शुरू से ही शुरू करते हैं. आप हरिवंश राय बच्चन के बेटे हैं जो हिंदी के महान कवियों में से एक थे. लेकिन जीवन के लिए जो रास्ता आपने चुना वह पिता के रास्ते से बिल्कुल ही अलग था. 1969 में जब आप फिल्मों में आए तो तब सिनेमा का स्वरूप आज जैसा नहीं था. आज सिनेमा करियर है जो तब नहीं था. तो आपने कैसे तय किया कि फिल्मों में ही जाना है?
मेरे पिता की वजह से हमारे परिवार में माहौल साहित्य और कविता का ही था. मेरी मां से बहुत से लोग पूछते थे कि आपके पति कवि हैं तो आपका बेटा फिल्मों में कैसे चला गया. उनका जवाब होता था कि परिवार में एक कवि ही काफी है. (हंसते हुए). 1962 में जब मैं कॉलेज में था तो उस समय के युवाओं के लिए ग्रेजुएट होना सबसे अहम उपलब्धियों में से एक हुआ करता था. ग्रेजुएट होने के लिए बड़ा सामाजिक दबाव होता था. लेकिन फिर सवाल यही होता था कि इसके बाद क्या करें. मैंने और मेरे दोस्तों ने नौकरियों के लिए कई जगहों पर कोशिशें कीं, लेकिन नाकाम रहे. फिर किसी ने सुझाव दिया कि तुम आल इंडिया रेडियो में न्यूजरीडर बनने के लिए कोशिश करो. मैंने आवेदन भी किया था, लेकिन वह रिजेक्ट हो गया.
ऐसी आवाज के बावजूद आप नहीं चुने गए?
ये तो खैर आप आल इंडिया रेडियो वालों से ही पूछें. इसके बाद किसी ने कहा कि कलकत्ता जाओ. तो मैं कलकत्ता चला गया और मुझे नौकरी भी मिल गई. अगले सात साल वहीं गुजरे. फिर एक दिन मेरे भाई ने मुझे एक विज्ञापन के बारे में बताया. यह फिल्म पत्रिका फिल्मफेयर-माधुरी में आया था और इसका मजमून यह था कि नए अभिनेताओं की तलाश है जिनका इंटरव्यू के जरिये चयन किया जाएगा. यह विज्ञापन उस समय के प्रमुख पांच-छह निर्देशकों द्वारा जारी किया गया था. मुझे लगा कि यह फिल्म इंडस्ट्री में दाखिल होने का सबसे सही तरीका है. मुझे और कोई तरीका मालूम भी नहीं था. तो मैंने आवेदन कर दिया, लेकिन वहां भी मैं पहले ही दौर में खारिज हो गया. खैर, मैं मुंबई में था और मेरे पास ड्राइविंग लाइसेंस था. तो मैंने सोचा कि कुछ नहीं हुआ तो मैं ड्राइवर तो बन ही सकता हूं.
आपके माता और पिता दोनों की अपनी तरह की शख्सियत थी. किसका आप पर ज्यादा प्रभाव पड़ा और यह किस तरह का था?
मुझे लगता है कि मैं पूरब और पश्चिम का एक सुंदर मेल हूं. पश्चिम के तौर पर आप मेरी मां को देख सकते हैं जो बहुत ही संपन्न सिख परिवार से ताल्लुक रखती थीं. उनकी जिंदगी अंग्रेजीभाषी नौकरों और महंगी कारों के बीच गुजरी थी. उधर, मेरे पिता एक निम्नमध्यवर्गीय परिवार से थे जिनका जीवन खपरैल वाले कच्चे घर में बीता था और जिन्होंने ढिबरी की रोशनी में पढ़ाई की थी. एक दोस्त के यहां वे दोनों मिले और मिलने के कुछ घंटों बाद ही उन्होंने पूरा जीवन साथ बिताने का फैसला कर लिया.
क्या आपकी शख्सियत पर कुछ अपनी मां का यानी सिख-पंजाबी असर है? आपके पिता की छाप तो आप पर साफ दिखती है. आपका हिंदी उच्चारण, हिंदी के साथ आपकी सहजता…
मेरी पंजाबी भी उतनी ही अच्छी है. मेरी मां का दूसरा असर शायद मेरी लंबाई है. मिजाज की गर्मजोशी और हार न मानने वाली प्रवृत्ति भी ऐसी चीजें हैं जिन्हें आमतौर पर सिखों के साथ जोड़कर देखा जाता है. एक और चीज मैं आपको बताना चाहूंगा. इलाहाबाद जहां मैं पैदा हुआ, वहां यह शायद पहला अंतर्जातीय विवाह था. तब जाति प्रथा आज की तुलना में बहुत सख्त थी और मेरे माता-पिता को इस वजह से काफी सामाजिक बहिष्कार का सामना भी करना पड़ा.
