राजेंद्र यादव से साक्षात्कारों की अब तक चार किताबें आ चुकी हैं. उनसे साक्षात्कार लेने वाले की असल चुनौती दोहराव से बचना है. यहां यह कोशिश भरसक की गई है. उन सवालों को बिल्कुल ही छोड़ दिया गया है जो उनसे बार-बार पूछे गए हैं और हर बार उन्होंने उनका एक ही उत्तर दिया है. राजेंद्र यादव से दिनेश कुमार की बातचीत.
लोगों का कहना है कि जिस तरह से नामी बनिये का नाम बिकता है वही हालत हंस की है. यह केवल निकलने के लिए निकल रही है. साहित्य समाज में इसकी हस्तक्षेपकारी भूमिका अब समाप्त हो गई है.
यह तो सही बात है कि व्यक्ति हो या संस्था, पत्रिका हो या आंदोलन इनकी ऊर्जा की एक अवधि होती है और अवधि बीत जाने के बाद केवल परंपरा रह जाती है. मगर, हंस के बारे में मैं ऐसा महसूस नहीं करता. मैं अभी भी उसे हिंदी की एक ऊर्जावान पत्रिका मानता हूं. यह इस बात से भी साबित होता है कि हंस का हर नया अंक विमर्शों और बहसों को जन्म देता है. कभी किसी रचना को लेकर तो कभी किसी लेख को लेकर. सबसे अधिक संपादकीय को लेकर. इनदिनों मेरे और तरुण भटनागर को आधार बना कर जो बहस शुरू हुई है, उसकी अनुगूंज दूर-दूर तक है. यह बहस अगले अंक में भी चलने वाली है. संपादकीय के अलावा हंस के तीन कॉलम ऐसे हैं जिसको लेकर उत्तेजित उत्सुकता बनी रहती है. ये स्तंभकार हैं- शीबा असलम फहमी, तसलीमा नसरीन और मुकेश कुमार. हंस में चलती रहने वाली बहसों को शायद ही कोई नजरअंदाज कर सके. अगले अंक में डॉ. सुधा चौधरी का एक गंभीर और शोधपूर्ण लेख आ रहा है- ‘मोक्ष की निरर्थकता’ आप देखेंगे कि इसको लेकर कितनी लाठियां भांजी जाती हैं. इसलिए मैं नहीं समझता कि हंस एक निश्चित अवधि के बाद ऊर्जाहीन हो जाने की परिपाटी का पालन करने वाली पत्रिका है.
हंस को एक दौर में प्रियंवद, संजीव, उदय प्रकाश, अखिलेश आदि कई कथाकारों को सामने लाने का श्रेय मिला. इधर रचनाकारों को सामने लाने का श्रेय पत्रिका को नहीं मिल रहा है. क्या यह इसकी भूमिका खत्म होने का संकेत नहीं है?
शायद तुम्हें यह पता हो कि हंस के 25 वर्ष पूरे होने पर हमने संजीव के संपादन में एक पुस्तक निकाली थी, नाम था-‘मुबारक पहला कदम’. उसमें हंस में छपी उन कथाकारों की पहली कहानी शामिल है जिनकी पहले कहीं कोई कहानी नहीं छपी थी. उसमंे सिर्फ पच्चीस कथाकार थे. इधर पच्चीस कथाकार ऐसे और हैं जिनको लेकर ऐसा ही एक और संकलन तैयार किया जा सकता है. हम लगभग हर अंक में ऐसे रचनाकारों को छापते हैं जिनकी रचनाएं पहली छपी नहीं या छपने के बाद केंद्र में आ गई. इसलिए नवीन रचनाशीलता के संदर्भ में हंस की भूमिका चूक गई है, ऐसा मैं नहीं मानता.
आपने परिवार नाम की संस्था का हमेशा विरोध किया है पर जब हंस के उत्तराधिकार की बात आई तो आपने सब कुछ ताक पर रखकर इसे अपनी बेटी को सौंप दिया.
पहली बात तो यह है कि बेटी का संपादन में कोई हस्तक्षेप नहीं है. वह सिर्फ व्यवस्था का हिस्सा है. मैंने हंस की नई टीम में सिर्फ इस बात का ध्यान रखा कि मेरे बाद हंस ऐसे हाथों में दिया जाए जो उसकी ऊर्जा और जिजीविषा को बनाए रख सकें. मैं नहीं समझता कि इसमें भाई-भतीजावाद का कोई आरोप लगाया जा सकता है.
