हमारे यहाँ एक कहावत है कि जब विपत्ति आती है, तो हर तरफ़ से आती है। लेकिन हम सब तो अच्छे दिनों का इंतज़ार कर रहे हैं; क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिन्दुस्तान में अच्छे दिन लाने का वादा किया है। सन् 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले का उनका यह वादा उनके आठ साल से ज़्यादा प्रधानमंत्री रहने के बाद अभी तक तो फलीभूत होता दिखायी नहीं दे रहा है; लेकिन शायद आगे फलीभूत हो जाए। मुमकिन है कि प्रधानमंत्री मोदी इसके लिए प्रयासरत हों भी; लेकिन अब जो कुछ घटित हो रहा है, उससे लगता है कि प्रधानमंत्री की लाख कोशिशों के बावजूद अच्छे दिनों की जगह बुरे दिनों यानी मुसीबतों के दिन आने की आहट लगातार सुनायी दे रही है, जिसकी आवाज़ दिन-ब-दिन तेज़ होती जा रही है और लोगों को भयभीत-सा करती जा रही है।
मैं उन लोगों से सहमत नहीं हूँ, जो प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ अनर्गल बातों, अभद्र भाषा का प्रयोग करते हैं और उन्हें अनाप-शनाप बोलते हैं। लेकिन एक पत्रकार होने के नाते यह ज़रूर कहूँगा कि देश में जो कुछ हो रहा है, उसे रोकना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के हाथ में है। आज जिस तरह से देश भर में उपद्रव और आपदाओं की बाढ़-सी आयी हुई है, उसके लिए कुछ ज़िम्मेदारियाँ सरकार को लेनी ही चाहिए। सीधा सवाल यह है कि केंद्र सरकार को क्या ज़रूरत है ऐसी योजनाएँ लाने की, जिनसे देश के लोगों में आक्रोश और असन्तोष पैदा हो? क्या पिछले दिनों लागू की गयी अग्निपथ योजना की कोई माँग की जा रही थी? बिना सोच-विचार और मंथन किये बिना इसे लाने की क्या ज़रूरत थी? हालाँकि लोगों का मानना है कि प्रधानमंत्री मोदी ने अब तक कई ऐसी योजनाएँ लॉन्च की हैं, जो कामयाब दिखी हैं; लेकिन उनमें अधिकतर तो फेल ही हुई हैं। जबकि इन योजनाओं का परिणाम बहुत बेहतर हो सकता था, अगर वो परवान चढ़ती तो। गुजरात मॉडल के सपने से लेकर नोटबंदी, स्टार्टअप, मेक इन इंडिया, मेड इन इंडिया, जीएसटी, प्रधानमंत्री मुद्रा योजना, जनधन योजना, उज्ज्वला योजना, आयुष्मान भारत योजना, प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण अन्न योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना, प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि, प्रधानमंत्री स्वनिधि योजना, बुलेट ट्रेन योजना, स्मार्ट सिटी, स्मार्ट गाँव, स्वच्छ भारत अभियान और हर आदमी को पक्का घर तक में बहुत कम में सफलता मिली है, जबकि इनमें से अधिकतर परियोजनाएँ काफ़ी हद तक या पूरी तरह असफल हुई हैं। अगर उज्ज्वला योजना को ही लें, तो हर ग़रीब को सिलेंडर देने का क्या फ़ायदा निकला, जब उनमें से एक बड़ा तबक़ा उन सिलेंडरों को भराने में असमर्थ है। शौचालय जैसी योजना में ख़ूब गड़बड़ी हुई। जिन लोगों के शौचालय बने हैं, उनके बिना अच्छी पहुँच या बिना रिश्वत के नहीं बने। पहुँच और रिश्वत की ताक़त यह रही कि जिन लोगों के शौचालय पहले से ही बने हुए थे, उन्हें भी पैसा दिलाया गया। वहीं जिनकी पहुँच नहीं थी या जो रिश्वत नहीं दे सके, ऐसे कई लोगों को एक ईंट का पैसा भी नहीं मिला। प्रधानमंत्री की पक्के मकान वाली योजना में भी घोटाले की ख़बरें अक्सर मिलती रहती हैं। हालाँकि किसान निधि का पैसा ज़रूर किसानों के खाते में पहुँच रहा है; लेकिन सब किसानों को इसका फ़ायदा मिल रहा हो, ऐसा भी नहीं है। कहने का मतलब यह है कि कुछ योजनाओं पर तो काम हुआ है और उनका फ़ायदा भी लोगों को मिला है; लेकिन कई योजनाएँ सरकारी फाइलों में धूल फाँक रही हैं। काले धन की अब कोई चर्चा नहीं होती। कश्मीर में आतंकवाद की ख़बरें लगातार बढ़ रही है।