आप घर में कौन सी भाषा में बात किया करते थे. हिंदी, अंग्रेजी या पंजाबी?
थोड़ा-थोड़ा सबमें ही. पंजाबी में मैंने ज्यादा बोलना तब शुरू किया जब मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी आया.
दिल्ली में अपने कॉलेज के दिनों के बारे में बताएं. क्या आप तब भी थियेटर किया करते थे?
पता नहीं क्यों पर मंच पर जाने के लिए मैं हमेशा से तैयार रहता था. किंडर गार्डन से ही. मेरा पहला रोल एक चूजे का था जिसमें मैं पंख पहनकर स्टेज पर आया था. हालांकि यह सब शौकिया ही था. फिर जब मैं नैनीताल के शेरवुड कालेज गया तो मैंने कुछ महत्वपूर्ण नाटकों में हिस्सा लिया. इनमें शेक्सपियर और कुछ और बड़े लेखकों के नाटक शामिल थे. कलकत्ता में भी मैंने एक थियेटर ग्रुप ज्वाइन किया था. वहां भी मैंने काफी नाटक किए, तब भी यह सब बस शौकिया था.
कहा जाता है कि पहली फिल्म आपको इंदिरा गांधी की वजह से मिली. उन्होंने आपके लिए सिफारिशी चिट्ठी लिखी थी. इस बात में कितनी सच्चाई है?
मैं भी यह सुनता रहता हूं. मैंने अब तक वह चिट्ठी नहीं देखी और न ही कोई ऐसा व्यक्ति अब तक मेरी जानकारी में आया है जिसने कहा हो कि उसे यह चिट्ठी मिली थी. मुझे लगता है कि भगवान की चिट्ठी भी आपको फिल्मों में कोई रोल नहीं दिला सकती.
अपने पहले ब्रेक, अपनी पहली फिल्म के बारे में बताएं.
उसका नाम था सात हिंदुस्तानी और वह ख्वाजा अहमद अब्बास ने बनाई थी. यह सात लोगों की कहानी थी जो गोवा को पुर्तगालियों से आजाद करवाने वहां जाते हैं. ये सात लोग हिंदुस्तान के सात अलग-अलग हिस्सों से थे. ख्वाजा अहमद अब्बास समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति थे और उनका गांधी और नेहरू के सिद्धांतों में गहरा यकीन था. उन्होंने देश के अलग-अलग हिस्सों से कलाकारों को चुना और उनसे बिलकुल उलट भूमिकाएं करवाईं. जैसे मैं हिंदू हूं तो उन्होंने मुझे मुसलमान का किरदार दिया. उत्पल दत्त बंगाली थे तो उनसे सिख की भूमिका करवाई. तो यह मेरी पहली फिल्म थी. यह फिल्म मुझे मिली तो इसका संबंध भी मेरे भाई अजिताभ से जुड़ता है जो उस समय मुंबई में थे. उन्हें अपने किसी दोस्त से पता चला कि अब्बास साहब ऐसी कोई फिल्म बना रहे हैं और उन्हें नए लोगों की जरूरत है. अजिताभ ने मेरा फोटो उन्हें भेजा. उन्हें पसंद आया. उन्होंने मुझे बुलाया और इस भूमिका के लिए चुन लिया.
इसके बाद बॉंबे टु गोवा आई और कई और फिल्में भी जो असफल रहीं. एक परवाना भी थी जिसमें हीरो नवीन निश्चल थे और आप विलेन?
जी. दरअसल वह ऐसा समय था जब इस बात की बहुत परवाह नहीं रहती थी कि लीड रोल मिल रहा है या कुछ और. तब तो यह था कि कोई भी रोल मिले बस किसी तरह सिनेमा से जुड़े रहना है.
1969 से 1973 के दौरान जब आपकी फिल्में एक के बाद एक करके ढेर हो रही थीं तो आपकी मनस्थिति किस तरह की होती थी? क्या कभी यह नहीं लगा कि गलत फैसला ले लिया? क्या कभी घरवालों ने नहीं कहा कि छोड़ दो, वापस आ जाओ?
नहीं, उन्होंने कभी ऐसा नहीं कहा. मैं भी बस कोशिश करता रहा कि किसी तरह टिका रहूं. वे बहुत निराशा वाले दिन थे. मुझे लगता था कि शायद मुझमें ही कुछ कमी है जो मेरी फिल्में नहीं चल रहीं और दूसरों की चल रही हैं.