दो दशक का आपका स्त्री विमर्श हिंदी में एक भी बौद्धिक स्त्री को क्यों नहीं पैदा कर सका?
मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि बौद्धिक स्त्री से आपका क्या तात्पर्य है. क्या ईमानदारी से कहानियां, उपन्यास लिखने वाली स्त्रियां बौद्धिक नहीं होतीं? फिर भी नाम ही लेना हो तो हम कहेंगे कि हमने रोहिणी अग्रवाल, अर्चना वर्मा, सुधा अरोड़ा, डॉ. निर्मला जैन, अनामिका, विजया शर्मा जैसी आधा दर्जन लेखिकाओं को प्राथमिकता दी है जो हिंदी के किसी भी समीक्षक या विचारक से उन्नीस नहीं हैं.
आपका पूरा स्त्री विमर्श सामंती सोच का तो विरोध करता है लेकिन पूंजीवादी विचार के साथ कदमताल मिलाता है. यानी स्त्री मुक्ति को लेकर आपके पास पूंजीवाद (उदारवाद) से अलग कोई वैकल्पिक दृष्टि नहीं है?
पूंजीवाद की एक सकारात्मक भूमिका है कि वह स्त्रियों, दलितों और श्रमजीवियों को सामंती एकछत्रता से मुक्त करता है. मगर, फिर उन्हें अपने और बाजार के लिए इस्तेमाल करना उसकी मूलभूत आवश्यकता है. सामंती गुलामी से मुक्ति की चेतना इन नए वर्ग को यह सामर्थ्य देती है है कि वह संगठित होकर अपने हितों और भविष्य के लिए लड़े. अब बाजार तो इनका इस्तेमाल करेगा ही. सवाल यह है कि इससे कैसे लड़ें.
हाल ही में तहलका के एक साक्षात्कार में वरिष्ठ आलोचक नंदकिशोर नवल ने कहा कि गंभीर साहित्य की चर्चा के समय आपका नाम नहीं लिया जाए तो बेहतर है.
मैं नवल जी का आभारी हूं कि उन्होंने मुझे अपनी समझ के विचार से गंभीर विचारकों की सूची से काट दिया है. एक बार मेरी किसी रचना को लेकर डॉ. नगेंद्र ने प्रशंसा की तो कमलेश्वर ने कहा- राजेंद्र, सावधान हो जाओ! कि सोचो तुम्हारी रचना में ऐसा प्रतिक्रियावादी क्या था जिसे डॉ. नगेंद्र ने पसंद कर लिया. मैं शुरू से मानता हूं कि विश्वविद्यालय ज्ञान के कब्रिस्तान हैं. जहां सिर्फ पचास वर्ष पूर्व मरे हुए लोगों का ही अभिनंदन होता है. जीवित और जीवंत लोग उनके गले कभी नहीं उतरते. समाज और राजनीति के दूसरे प्रश्नों से जूझने वाले लेखक विश्वविघालयों के प्राध्यापकों के लिए सबसे बड़े ‘आउटसाइडर’ होते हैं. उनके हिसाब से शुद्ध साहित्यकार वह है जो चौबीसों घंटे रीतिकाल, भक्तिकाल और छायावाद ही घोटता रहता है और प्रगतिवाद तक आते-आते उसकी सांस फूल जाती है. उनके लिए केवल कलावादी और कवि ही साहित्यकार होते हैं. अपने गुरुदेवों से उन्होंने जो पढ़ा था उसे ही वे आज भी छात्रों के कान में उगलते रहते हैं. अभी इन्होंने जयंतियों के नाम पर केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर, नागार्जुन जैसों की कैसी मट्टी पलीद की है. शायद ही कोई अध्यापक हो जिसकी कलम के शिकार ये गरीब रचनाकार नहीं हुए हों. इनके लिए न यशपाल साहित्यकार हैं न रागेय राघव, न भगवत शरण उपाध्याय न शिवदान सिंह चौहान; क्योंकि वे साहित्य को समाज समीक्षा से जोड़ रहे थे. बेचारे नवल जी भी इसी ग्रंथि के शिकार हैं. उन्होंने केवल मुझे ही नहीं आलोक धन्वा, अरुण कमल, राजेश जोशी, पवन करण आदि सबको जाति बाहर कर दिया है. अगर नवल जी मुझे साहित्यकार मान लेते तो निश्चय ही मेरे मन में यह आशंका होती कि क्या मैं उन्हीं प्रध्यापकीय घुटी और सड़ांध भरी मान्यताओं का शिकार हो गया हूं?
