कोलकाता में ईश्वर चंद्र विद्यासागर जैसे शिक्षा शास्त्री और समाजशास्त्री की मूर्ति एक राजनीतिक दल की हंगामा सेना ने तोड़ दी। इस पर पूरे बंगाल में शोक रहा, खासी नाराज़गी रही।
हालांकि पहली बार ऐसा नहीं हुआ था। भाजपा की हनुमान ब्रिगेड ने ऐसा ही उपद्रव पहले भी किया था। कुछ दिन पहले ही क्रांतिकारी कवि सुकांत भट्टाचार्य की मूर्ति त्रिपुरा में तोड़ दी गई। अलगाववादी ताकतें ही उत्तर भारत में पिछले कई वर्षों से बड़े ही सोचे-समझे तरीके से मूर्तिभंजन करती रही हैं और फिर ये आपस में अट्टाहस करते हैं। वजह क्या है? बहुत साफ है। उन्हें पसंद नहंी उनकी मूर्तियां जो समाज में नई चेतना, आर्थिक, जाति और लैंगिक समानता, समाज सुधार, आदि अच्छी बातों के लिए जाने जाते रहे हैं। जबकि विभूर्तियों की मूर्तियों से आधुनिक समाज में जीने की बेहतर राह को सुगम बनाने का हौसला बढ़ता है। हिंदुत्व की राजनीति ब्राहमणवादी कट्टरता और कथित राष्ट्रवाद फासीवाद ही है। आप देखें, हिंदुत्व के दो प्रचारक गोलवरकर और हेडगेवार खुद मुसोलिनी और हिटलर जैसे तानाशाहों के समर्थक रहे। वे हमेशा मानवीयता की प्रकृति का विरोध करते हैं। ये समाज में उस आज़ादी और समाज सुधार का हमेशा विरोध करते हैं जिसके पक्ष में राजा राम मोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, सावित्री फुले, अंबेडकर रविंद्रनाथ टैगोर, अमत्र्य सेन वगैरह हमेशा रहे।
‘ईश्वर चंद्र विद्यासागर (1820-1891) पारंपरिक आधुनिकवादी थे। वे संस्कृत के विद्वान थे। वे शास्त्रों के ज्ञाता, व्याकरण और प्राचीन साहित्य के अच्छे जानकार थे। जब वे ब्रिटिश संपर्क में आए तो उन्होंने खुद में व्यापक उदारता और विज्ञान के क्षेत्र में असीम संभावनाओं की ज़रूरत जानी-समझी।
उन्होंने वेदों का तिरस्कार किया और प्राचीन गं्रथों के आधार पर हुए तमाम धार्मिक सुधारों का विरोध किया। वे कुछ अंहकारी थे। कहा जाता है कि वे कहते थे कि ईश्वर को क्यों याद करें। मुझे यह जानने की ऐसी क्या ज़रूरत है कि ईश्वर है या नहीं। मुझे तो उनसे कुछ भी अच्छा मिला नहीं। एक चिट्ठी में उन्होंने लिखा ‘मैं परंपरा का दास नहीं हूं।’ यह दौर था नए राष्ट्रवाद का जो बढ़ते मशीनीकरण में इस पक्ष में थे कि महिलाओं को आज़ादी मिले उनकी सोच-समझ में बदलाव ज़माने के साथ आए। उनका सपना था कि भारतीय समाज में एक समय आएगा जब महिलाओं को कहीं ज्य़ादा आज़ादी होगी। वे पुरूषों की तरह जी सकेंगी। मुख्यत: उनके पराजित न किए जा सकते वाले मुद्दों में था हिंदू विधवा पुनर्विवाह कानून जिसे उपनिवेशवादी सरकार ने 1846 में पास किया। उन्होंने बहुपत्नी प्रथा के खिलाफ भी लड़ाई लड़ी और सरकार से इसके खिलाफ कानून बनाने को कहा।
सुमित सरकार बताते हैं कि उन्हें बहुत कम कामयाबी हासिल हुई। उनकी अपनी जाति और उनका वर्ग इसमें बाधक हुआ। वे चाहते थे ऐसी ब्राहमण विधवाएं जो बहुपत्नी प्रथा के कारण विधवा हुई हैं। वे आर्थिक और सामाजिक तौर पर विपन्न हैं और इनमें से ज्य़ादातर बदनाम वेश्यालयों में पहुंंच जाती हैं। मुझे यह देख कर तकलीफ होती है। उस समय की रिपोर्ट भी बताती है कि देह व्यापार में ब्राहमण महिलाओं की संख्या तब काफी थी।
