मुम्बई का एक समय आराम से था। हर विभाग में दादा लोग हुआ करते थे। यह दादाजी आज के भाई लोगों से अलग हुआ करते थे। वास्तव में दादा भाई में तब्दील होना शुरू नहीं हुए थे। दादा के पास दादा के समानांतर एक सरकार हुआ करती थी। दादाजी आमतौर पर अन्याय नहीं करते थे। पुलिस बल ने भी दादा को माना था।
दादा के पास दादा के क्षेत्र में कई घटनाओं और मामूली घटनाओं की रिपोर्ट होती थी और ज़रूरत पडऩे पर अपराध नियंत्रण पुलिस विभाग दादा की मदद लेता था। उस समय कोई भी यह पता लगाने के लिए नहीं जाता था कि दादा क्या कर रहे थे। दादा गरीबों की सहायता के लिए दौड़ते थे। क्षेत्र में दादा के आदेशों का पालन किया जाता था। यहाँ तक कि दादा का आदेश आने पर एक कौड़ी चुंबक भी पाँच से 10 हज़ार तक आसानी से उड़ाता था।
दादा की सामाजिक गतिविधियाँ लोगों की नज़र में थीं। कई दादाओं के पास एक व्यायामशाला थी। वह खेल मैचों के प्रायोजन को स्वीकार करते थे। जब सार्वजनिक गणेशोत्सव की शुरुआत हुई, तो दादा अपने क्षेत्र में त्योहारों के लिए बहुत दान करते थे।
अगला दादाजी समय के साथ बदल गया। उसका पुलिस से सम्पर्क टूट गया। उन्हें राजनीतिक समर्थन मिल रहा था। उससे यह कई अन्य (अ) व्यवसायों से जुड़ा था। वह भाई बन गया। जब वह एक भाई बन गया, तो उसने लोगों से सम्पर्क खो दिया। लेकिन उनका एकमात्र आशीर्वाद इन उपक्रमों तक ही रहा। भाई के प्रशिक्षण में मण्डली वह थी, जो गतिविधियों का प्रबन्धन करती थी। तो इस अद्भुत घटना के लिए धन जुटाने के नये तरीके उपलब्ध हो गये।
यहीं से हाल ही में संगठित अपराध शुरू हुआ था। पुलिस से मिली जानकारी के अनुसार, ये संगठित गिरोह गणेशोत्सव मण्डल में धन उगाही करने वालों में सबसे आगे थे। भविष्य में गिरोह ऐसे चतुर युवाओं को अपनी छतरियों के नीचे ले जाएगा।
विभिन्न क्षेत्रों में संगठित गिरोहों के वर्चस्व के बाद संगठित गिरोह के नेता उदार हाथों से अपने क्षेत्र में सार्वजनिक गणेशोत्सव की मदद करते थे, जो आज भी प्रायोजकों के रूप में जारी है; उन त्योहारों को उस भाई के गणपति के रूप में जाना जाता है। विभिन्न गिरोहों के संघ अपने-अपने क्षेत्रों में सक्रिय थे। सन् 1997-98 के आसपास राजा गणेशोत्सव के रूप पहचाने जाने वाले मण्डल के अध्यक्ष की हत्या अश्विन नाइक गिरोह ने उनके घर के पास कर दी थी। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि अध्यक्ष ने अरुण गवली गिरोह को एक टिप दी थी कि जब अश्विन नाइक अदालत में लाया जाएगा, तब उसकी हत्या करनी है। उस टिप के अनुसार, अश्विन नाइक को जाल में फाँसकर गणेश भोसले वकील ने योजना बनाकर रविंद्र सावंत के ज़रिये उस पर गोलियाँ चलायी थीं।
सन् 1996 में ऐसे ही एक बदला लिया गया… माहिम पब्लिक गणेशोत्सव मण्डल के एक कार्यकर्ता राजेश गुप्ता को गोली मार दी गयी। प्राथमिक जाँच में पुलिस ने तीन सम्भावनाएँ सुझायीं- पेशेवर प्रतियोगिता, पूर्वाग्रह और प्रतिद्वंद्वी गिरोह। बाद में यह स्पष्ट हो गया कि राजेश गुप्ता भाजपा के कार्यकर्ता थे। वह सन् 1992 में कार सेवक के रूप में अयोध्या में बाबरी मस्जिद के विध्वंस में शामिल हो गये थे। उनकी हत्या के पीछे छोटा शकील गिरोह था।
सार्वजनिक गणेशोत्सव मण्डप में मामा म्हस्के की हत्या कर दी गयी। त्योहार खत्म हो चुका था; लेकिन तम्बू अभी भी गढ़ा था। पुलिस ने निष्कर्ष निकाला था कि हत्या गवली नाइक विवाद के कारण हुई थी। वह मुम्बई सेंट्रल-बीआईटी चॉल के इलाके में रहते थे।
यह केवल तीन प्रतिनिधिक उदाहरण हमने दिये हैं और कई उदाहरण पुलिस रिकॉर्ड पर होंगे। सार्वजनिक गणेशोत्सव ट्रस्टों द्वारा मनाया जाता है। उस पर सरकारी तंत्र का ध्यान है। लोक न्यास अधिनियम के अनुसार, त्योहार के लिए एकत्र किये गये धन और खर्च को संतुलन में रखकर उन्हें सरकार को प्रस्तुत करना होता है। मुम्बई के कुछ गणेशोत्सव के लिए जुटायी गयी धनराशि आँख खोल देने वाली थी, इसलिए उनकी पूछताछ की जाती। लेकिन पुलिस जाँच में यह भी पता चला कि उनके धन उगाहने के तरीके कानूनी थे। लेकिन केवल संदेह था कि कैसे दाता ने लाखों रुपये का भुगतान किया? पर इस लेकर कभी कोई कार्रवाई नहीं की गयी इसका क्या कारण होना चाहिए?