1973 वह साल था जब आपकी सफलता का सिलसिला शुरू हुआ. उस साल आपकी दो अलग-अलग मिजाज वाली फिल्में आई थीं. पहली जंजीर और दूसरी अभिमान. दोनों में आपने बिल्कुल अलग तरह के किरदार निभाए. पहली फिल्म ने आपका एंग्री यंग मैन वाला किरदार गढ़ा जो अगले सात साल भारतीय सिनेमा पर छाया रहा. एक छवि का ऐसा प्रभुत्व उससे पहले और उसके बाद आज तक हिंदी सिनेमा में नहीं देखा गया. 1973 में आपके सामने दो धाराएं थीं. पहली अभिमान के किरदार जैसी शांत और गंभीर धारा. दूसरी जंजीर के किरदार जैसी लार्जर दैन लाइफ जैसी जिसमें नाटकीयता और एक्शन कूट-कूटकर भरा हुआ था. ऐसा लगता है कि आपने दूसरे विकल्प के साथ बढ़ने का फैसला किया. आप ऐसे अमिताभ बने जो अजेय था. जिसे कोई नहीं हरा सकता था. जो अभिमान के अमिताभ से बिल्कुल अलग था.
देखिए, मैं बस अपना काम कर रहा था. आपने पहले बांबे टु गोवा का जिक्र किया. सलीम-जावेद निर्देशक प्रकाश मेहरा के साथ मेरे पास आए थे. उन्होंने कहा कि उनके पास स्क्रिप्ट है और वे मुझे यह सुनाना चाहते हैं. मैंने स्क्रिप्ट सुनी और मुझे पसंद आई. उन दिनों मुझ जैसी हालत वाले किस अभिनेता को पसंद नहीं आती? तो मैं फिल्म में काम करने के लिए राजी हो गया. कई महीनों बाद जब हम जंजीर की शूटिंग कर रहे थे तो मैंने जावेद साहब से पूछा कि एक नये आदमी में, जिसकी कई फिल्में फ्लाप हो चुकी थीं, जिसे शायद ही कोई अपनी फिल्म में लेना चाहता, उसमें आपको क्या पसंद आया. उन्होंने कहा कि तुम्हारी एक फिल्म थी, बांबे टु गोवा. उसमें एक एक्शन सीन था. जिसमें तुम रेस्टोरेंट में हो, तुम्हारे चेहरे पर एक घूंसा पड़ता है, तुम पलटियां खाते हुए गिरते हो, और जब तुम उठते हो तो तब भी तुम च्यूइंगम चबा रहे होते हो. वही लम्हा था जब हमने यह फैसला किया कि जंजीर के हीरो तुम होगे. मैं आज तक नहीं समझ पाया कि कैसे च्यूइंगम का रिश्ता जंजीर में मेरी भूमिका से जुड़ सकता है. लेकिन यह ऐसे ही शुरू हुआ था. मैंने सलीम जावेद से यह भी पूछा कि वे इस तरह की स्क्रिप्टें क्यों लिखते हैं. उनका जवाब था कि देश एक ऐसे दौर से गुजर रहा है जब लोग सिस्टम से खुश नहीं हैं. उन्हें लगता है कि समय आ गया है कि कोई आदमी खड़ा हो और अकेले अपने दम पर सिस्टम से लोहा ले. और सौभाग्य से उन्होंने जो स्क्रिप्टें मेरे लिए लिखीं वे इसी भावना का मूर्त रूप थीं. एक ऐसा आदमी जो अकेले ही सिस्टम से लड़ रहा था और आखिर में जीत रहा था. तो शायद इसलिए उस समय के युवाओं ने, देश के लोगों ने मुझे खुद से जोड़कर देखा. यानी मैं खुशनसीब था आदमी था जो स्टॉप पर तब खड़ा था जब स्क्रिप्ट वहां से गुजरी.
अभिमान के बारे में भी कुछ बताएं
अभिमान से पहले एक और फिल्म थी. गुड्डी. ऋषिकेश मुखर्जी उसे बना रहे थे. जया भादुड़ी तब एक टॉपर के रूप में एफटीआईआई से निकली ही थीं. ऋषि दा दो ऐसे कलाकारों को लेना चाहते थे जो मशहूर न हों. जया और मेरा चयन हुआ. लेकिन तभी आनंद रिलीज हो गई और लोग मुझे थोड़ा-थोड़ा जानने लगे. इसके बाद ऋषिकेश मुखर्जी ने मुझे गुड्डी में न लेने का फैसला किया. उन्होंने कहा कि चिंता मत करो, मैं तुम्हें किसी दूसरी फिल्म में ले लूंगा, लेकिन यह छोड़ दो. आप कह सकते हैं कि अभिमान मेरा सांत्वना पुरस्कार थी. यह एक पति-पत्नी की कहानी थी. दोनों ही गायक होते हैं, लेकिन पत्नी पति से ज्यादा मशहूर हो जाती है और उससे जो तनाव उपजता है वही फिल्म का केंद्रीय विषय है. मुझे लगता है कि एक ही पेशे में काम करने वाले पति-पत्नी में पत्नी पति से आगे निकल गई है, इस विषय ने भारत जैसे पुरुषप्रधान माने जाने वाले समाज में दर्शकों को को छुआ और शायद इसीलिए उन्होंने फिल्म को पसंद किया.
