‘काम पूरा हो जाता है तो खुफिया एजेंसियां खुद पकड़वा देती हैं’

यह 1978 की बात है, तब मेरी उम्र तकरीबन 19 साल रही होगी. मैं दसवीं की परीक्षा पास कर चुका था. मेरे गांव (भैनीमियां गांव, जिला गुरुदासपुर, पंजाब) में सुरेंद्र मोहन नाम का एक आदमी था, जो रॉ के लिए काम करता था. वह एक दिन मुझे पठानकोट स्थित रॉ के दफ्तर ले गया. वहां के जो एसपी थे उनका नाम चरनदास था. उन्होंने मुझसे कहा कि वे मुझे पाकिस्तान में जासूसी करने का काम देने वाले हैं और यह देश सेवा का मौका है जिसे मुझे छोड़ना नहीं चाहिए. उन्होंने उस समय 175 रुपये महीना मेरी पगार तय की. साथ में सख्त हिदायत दी थी कि इस काम के बारे में मैं किसी को ना बताऊं. उस समय देश के लिए काम करने का भूत सिर पर ऐसे सवार हो गया था कि मैं इस काम के लिए तुरंत तैयार हो गया.

अमृतसर में हमारी 12 दिन की ट्रेनिंग हुई. ट्रेनिंग के बाद एक दिन मुझे बॉर्डर पार करवा दी गई. सरहद के उस पार से मैं बस पकड़कर पाकिस्तान के सियालकोट चला गया. वहां होटल में रुका और अपना काम शुरू कर दिया. इस तरह सन 1984 तक मैं हर महीनेे दो से तीन बार जासूसी करने के लिए पाकिस्तान गया. 26 जुलाई, 1984 को भी हर बार की तरह रॉ के अधिकारी मुझे पाकिस्तान भेजने के लिए ले जाने आए थे. इन लोगों ने रात को तीन बजे मुझे बुधवाल पोस्ट पर छोड़ दिया. यहां से बीएसएफ वालों ने मुझे बॉर्डर के उस पार पहुंचा दिया. लेकिन इस बार बॉर्डर क्रॉस करके जैसे ही मैं उस पार पहुंचा, सात-आठ लोगों ने मुझे घेर लिया. ये लोग एफआईयू (फील्ड इंटेलीजेंस यूनिट), पाकिस्तान से थे. उन्होंने मेरी तलाशी लेनी शुरू की. मुझे गिरफ्तार कर लिया गया. उस टीम के मुखिया ने मुझे एक ऐसी बात बताई जिसे सुनने के बाद मेरे होश उड़ गए. उसने बताया कि सीएस मनकोटिया ने उसे मेरे बारे में बताया था. उस समय मैं सब कुछ भूल गया. मेरे दिमाग में बस मनकोटिया का चेहरा और उससे हुई बहस जेहन में उभरने लगी. मनकोटिया गुरदासपुर में रॉ का फील्ड ऑफिसर था. वह चाहता था कि मैं अपनी पगार में से कुछ हिस्सा उसे दूं नहीं तो वह मुझे काम नहीं करने देगा. इससे इनकार करने पर उसने मुझे धमकी दी थी कि अगर मैं नहीं माना तो वह मुझे पकड़वा देगा. मैंने उसकी कही इस बात को गंभीरता से नहीं लिया था.

खैर, अब तो मैं गिरफ्तार हो ही चुका था. पाकिस्तानी अधिकारी मुझे अपनी जीप में  बैठाकर सियालकोट इंटरोगेशन सेंटर ले आए थे, अगले 15 दिन तक अन्न के बिना एक दाने और जितनी तरह की प्रताड़ना संभव है, उन सबसे मैं गुजरा. पानी उतना ही मिलता था कि जीभ गीली हो सके. प्रताड़ना के बारे में मैं सिर्फ इतना कहूंगा कि जितने तरह के टॉर्चर हो सकते हैं उन्होंने सभी को आजमाया. नाखूनों को सींकचों से बाहर निकालने, गुप्तागों में मिर्च पावडर डालने, जख्मों पर नमक रगड़ने के साथ और भी बहुत कुछ वे करते थे जो मैं बता नहीं सकता. यहां मुझे तीन साल रखा गया. उसके बाद कोर्ट ने मुझे 25 साल की सजा सुनाई. सजा के दौरान शुरुआत के 20 साल तक घरवालों से कोई संपर्क नहीं हुआ. बाद मैं मैंने चोरी-छुपे किसी तरह एक लेटर घर भेजा जिससे घरवालों को पता चला पाया कि मैं क्या काम करता था और आज कहां हूं. मेरे बड़े भाई उस लेटर के मिलने के बाद रॉ के अधिकारियों से मिलने गए जिन्होंने पूरी तरह से इस बात से इनकार कर दिया कि वे ऐसे किसी आदमी को जानते हैं. 

खैर ,  किसी तरह 25 साल की मैंने सजा काटी, सजा काटने के बाद भी जब मेरी रिहाई नहीं हुई तो मेरा भाई सुप्रीम कोर्ट गया. उस समय चीफ जस्टिस मारकंडेय काटजू थे, उन्होंने पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी को एक पत्र भेजा जिसमें उन्होंने मुझे रिहा करने की सिफारिश की. मैं रिहा हो गया. 23 साल की उम्र में मैं पाकिस्तान गया था. वापस आया तो उम्र 50 की हो गई थी. यहां आकर रॉ के अधिकारियों से मिला और अपनी देश सेवा के बदले सहयोग की मांग की. सहयोग तो दूर की बात है एजेंसी वालों ने तो पहचानने तक से इनकार कर दिया. 52 साल की उम्र में मैंने शादी की. सरकार की तरफ से एक रुपये तक की सहायता नहीं मिली. फिलहाल यहां शिमला में किराये की कार चलाकर किसी तरह अपना जीवनयापन कर रहा हूं.