ग़ौरतलब है कि चीन द्वारा हमारी सीमा में घुसपैठ की ख़बरों के बावजूद इसका कहीं ज़िक्र तक नहीं है। यह केंद्र सरकार की बड़ी कमज़ोरी और विफलता की ओर इशारा करती है। चीन की इस प्रकार की धृष्टता के बावजूद उसकी कई कम्पनियों को हिन्दुस्तान में काम देना, उसके सामान की बिक्री पर प्रतिबंध का कोई रास्ता नहीं निकालना सरकार को सवालों के कठघरे में खड़ा करती है। कई सरकारी संस्थाएँ धीरे-धीरे निजी हाथों में जा रही हैं और देश में हिन्दू-मुस्लिम चल रहा है। आज भी सैकड़ों गाँव विकास की राह देख रहे हैं। गाँव से कुछ लोग जो शहरों में छोटी-मोटी नौकरी करके गुज़ारा करते थे, आज उनमें से बहुत-से अपने घरों में बैठे हुए हैं। क्योंकि कोरोना-काल में जिनकी नौकरी चली गयी, उनमें से 100 फ़ीसदी को अभी तक नौकरी नहीं मिल पायी है। देश में तमाम क्षेत्रों में नौकरियाँ बढऩे के बजाय लगातार घट रही हैं। जिन लोगों की नौकरी चल रही है, उनमें से ज़्यादातर को शर्तों पर काम करना पड़ रहा है।
गाँव के लोगों में एक डर-सा बैठ गया है कि उनके जो बच्चे पढ़-लिखकर सरकारी या निजी नौकरी में जाने की सोच रहे थे, उनके भविष्य का क्या होगा? आज देश में लाखों उच्च शिक्षा प्राप्त नौजवान नौकरी के लिए परेशान हैं। जो भर्तियाँ हुई भी हैं, उनमें ग्रामीण क्षेत्रों से आये किसान पुत्रों और कामगारों के युवाओं का चयन न के बराबर ही हुआ है। सवाल यह है कि ऐसे बच्चे जिनकी सरकारी नौकरी में जाने की उम्र कोरोना और दूसरे कारणों से निकल चुकी है, वे अब क्या करेंगे? देश में लाखों बच्चे नौकरी की लालसा में समय पर शादी नहीं करते। उनकी चाहत रहती है कि जब उनकी नौकरी लग जाएगी, तब वे शादी करेंगे। आज लाखों बच्चे देश के अन्दर ऐसे हैं, जो 25 से 38-40 की उम्र तक के हो चले हैं और शादी नहीं की है। आँकड़ों के मुताबिक, इसी के चलते हर साल क़रीब 13 फ़ीसदी युवा आत्महत्या कर लेते हैं। अगर देखा जाए, तो यह आत्महत्या का आँकड़ा इतना बड़ा है कि इतनी मौतें तो सड़क दुर्घटना से भी नहीं होती हैं।
ज़ाहिर है कि सरकारी एजेंसियों सीबीआई, ईडी, चुनाव आयोग, अदालतों और पुलिस के दुरुपयोग के आरोप सत्ताधारी दल यानी सरकार पर पहले भी लगते रहे हैं। लेकिन आज तो हाल यह है कि अगर कोई प्रधानमंत्री या उनकी सरकार, गृह मंत्री अथवा किसी प्रदेश के मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है, तो उस पर देशद्रोह या राजद्रोह का मुक़दमा लगा दिया जाता है। पुलिस प्रशासन भी उसको तंग करने में पीछे नहीं रहता। कई बार तो उस पर अराजक तत्त्वों द्वारा हमले कर दिये जाते हैं।
जानकारों का मानना है कि सरकार की विमुद्रीकरण की योजना भी लगभग असफल रही है। देश में व्यवसायी जीएसटी से परेशान हैं। ख़राब विदेशनीति के चलते हिन्दुस्तान की छवि विदेशों में पहले से कितनी कमज़ोर हुई है। इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री की सैकड़ों विदेशी यात्राओं के बावजूद विदेशी निवेश और विदेशी मुद्राकोष लगातार घट रहा है। पेट्रोल, डीजल की ऊँची दरों ने आम आदमी की कमर तोड़कर रख दी है। बुनियादी मुद्दों पर न काम हो रहा है और न ही उनका ज़िक्र करने को सरकार तैयार है। कोरोना-काल में न केवल पढ़ाई ठप हुई है, बल्कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर भी गिरा है। सरकार की नकारात्मकता यह है कि उसने सोची-समझी रणनीति के तहत राष्ट्रीय मुद्दों पर से लोगों का ध्यान हटाने की हर सम्भव कोशिश की है। मीडिया का स्तर मोदी की केंद्र सरकार में इस क़दर गिरा है कि लोग उसे खुलेआम गोदी मीडिया कहने लगे हैं।