इस मुद्दे पर कई पुलिस अधिकारियों से बात करने के बाद घटना के प्रति उनका रवैया स्पष्ट हो गया। उनकी राय है कि यह एक त्योहार है, युवाओं में उत्साह है। भले ही कानून का उल्लंघन हो; लेकिन हम इसे अनदेखा करते हैं। उत्साह से यदि एक बच्चा आक्रामक हुआ, तो पुलिस एक या दो चाँटे मारकर मामला समाप्त कर दे सकती है। पर यदि उस युवक पर कोई अपराध दर्ज किया जाता है, तो वह जीवन से बर्बाद हो सकता है। वह क्या कर रहा है? उस उम्र में उसे भी ज्ञात नहीं होता। पर हम तो समझदार हो सकते हैं न! क्योंकि फिरौती वसूलने के लिए बल से धन निकालना अपराध है। हालाँकि इस तरह की चेतावनी देने के बाद पुलिस विभाग बच्चे के व्यवहार पर पूरा ध्यान देता है; वह भी उसकी जानकारी के बिना ही।
विज्ञापन सार्वजनिक त्योहार मनाने वाले मण्डलों के लिए धन का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। लेकिन अक्सर त्योहार के पहले तस्वीरों वाले बोर्ड और होर्डिंग लग जाते हैं। सन् 1997-98 से पुलिस ने इन होर्डिंगों को हटाने के लिए एक अभियान शुरू किया। इस पर कुछ जगहों पर विरोध-प्रदर्शन हुए; लेकिन पुलिस ने इन्हें तोडऩे का फैसला ले ही लिया था। वहीं कुछ डॉन राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं से ग्रस्त थे। उस समय शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे का सरकार पर कंट्रोल था। लेकिन क्या होगा अगर किसी डॉन का नाम अनजाने में एक त्योहार से जुड़ा हो? तो पुलिस क्या कार्रवाई कर सकती है?
मुम्बई में दो त्योहार हैं, जिनके साथ डॉन मण्डली के नाम सीधे जुड़े थे, बल्कि इसे जोड़ा जा रहा है। मुम्बई के सह्याद्रि क्रीड़ा मण्डल का गणेशोत्सव चेंबूर क्षेत्र के तिलकनगर में मनाया जाता है। संगठन इस क्षेत्र में सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों को अंजाम देता है। हालाँकि वह मण्डल के गणपति हैं, उन्हें नाना उर्फ छोटा राजन उर्फ राजन निकलजे के गणपति के रूप में जाना जाता है। छोटा राजन की माँ की कई तस्वीरें लगभग 25 साल पहले एक स्मारक संस्मरण में प्रकाशित हुई थीं।
इस सह्याद्रि गणेशोत्सव मण्डल की विशेषता यह है कि हर साल भारत में एक प्रसिद्ध मंदिर की प्रतिकृति यहाँ बनायी जाती है। स्वाभाविक रूप से इसे देखने के लिए लोगों की लम्बी-लम्बी कतारें लगती हैं। चेंबूर तिलक नगर मैदान में जून से उत्सव की तैयारी शुरू हो जाती है। वस्तुत: प्रतिकृति बनाने के लिए सैकड़ों कारीगर कड़ी मेहनत कर रहते हैं। हालाँकि इस साल कोरोना वायरस के संक्रमण के चलते उतना शानदार दिव्य सेट नहीं होगा, जितना कि हर साल लगता है।
ऐसा कहा जाता है कि त्योहार के लिए फण्ड जुटाने के लिए छोटा राजन के गुर्गे ज़िम्मेदार होते हैं। लेकिन इस इलाके से ऐसी कोई शिकायत नहीं थी। 10 दिनों के लिए लोग गणपति और इसकी सजावट को देखने के लिए दिन-रात कतार में लगते हैं। वास्तव में त्योहार स्थल के प्रबन्धन में सैकड़ों कार्यकर्ता शामिल होते हैं।