विद्यासागर खुद जातिवादी नहीं थे लेकिन उन्होंने खुलकर उसका विरोध भी नहीं किया। जिसके कारण आज भी समाज में असमानता और हद दर्जे की गुलामी है। वे तब के तमाम हिंदू बुद्धिजीवियों की ही तरह मुस्लिम जन समुदाय की तकलीफों से बुरी तरह बेखबर था।
राजा राममोहन राय की तरह उनकी दिलचस्पी राजनीतिक प्रतिनिधित्व, सामाजिक अधिकार और प्रेस की आज़ादी और औपनिवेशिक प्रणाली में असमान आदान-प्रदान में कतई नहीं थी। वे पूरी तरह शिक्षा शास्त्री थे। उनके विचार सर चाल्र्स वुड की विचारधारा से भी मेल नहीं खाते थे। जिनकी इच्छा थी कि शिक्षा जनसाधारण तक पहुंचनी चाहिए। दरअसल विद्यासागर में भी रूढि़वाद था उन्हें यह लगता था कि सरकार जिस उत्साह से जनसाधारण में शिक्षा पर ज़ोर दे रही है। उससे शिक्षा का स्तर गिरेगा। उन्होंने कई स्कूलों में इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल नियुक्त कराए और अपने द्वारा लिखी बांग्ला वर्णमाला और दूसरी किताबों को कोर्स में रखवाया। उसके बदले धन भी लिया। जिसे उन्होंने दान देने में खत्म किया। वे निर्धन की मौत मरे। वे बांग्ला बुद्धिजीवियों की बेरूखी से बेहद निराश थे। वे उनमें अवसरवादिता और पैसे के प्रति भूख देखते। आखिर में निराश होकर वे आदिवासियों के बीच उन्हीं के साथ एक गांव में रहने लगे। वहीं उनका निधन हुआ। बांग्ला संस्कृति दरअसल ऊंची जातियों और मझोली जाति की प्रधानता है। इसमें शायद ही कभी शूद्र, दलित, मुस्लिम या आदिवासियों की आवाज़ सुनाई देती है। इनमें भी कुछ सांस्कृतिक विभूतियां हैं। जिनमें रामकृष्ण परमंहस, विवेकानंद, सुभाष बोस, सत्यजीत रे और बेहद उपयुक्त रवींद्रनाथ टैगोर रहे क्योंकि उन्हें नोबल पुरस्कार मिला।
बांग्ला बुद्धिजीवी अमूमन उतने जानकार नहीं होते जितने वे समझ लिए जाते है। वे बुद्धिहीन और नाटकीय ज्य़ादा होते हैं। उनमें वह कभी हिम्मत नहीं देखी गई जिससे वे धारा के खिलाफ चलें। वे सिर्फ तत्कालीन उभार और दबावों के चलते अपना मन बनाते हैं। हालांकि एक दौर वह भी था जब वे उन राष्ट्रवादियों का समर्थन कर रहे थे जो आतंकवाद के पक्ष में थे।
जब वामपंथी मोर्चा सत्ता में आया तो वे उनके साथ हो गए। तब वे खूब माक्र्सवादी लफ्फाजी करते थे और सामाजिक व राजनैतिक लाभ भी उठाते थे। अब वे वामपंथियों के खिलाफ हैं क्योंकि अब सौदा लाभ का नहीं रहा। इन दिनों वे तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में है। इनमें से कई ने वहां एक ब्राहमण भी ढूंढ़ निकाला है जिसकी लेनिन और माओ की ही तरह एक तस्वीर है। अब हिंदुत्व की उठान के चलते वे दक्षिणपंथ की गोद में आनंद महसूस कर रहे हैं।
यह पहली बार नहीं है कि विद्यासागर की मूर्ति तोड़ी गई। नक्सली विचारक सरोज दत्त का मानना था कि विद्यासागर इसलिए अपराधी है क्योंकि उन्होंने साम्राज्यवाद से मिल कर उस क्रांति को पीछे कर दिया जिसका नेतृत्व उन्हीं को करना था। इनकी मूर्ति को नक्सलवाद के खतरनाक युवाओं ने पीछे कर दिया। आज हमले की तैयारी है धुर दक्षिणपंथ की। विद्यासागर पिछले हमलों में तो किसी तरह बच गए लेकिन लगता है इस बार कठिन रहा उनका बच पाना।
लेखक कलकत्ता विश्व विद्यालय में रहे हैं।