ग़ौरतलब बात यह है कि ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस बात का ढोल लगातार पीटते रहते हैं कि पिछले 70 साल में देश में कुछ नहीं हुआ। जबकि उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि पिछले 70 साल में भाजपा की ख़ुद की यानी एनडीए की और भाजपा समर्थित जनता दल की भी सरकारें केंद्र में रही हैं। वहीं उत्तर प्रदेश में तो लम्बे समय तक भाजपा ने शासन किया है। मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखण्ड, हिमाचल, राजस्थान, मणिपुर, महाराष्ट्र और बिहार में भी भाजपा की सरकार रही हैं। गुजरात में तो पिछले दो दशक के क़रीब से भाजपा की ही सरकार रही है। इसके बावजूद केवल प्रचार तंत्र का इस्तेमाल करके सरकार ने मोटा पैसा विज्ञापनों पर ख़र्च किया है, वह भी यह साबित करने में कि यह सरकार अब तक की सरकारों में सबसे अच्छी है। इसके बावजूद लोगों में यह बात बैठी है कि इस सरकार ने उनकी कमर जिस तरह तोड़ी है, उस तरह ब्रिटिश सरकार यानी अंग्रेजी हुकूमत ने भी नहीं तोड़ी होगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह नहीं भूलना चाहिए कि आज जिन सरकारी सम्पत्तियों और संस्थाओं को वह निजी हाथों में दे रहे हैं, वो सब पहले की सरकारों ने ही बनायी हैं। क्योंकि सन् 1947 में जब हिन्दुस्तान आज़ाद हुआ था, तो यहाँ खाने भर को अनाज भी पैदा नहीं होता था। लेकिन आज हाल यह है कि ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं कि भारत पूरी दुनिया का पेट भर सकता है। देश की समस्याओं से ध्यान भटकाने के लिए भाजपा नेताओं और उनके मित्रों के स्वामित्व वाले टीवी चैनल हिन्दू-मुस्लिम, राष्ट्रवादी-राष्ट्रविरोधी, भारत-पाकिस्तान पर बहस छेडऩे से बाज़ नहीं आ रहे हैं।
बहरहाल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वादा किया था कि वह साल 2025 तक हिन्दुस्तान की जीडीपी को पाँच ट्रिलियन डॉलर यानी 5,00,000 करोड़ डॉलर की बना देंगे। फिर तालाबंदी के दौरान यह माना गया कि साल 2025 तक देश की जीडीपी 2,60,000 करोड़ डॉलर पर पहुँच जाएगी। लेकिन आज के हालात देखकर लगता है कि आने वाले समय में देश की जीडीपी और कमज़ोर ही होगी। क्योंकि साल 2014 में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सत्ता सँभाली थी, तब हिन्दुस्तान की जीडीपी उच्च स्तर यानी 7-8 फ़ीसदी के आसपास थी। लेकिन साल 2019-20 की चौथी तिमाही के दौरान जीडीपी 3.1 फ़ीसदी पर आ गयी, जिसमें गिरावट जारी है।
रिसर्च के मुताबिक, साल 2021 से अब तक क़रीब 2.5 करोड़ से ज़्यादा लोग नौकरी गँवा चुके हैं। वहीं क़रीब 7.5 करोड़ लोग ग़रीबी रेखा पर पहुँच चुके हैं। बड़ी बात यह है कि इनमें से क़रीब एक-तिहाई लोग मध्यम वर्ग के पायदान से फिसलकर ग़रीबी रेखा पर पहुँचे हैं। इस पर प्रधानमंत्री मोदी और उनके मंत्री जल्द ही अमृतकाल मनाने के सपने दिखा रहे हैं, क्या इस तरह देश कभी अमृतकाल मना सकेगा? मुझे तो लगता है कि आज हिन्दुस्तान में जो कुछ हो रहा है, उससे अच्छे दिन तो दूर बल्कि बुरे दिनों की आहट ज़्यादा सुनायी दे रही है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। उपरोक्त उनके अपने विचार हैं।)