प्रदूषण को लेकर हाय-तौबा मची है। लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश और प्रधानमंत्री की अपील को अनदेखा कर पटाखे फोडऩे से बाज़ न आने वाले लोग मूर्ख हैं। उन्हें पर्यावरण और अपने स्वास्थ्य से कोई लेना-देना नहीं। बस मूर्खता ज़ाहिर करने के लिए सिर्फ़ धाँय-धाँय करने से मतलब। लोगों की मूर्खता यहीं तक सीमित नहीं है। दीपावली से पहले दशहरा पर प्रदूषण बढ़ाने वाले रावण, मेघनाथ और कुम्भकरण के पुतले फूँकने से भी वे बाज़ नहीं आते।
यह एक ऐसा सच है, जिसे मानने के बजाय लोग इसे धार्मिक भावना पर आघात समझ लेते हैं। ऐसे लोगों को दीपावली और दशहरे का इतिहास जानने की ज़रूरत है। उन्हें भारत में बारूद के आयात का इतिहास भी पढऩा चाहिए। उन्हें यह भी जानना चाहिए कि दीपावली का सही अर्थ क्या है? प्रदूषण को लेकर हर साल हाय-तौबा मचती है। लेकिन लोग प्रदूषण फैलाने से बाज़ नहीं आते। शासक इसमें हस्तक्षेप नहीं करते। वे प्रशासन के हाथ भी बाँध देते हैं। उनका सिंहासन-मोह इसके लिए उन्हें बाध्य करता है। पूँजीपतियों से याराना और उनसे चंदे का लालच उनका ज़मीर बेच देता है। पैसे और ताक़त से उनकी आत्मा मर जाती है। ऊपर से ऐसे शासकों के आगे दिन-रात दण्डवत् होते लोग उनके अहंकार को चरम पर पहुँचा देते हैं। इसलिए उन्हें एक अपराधी की भाँति किसी के दु:ख का एहसास तक नहीं होता। इन शासकों का ज़मीर किस हद तक मर जाता है, इसका सबसे ताज़ा उदाहरण अयोध्या में मनाया गया दीपोत्सव है। इस दीपोत्सव में 22.23 लाख दीये जलाये गये, जिनमें जलाने के लिए लगभग 1,00,000 लीटर सरसों का तेल ख़र्च किया गया। दीप जलाकर प्रशासन की आँख फिरी, तो ग़रीब बस्तियों के छोटे-छोटे बच्चे प्लास्टिक की बोतलें और डिब्बे लेकर दीपों की ओर लपके और बुझ चुके दीपों में बचा हुआ तेल अपने-अपने प्लास्टिक के पात्रों में इकट्ठा करने लगे। ज़रूरत और अभाव के इस दृश्य को सरकारी ख़ज़ाने से करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाने वाले नये-नये लंबरदारों ने ज़रूर देखा होगा। अलग बात है कि वे दीपोत्सव की ख़ुशी में चूर थे। इस ख़ुशी में किसी ने कोई सवाल भी नहीं उठाया। सब विश्व रिकॉर्ड की वाहवाही में मस्त हैं। एक तरफ़ चमक दिखाकर दूसरी तरफ़ बड़े-बड़े घपले ऐसे ही तो होते हैं।
वास्तव में आजकल के ज़्यादातर राजनीतिक लोग, विशेषकर शासक बहुत चालाक होते हैं। उन्हें सामान्य लोगों को धार्मिक भावनाओं में उलझाना आता है। वैसे भी सामान्य लोगों पर धार्मिक ख़ुराक जीने-मरने की हद तक असर करती है। वे धर्म के नाम पर आसानी से मूर्ख बन जाते हैं। इसलिए वे इसके लिए कुछ भी करने पर आमादा रहते हैं। दुनिया में ऐसे लोगों की संख्या बहुत है, जो ज़िन्दगी से ज़्यादा धर्म को महत्त्व देते हैं। ऐसे ही लोगों के बूते पर धार्मिकता की आड़ लेकर कोई कुछ भी कर लेता है। वैसे यह टिप्पणी अयोध्या में हुए दीपोत्सव को लेकर नहीं है। यह टिप्पणी इस दीपोत्सव में हुए बड़े ख़र्च पर है, जो एक दीये की क़ीमत को बहुत ज़्यादा बताता है। यह टिप्पणी उन पैसों के चलते करनी पड़ रही है, जो धर्म के नाम पर गमन किये जाते हैं। यह टिप्पणी उन ग़रीबों की हालत के चलते करनी पड़ी है, जिनके बच्चे डर-डरकर तेल के लिए एक-एक बुझा हुआ दीया निचोड़ते हैं। दीपोत्सव तो ख़ुशी की बात है। लेकिन ख़ुशी तभी ख़ुशी लगती है, जब सब ख़ुशहाल हों।
आश्चर्य है कि सर्दियों में हर साल प्रदूषण पर तो हाय-तौबा मचती है; लेकिन पटाखों पर नहीं। सर्दियाँ ख़त्म होती हैं। गुनगुनी धूप निकलने लगती है। प्रदूषण पर मची हाय-तौबा भी ख़त्म हो जाती है। प्रदूषण को लेकर छाती पीटने वाले शान्त हो जाते हैं। प्रदूषण की रोकथाम की नाकाम कोशिशें करने वाले अधिकारी चैन की साँस लेते हैं। अगले वर्ष फिर वही तमाशा। फिर वही हाय-तौबा। लेकिन क्या प्रदूषण को लेकर हाय-तौबा करने वाले लोग सही में इससे निपटने के कारगर उपाय करते हैं? क्या समाज में सभी लोग प्रदूषण के प्रति सजग हैं? प्रदूषण बढ़ाता कौन है? ऐसे सवालों के जवाब पूरे देश को मिलकर ढूँढने चाहिए। लेकिन इससे पहले ग़लतियाँ देखनी चाहिए। कुछ भी ठीक तभी किया जा सकता है, जब उसकी ग़लतियाँ या कमियाँ मालूम हों। प्रदूषण मनुष्यों द्वारा पैदा किया गया वह ज़हर है, जो ऑक्सीजन में घुलकर हर साल लाखों ज़िन्दगियाँ निगल रहा है। जो लोग प्रदूषण रोकने के प्रयास न करके इस पर राजनीति कर रहे हैं, वही इस ज़हर का सबसे बड़ा निमित्त हैं। दर्ज़नों गाडिय़ाँ उनके पास हैं। केमिकल उत्पादन वाले धन्धे उनके चल रहे हैं। प्रदूषण को कम करने के नाम पर करोड़ों रुपये डकारने का काम यही लोग करते हैं। वनों को उजड़वाने और फिर पोधरोपण के नाम पर मोटी रक़म डकार लेते हैं। लेकिन जब प्रदूषण पर रिपोर्ट तैयार होती है, तो उसमें किसानों पर सारा दोष मढ़ दिया जाता है।