प्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक मैनेजर पांडेय का कहना है कि आप कहीं से भी मार्क्सवादी नहीं है जबकि आप अपने को मार्क्सवादी ही मानते हैं. क्या कहना चाहेंगे?
मुझे मालूम नहीं कि मैनेजर पांडेय किस आधार पर मार्क्सवादी होने का ’सर्टिफिकेट’ देते हैं. लेकिन मैं यह जरूर जानना चाहूंगा कि मेरी रचनाओं में ऐसा क्या है जो मार्क्सविरोधी है. हो सकता है मैंने लेनिन, मार्क्स और दूसरों के बहुत उद्धरण न दिए हों, लेकिन देशी-विदेशी विद्वान मेरी चेतना और सोच का हिस्सा रहे हैं. उसे मैं अलग से रेखांकित करके नामवर सिंह और मैनेजर पांडेय से प्रमाण पत्र लेने की जरूरत महसूस नहीं करूंगा.
हंस प्रतिष्ठान की बहुत करीबी रही लेखिका मैत्रेयी पुष्पा का कहना है कि उन्होंने आपको प्राय: नहीं पढ़ा है और उन पर आपका कोई प्रभाव भी नहीं है. इधर आपकी लंबी बीमारी के दौरान वे न तो आपको देखने आईं और न ही फोन किया. संबंधों में इतनी तल्खी कैसे?
इस बात का जवाब तो मैत्रेयी पुष्पा ही दे सकती हैं. मेरा यह भी आग्रह नहीं है कि मेरा उन पर कोई प्रभाव रहे. वे स्वतंत्र लेखिका हैं, जैसा ठीक समझती हैं करती हैं. इसकी उन्हें पूरी छूट है. संबंधों के बारे में मेरी धारणा यह है कि यह रेलयात्रा का साथ है. जिसका जहां स्टेशन आ जाए उसे वहां उतरकर अलविदा कहने की पूरी स्वतंत्रता है.
आप पहले किसी को आसमान पर चढ़ाते हैं और फिर अपना हाथ खींच लेते हैं. क्या अजय नावरिया के साथ आपने यही नहीं किया? क्या यह लोगों से खेलना नहीं हुआ?
जिसे तुम खेलना कहते हो या आसमान पर चढ़ाना कहते हो, मेरे लिए वह किसी को आत्मनिर्भर बनाने की प्रक्रिया है. जब वह अपनी क्षमताओं को लेकर आश्वस्त हो जाता है तो उसे मेरी सहायता की जरूरत नहीं होती. वह अपने व्यक्तित्व के बल पर ही आगे की यात्रा करता है. जैसे तैराकी सिखाने वाला व्यक्ति शिक्षार्थी को तैराकी के मूलभूत नियमों और प्रक्रियाओं से परिचित कराने के बाद उसे इस विश्वास के साथ पानी में छोड़ देता है कि वह खुद ही लहरों और धाराओं से लड़ेगा या उनका इस्तेमाल करेगा. यह बीच में छोड़ना या हाथ खींचना नहीं बल्कि सामने वाले के आत्मविश्वास को जगाना है.
पंकज बिष्ट अपनी पत्रिका ‘समयांतर’ में लगातार कहते आ रहे हैं कि आपने और हंस ने ‘इसटैबलिशमेंट’ (व्यवस्था) का कभी विरोध नहीं किया. आपने दलित विमर्श और स्त्री विमर्श का सुरक्षित दायरा बना लिया.
पंकज बिष्ट हमेशा ही उलटबांसी बोलते रहते हैं. जरूरी नहीं कि सबके अर्थ खुलकर सामने आएं. ‘इसटैबलिशमेंट’ से उनका क्या आशय है? क्या यह केवल वर्तमान सत्ता ही है? परिवार और घरों में चलने वाली सामंती जकड़नें भी इसी ‘इसटैबलिशमेंट’ के अंग हैं. मुझे हर प्रकार की रुढि़यां और संकीर्णताएं ‘इसटैबलिशमेंट’ का हिस्सा ही लगती हैं.
83 साल का भरपूर जीवन! क्या किसी चीज का मलाल भी है?
मलाल सिर्फ मुझे अपने चार-पांच उपन्यासों का है, जिन्हें मैं पूरा नहीं कर पाया. 40-45 साल से गड़े खजाने के रूप में अधूरी पड़ी कहानियां आज भी पूरी नहीं हुईं. अपनी लेखकीय सूची से असंतोष न हो तो आदमी संतुष्ट होकर बैठ जाए. यह असंतोष और मलाल ही आदमी को सक्रिय रखते हैं.