ऐसा माना जाता था कि छोटा राजन भले ही मलेशिया में है, पर त्यौहार के दौरान कम-से-कम एक दिन गणपति दर्शन के लिए ज़रूर आता था; वह भी सख्त गोपनीयता बनाये रखकर। उस समय इस बात पर मतभेद था कि वास्तव में छोटा राजन कहाँ था। कुछ लोगों के अनुसार, वह मलेशिया के तट पर एक नौका में है। बैंकॉक में उन पर हमला हुआ था, जिसमें उनके दोस्त रोहित वर्मा मारे गये थे। पुलिस के मुताबिक, छोटा राजन पर समुद्र में हमला किया गया था। उस समय वह किसी तरह बच गया था। सन् 2014 में भाजपा सरकार बनने के कुछ दिनों के भीतर उसे बाली के द्वीप पर सीबीआई द्वारा पकड़ा गया था।
उसके बाद उसे मुम्बई लाया गया। लेकिन इन छ: वर्षों के दौरान यह नहीं देखा गया कि छोटा राजन गणपति के रूप में तिलकनगर आया था या विशेष रूप से उसे वहाँ लाया गया था। अब इस गणेशोत्सव की डोर नवयुवकों के हाथ में है। इस अभियान के युवा कार्यकर्ता राहुल वालूंज के अनुसार, अब इस सह्यादि क्रीड़ा मण्डल से छोटा राजन का कोई नाता नहीं है। फिर भी उन दिनों के अशोक सातर्डेकर आज भी मण्डल में मार्गदर्शक के रूप में नज़र आते हैं।
एक और गणपति उत्सव, जिसे मुम्बई में माफिया प्रमुख के रूप में भी जाना जाता है, वह वर्धा भाई के गणपति हैं। वर्धा के गणपति पहले दिन से सबसे अलग स्थापित हुआ। यह मुम्बई के माटुंगा में स्थापित किया जाता था। आइए, सबसे पहले देखते हैं कि वर्धा भाई कौन है? जिनके नाम से यह गणपति जाना जाता है।
वर्धा उर्फ वर्धा भाई उर्फ वर्धराजन मुदलियार तमिलनाडु से मुम्बई अपना नसीब बनाने आये थे। मुम्बई में आते ही वर्धा भाई ने यार्ड की मालगाडिय़ाँ लूटने का धन्धा शुरू किया। वैसे वह मुम्बई में कैसे मशहूर हुए? इसके बारे में कई किंवदंतियाँ हैं। कुछ का कहना है कि वह मुम्बई के डॉक में हुआ करता था। कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि वह कोलीवाड़ा, माटुंगा में एक सामाजिक कार्यकर्ता के साथ थे। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने मौका मिलते ही पूरी व्यवस्था को ही निगल लिया था। उन्होंने धारावी पर कब्ज़ा कर लिया और बाद में दक्षिण भारतीयों को वहाँ खाली पड़ी ज़मीनों पर कब्ज़ा करने के लिए तामिलनाडु से लाये। वह तमिल लोगों के मसीहा बन गये। उन्होंने वहाँ अवैध व्यापारों को खोलने के लिए अपने लोगों को प्रोत्साहित किया। वर्धा भाई इन सभी नाजायज़ ट्रेडों से रॉयल्टी प्राप्त करते थे। वह क्षेत्र के सभी आपराधिक साम्राज्यों का सम्राट बन चुके थे।
सन् 1975 में आपातकाल के दौरान उन्हें जेल भेज दिया गया। वहाँ उनकी मुलाकात हाजी मस्तान मिर्ज़ा, करीम लाला, लल्लू जोगी, सुक्कुर बखिया जैसे तस्करों से हुई। उन भाइयों का हवालात में रौब देखकर वर्धा अभिभूत हुए और उनके दोस्त बन गये। वर्धा भाई के रूप में उनका सम्मान बढ़ता गया।
वर्धा के गणपति के लिए मुम्बई के माटुंगा में एक शानदार मण्डप स्थापित किया गया था। जहाँ कई नामी-गिरामी हस्तियों के साथ-साथ फिल्मी दुनिया के कलाकार भी रातों में अपनी मौज़ूदगी दर्शाते थे। जैसे शत्रुघ्न सिन्हा, संजय दत्त वगैरह। यह इतना बड़ा था कि यातायात अवरुद्ध हो जाता था। उसी गणपति उत्सव के मण्डप में दिन-दहाड़े नोटों के साथ जुआ खेला जाता था। (अब तो सुनने ने यह आया है कि जुए के गैंबलर लोग मण्डलों को ही 10 दिनों के लिए खरीदते हैं।)वर्धा भाई का यह त्योहार माटुंगा स्टेशन के पास मनाया गया था। इस गणपति का अन्तर यह था कि अन्य सभी सार्वजनिक गणपति अनंत चतुर्दशी पर विसर्जित होते थे।
