पूछता हूं कि अब तक कितने लोगों ने कॉफी मांगी? ‘किसी ने भी नहीं“, और वे हंस देते हैं.