73 से 82 तक आपकी एक के बाद एक धड़ाधड़ हिट फिल्में आती रहीं. आप मेगास्टार बन गए. इस दौरान अपने निजी जीवन के बारे में कुछ बताएं. जया भादुड़ी के बहुत से प्रशंसकों की यह शिकायत है कि आपने उन्हें घर-परिवार तक सीमित कर दिया.
यह हम दोनों की सहमति से हुआ फैसला था. गुड्डी के बाद जल्द ही जब हमारी शादी हुई तो उसके बाद जया का ही फैसला था कि मैं फिल्मों में काम करूंगा और घर और बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी वे संभालेंगी. लेकिन वे हमेशा अपने फैसले लेने के लिए आजाद रहीं. बच्चे बड़े हो गए तो हमने फिर से एक साथ काम भी किया. वे आज भी फिल्मों में काम करती हैं.
70 के दशक से आज की तुलना करें तो क्या आपके किसी सीन की तैयारी करने में कोई फर्क आया है.
उन दिनों तैयारी का स्कोप नहीं होता था. अक्सर आप सेट पर आते थे और वहीं सीन लिखे जाते थे. सलीम-जावेद पहली बार हार्ड बाउंड स्क्रिप्ट लेकर आए जिसमें किसी बदलाव की गुंजाइश नहीं होती थी. इससे काफी राहत हो गई क्योंकि तब आप सीन देखकर उसकी रिहर्सल कर सकते थे. उन दिनों मुंबई में एक स्टूडियो हुआ करता था चांदीवली स्टूडियो. यह एक विशाल जगह थी जिसमें हर तरह के पेड़-पौधों से लेकर झोपड़ियां आदि तक तमाम चीजें होती थीं. गर्मियों के महीने पूरा फिल्म उद्योग कश्मीर पहुंच जाता था. वहां 12-13 यूनिटें शूटिंग कर रही होती थीं. अक्सर यह होता था कि कोई सीन किसी वजह से अटक गया तो असिस्टेंट डायरेक्टर आकर कहता था कि सर, सीन चांदीवली स्टूडियो शिफ्ट हो गया है. तो उस चांदीवली स्टूडियो ने दुनिया की तमाम मशहूर लोकेशनों के विकल्प के तौर पर काम किया. उन दिनों हम कुछ ऐसे ही काम करते थे. अब तो सब कुछ बहुत अत्याधुनिक है. हम यहीं बैठे रहकर पीछे न्यूयॉर्क का विजुअल इफेक्ट दे सकते हैं.
क्या अमिताभ बच्चन का कोई रूप ऐसा भी है जो अभिनय से मुक्त है? पिता का, पति का, ससुर का, दादा का. या फिर आप हर क्षण एक अभिनेता ही होते हैं? क्या कुछ ऐसे लम्हे होते हैं जब अमिताभ बच्चन अभिनय नहीं कर रहे होते?
पता नहीं, कैमरे के सामने हमें कई बार उन क्षणों से गुजरना पड़ता है जिनमें हम अपने भीतर बहुत गहरे उतरने की कोशिश करते हैं. मान लीजिए एक सीन है जिसमें आपकी मां की मौत हो गई है. अब आपको अभिनय करना है. तो आप वैसे भाव कैसे लाएंगे? औरों की तो नहीं जानता पर मुझे लगता है कि उस चीज को आपको अपनी निजी जिंदगी से जोड़ना पड़ता है. यह कल्पना करती पड़ती है कि आपकी अपनी मां की मौत हो गई है और तब आप वह भाव पैदा करते हैं कि उस समय आपकी प्रतिक्रिया क्या होगी. क्योंकि दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में भारत में ही बनती हैं तो कम-से-कम 10 बार ऐसा हुआ होगा जब मेरी मां नहीं रहीं. अब 10 बार उस प्रियजन की मृत्यु पर शोक का अभिनय करने के बाद भगवान न करे आपका वही प्रियजन वास्तव में गुजर जाता है तो उस त्रासदी से पैदा होने वाले भाव या आंसू कहां से आ रहे हैं? क्या मैंने वह वास्तविकता 10 साल पहले उस भूमिका को निभाने में खर्च कर दी? यह सवाल मेरे लिए एक बड़ा असमंजस रहा है. ईमानदारी से कहूं तो जब मेरे माता-पिता गुजरे तो मुझे पता नहीं था कि जो भावनाएं महसूस हो रही हैं, जो आंसू उमड़ रहे हैं वह सिर्फ एक परफॉरमेंस है या कुछ और.