सन् 1987-88 के आसपास यादव राव पवार को इस क्षेत्र में उपायुक्त नियुक्त किया गया था। उन्होंने इन सभी शिकायतों को एकत्रित किया। उन्होंने इस विभाग के नगर उपायुक्त से मुलाकात की और शिकायतों के निवारण के बारे में लिखित निर्देश दिये, जिन्हें नगर पालिका स्तर पर हल करने की आवश्यकता थी। उसी समय पुलिस विभाग द्वारा एक नोटिस भी जारी किया गया था। जैसा कि वर्धा भाई और यादव राव पवार के बीच की मित्रता आज भी जगज़ाहिर है, वर्धा भाई ने उस समय स्थापित श्रीगणेशोत्सव समिति के दरवाज़े पर एक अन्तिम उपाय के रूप में इजाज़त के लिए दस्तक दी। लेकिन विभाग ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि अगर गणपति को स्थापित करने की अनुमति दी होती, तो हम इस मुद्दे को सहयोग करते। पर अनुमति नहीं दी गयी है। नियमों का पालन सभी को करना होता है।
यादव राव पवार और वर्धराजन मुदलियार के बीच इस गणपति पंडाल को लेकर विवाद इसके बाद भी जारी रहा। वक्त के चलते वर्धा भाई गाँव भाग गया। उन्हें सहायक पुलिस आयुक्त ललित कुमार गोडबोले ने गाँव से पकडक़र मुम्बई लाया। उन पर कार्रवाई हुई, वर्धनराजन का दिखावा चला गया। फिर से वह गाँव गया, और बाद में प्राकृतिक कारणों से मर गया। वर्धा भाई दिल से गणेश भक्त था; लेकिन अगर उनके पारिवारिक मामलों पर ध्यान दिया जाए, तो कोई भी आश्चर्य करता है कि ऐसा क्यों हुआ? (एक दिन हम वर्धा भाई को मिलने उनके माटूंगा के घर पर चले गये। तब पहले हमारी मुलाकात उनकी बीवी से हुई जो कि उस वक्त घर के अन्दर भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति को पूजते हुए उस मूर्ति के पैरों से सर तक फूलो को चढ़ाकर अपने पति की सलामती की दुआ माँग रही थीं। यह नज़ारा हमारे लिए कुछ दिल को छू लेने वाला था।)
वर्धा भाई के मौत के कुछ दिनों बाद उनके बेटे को पुलिस ने हिरासत में लिया था। उस पर संगीन आरोप लगाये गये थे। उन्होंने कहा कि उनके पिता की मृत्यु के बाद हमने पैसे खो दिये और हमें इसके लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी। वर्धा भाई की जीवनी पर कई फिल्में बनीं, जिसमें से हिन्दी में बनी विनोद खन्ना, माधुरी दीक्षित और फिरोज़ खान अभिनीत दयावान फिल्म काफी हिट साबित हुई, जिसमें वर्धा भाई का ही चरित्र दयावान के रूप में चित्रित किया गया है।
दूसरी ओर ठाणे ज़िले के मीरा रोड में भी एक नामी भाई का जन्म हो चुका था। वासुदेव नांबियार। उनके यहाँ भी बड़ी धूमधाम से गणेशोत्सव मनाया जाता था। वह भाईगीरी करते-करते शिवसेना के नेता भी बने, जिनके गणेश के भी जैकी श्रॉफ जैसों के साथ कई अभिनेता भी बप्पा के दर्शन करने जाते थे। उन दिनों मीरा रोड भाइंदर में शमशुनिसा गुलाम रसूल पटेल गैंग का दबदबा था। उनके बेटे तांत्या और आसिफ पटेल ने पुलिस की नाक में दम कर रखा था। जो वक्त के चलते राकांपा के नेता बने, तो वासुदेव नांबियार अपनी भाई गिरी पर विराम लगा दिया।
यह उस समय के भाइयों के गणेशोत्सव की कहानी है। पर अब के गणेश उत्सवों की कहानी अब बहुत ही अलग है।
(उपरोक्त विचार लेखक के अपने हैं।)