जून, 1988 में गिरफ्तार होने से पहले मैं लगभग सैकड़ों बार बॉर्डर पार करके पाकिस्तान जा चुका था. हम वहां से पाकिस्तानी सैनिकों को भारत लाया करते थे. ये वे सैनिक थे जो पाकिस्तानी सेना में रहते हुए भारत के लिए जासूसी करते थे. पाकिस्तान में गिरफ्तार होने और चार साल के इंटेरोगेशन के बाद मुझे 14 साल की सजा सुनाई गई. मुझे खुफिया एजेंसी के लोगों ने कहा था कि अगर मैं पकड़ा जाता हूं तो वे मेरे परिवार का ख्याल रखेंगे. इसलिए सारी प्रताड़नाओं के बावजूद मुझे एक दिलासा यह रहती थी कि भारत में मेरा परिवार ठीक होगा. लेकिन चार साल की इंटेरोगेशन और 14 साल की सजा काटने के बाद जब मैं घर आया तो पता चला कि ऐसा तो कुछ नहीं हुआ. घर में पत्नी और दो बच्चे बहुत बुरी हालत में थे. पत्नी दूसरों के घर में नौकरानी का काम करती थी. मेरी गिरफ्तारी के बाद 11 महीने तक तो उसे 300 रुपये हर महीने मिलते रहे लेकिन उसके बाद कभी कोई मदद नहीं मिली. उसने दूसरों के घरों में बर्तन मांजकर बच्चों को बड़ा किया. यहां आकर मैं अपने अधिकारियों से मिला, उनसे सहायता मांगी लेकिन वे लोग साफ मुकर गए. उन्होंने किसी तरह की मदद करने से इनकार कर दिया. उसके बाद मैं कोर्ट गया. कोर्ट में जब केस चल रहा था उस समय रॉ के कुछ अधिकारियों ने मुझसे संपर्क किया और 50-60 हजार रुपये लेकर मामला खत्म करने और केस वापस लेने की बात की. मैंने कहा, मुझे भीख नहीं मेरा जायज हक चाहिए. मैंने इनकार कर दिया.
कुछ दिनों के बाद दिल्ली से रॉ के एक बड़े अधिकारी अमृतसर आए. उन्होंने मुझे एक होटल में बुलाया और कहा मैं दो लाख रुपए लेकर केस वापस ले लूं. लेकिन मैंने उनसे कहा कि मामला सिर्फ मेरा अकेले का नहीं है बल्कि बाकी जासूसों के न्याय से भी जुड़ा है. मैंने केस वापस नहीं लिया. खैर, मामला पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट में चला. सुनवाई के दौरान जज नाराज हो गए, उन्होंने वकील से केस वापस लेने को कहा. जज ने वकील से कहा कि इस तरह के केस को लेकर आप देश के साथ गद्दारी कर रहे हो.
जब मैंने केस वापस लेने से इनकार कर दिया तो जज महोदय ने कहा, ‘ये आदमी लगातार कोर्ट की अवमानना कर रहा है, मैं इस पर फाइन करुंगा.’ और उन्होंने केस वापस न लेने के कारण मुझ पर 25 हजार रुपये का हर्जाना ठोक दिया. मैंने उनसे कहा, ’माई-बाप मैंने अपनी पूरी जिंदगी तो देश की सेवा करते हुए पाकिस्तानी जेलों में गुजार दी है. मेरे पास पैसे कहां हैं कि मैं हर्जाना भर सकूं. मेरे पास तो घर चलाने तक के पैसे नहीं हैं, चाय की दुकान (अमृतसर से 50 किलोमीटर दूर फतेगढ़ चूड़ियां के पास खैरा कलां गांव) से अपना खर्च चला रहा हूं, मैं तो आपके यहां न्याय की आस में आया था, सरकार आपने मुझ पर ही फाइन लगा दिया क्योंकि मैंने न्याय की मांग की. खैर, पैसे तो नहीं हैं मेरे पास किसी दिन बैंक लूटूंगा तो न्याय की चरणों में हर्जाना चढ़ा दूंगा.’ जब सरकार से आदमी थक जाता है तो कोर्ट उसकी आखिरी उम्मीद होती है लेकिन जब यहां भी न्याय न मिले तो आदमी कहां जाएगा.