मीडिया आज मुद्रित टेक्स्ट से लेकर नॉन-टेक्स्ट तक हर जगह, हर समय मौजूद है। समाचार पत्र से लेकर रेडियो, टीवी िफल्म, कम्प्यूटर, इंटरनेट और अब मोबाइल भी इसकी परिधि के भीतर शामिल है। इन माध्यमों से प्राप्त सूचनाएँ और जानकारियाँ हमें समृद्ध तथा सचेत करती हैं और हमारे अनुभवों में विस्तार करती हैं। शक्ति के विस्फोट की तरह सूचनाओं और जानकारियों के एक बड़े घेरे के बीच आज हम खड़े हैं; पर स्थिति बिलकुल मेले में खो गए एक हतप्रभ आदमी-से हैं। सब कुछ इतना अधिक मौजूद है कि हमारी आँखें तो चकाचौंध में डूबी हुई हैं, मगर अपना ही पता याद नहीं है। मीडिया सचमुच एक बड़ी शक्ति है। परन्तु क्या हम इस शक्ति का किसी हद तक गलत प्रयोग करने लगे हैं? या इसके प्रयोग के नियम भूल गए हैं? इस पर ठहरकर विचार करने का समय किसी के पास नहीं, बस दौड़ रहे हैं; एक ऐसी दौड़, जिसका गन्तव्य भी शायद हमें ठीक से पता नहीं। आइये, इस लेख के माध्यम से हम लोकतंत्र के इस चौथे खम्भे मीडिया की शक्ति को पहचानते हुए इसके मानदंड, महत्त्व और लोकतंत्र की हिफाज़त में इसके सही उपयोग के साथ-साथ इसके भीड़तंत्र में बदलने का अध्ययन करें। इसमें कुछ सवाल हैं और पाठकों के भीतर चयन के विवेक को खंगालने की कोशिश है। साथ ही बाज़ार और मीडिया के गणित की पड़ताल है और कला माध्यमों से की जाने वाली कुछ अपेक्षाएँ हैं।
आजकल एक वाक्यांश बहुत अधिक चलन में है- ‘चयन का अधिकार!’ टीवी से लेकर इंटरनेट तक मीडिया के सभी चैनल अपने दर्शकों को चयन का अधिकार देने को बेताब हैं। जब देखेंगे आप, तो निर्णय कोर्ई और क्यों करेगा?’ ‘आप ही तय कीजिए कि आप क्या देखना चाहते हैं? ऐसा लगता है कि मीडिया का लोकतंत्र एक ऐसा समाज निर्मित कर रहा है, जहाँ हर व्यक्ति अपनी इच्छा और सुविधा के अनुसार चयन कर सकता है और जी सकता है। अपने हिस्से की खुशी को; अपने हिस्से के हर पल को। मनोरंजन इसके केंद्र में है और चमकीली दिखने वाली वस्तुओं को मूलभूत आवश्यकता में परिवर्तित करना इसकी ज़रूरत। जॉन फिस्के मीडिया को सच दिखाने वाला न मानकर ‘सत्याभास’ कराने वाला मानते हैं। वे लिखते हैं- ‘टेलिविजन वास्तव में हमारे समाज की अभिव्यक्ति का प्रतिनिधित्व नहीं करता है, बल्कि प्रतिबिंबित करता है।’ तो क्या यह चयन का अधिकार वास्तव में मिलने वाला है अथवा यह भी आभासी ही है?
लोकतंत्र की सबसे बड़ी सुविधा यह है कि वह समाज के हर युवा व्यक्ति को वोट के माध्यम से चयन का अधिकार देता है। हालाँकि, यह अधिकार अकेले नहीं आते, बल्कि अपने साथ कुछ नैतिक कर्तव्यों की सूची भी लेकर आते हैं; जिन्हें सामान्य भाषा में दायित्व कहा जा सकता है। लोकतांत्रिक समाज में रहकर यह अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को मिलता है; भले ही वह व्यक्ति इस अधिकार को ग्रहण करने की पात्रता रखता हो या नहीं। इसीलिए शिक्षा ग्रहण करते समय विवेक और समझ की शिक्षा भी व्यक्ति को दी जाती है। यहाँ यह भी समझने की ज़रूरत है कि लोकतंत्र एक ऐसे समाज की ताकत है, जहाँ व्यक्ति के पास अपना भला-बुरा समझने की शक्ति हो। ऐसे किसी भी समाज में लोकतंत्र असफल है, जहाँ व्यक्ति चयन के विवेक से परिचित नहीं है। मीडिया की दुनिया में भी चयन के विवेक का प्रश्न सर्वोपरि है और होना भी चाहिए। मीडिया की दुनिया आभासी रूप से अत्यंत लोकतांत्रिक होने का दावा करती है; पर यहाँ इस लोकतंत्र के विवेक का प्रश्न समकालीन समाज में सिरे से लापता है। क्या सचमुच दर्शक इतना विवेकवान हो गया है कि चयन कर सके? यह भी प्रश्न है कि विकल्पों की सूची में क्या सचमुच दर्शक को यह अधिकार मिल रहा है कि वह अपनी इच्छा से सही और ज़रूरी चुन सके? जिस तरह लोकतंत्र के नाम पर जिन दलों के बीच चयन करने का भ्रम हमें दिखाया जाता है, उन दलों के बीच न तो वैचारिकी का अंतर है, न ही सत्ता के लोभ का। ठीक उसी प्रकार जिन चैनलों के बीच हमें चयन की सुविधा दी जा रही है, क्या उनमें चरित्रगत अंतर है? या केवल प्रस्तुतीकरण का! सामान्य जनता और उसके मुद्दे उनमें से किसी के केंद्र में नहीं हैं। न ही किसानों की तकलीफें, न ही किसानों में बढ़ती आत्महत्या को रोकने और इसके लिए विवश करने वाले कारकों को खत्म करने की इच्छा शक्ति तथा मैनिफेस्टो ही है। केवल मीडिया में ही नहीं, बल्कि विभिन्न दलों की चिन्तन प्रक्रिया में भी इसका नितांत अभाव है। इसी तरह सडक़ पर मरते आदमी को बचाने से लेकर किसी की मदद करने और राजनीति तथा अन्य क्षेत्र में लोगों के चयन, सम्मान का स्तर आदि भी जाति और धर्म की राजनीति का खेल बन गया है। मीडिया भी इस भेदभाव से नहीं उबर सक रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार, जनता से जुड़े लगभग 60 प्रतिशत मुद्दों को छोडक़र मीडिया हाउसेज़ गैर-ज़रूरी मुद्दों को हमारे सामने रखते हैं। क्या करें! टीआरपी का ज़माना है और मीडिया घरानों के बीच टिके रहने की होड़ भी है।
मीडिया के इस भ्रामक लोकतंत्र की यह एक बड़ी समस्या है। मीडिया हमारे सामने हर विषय पर विकल्प प्रस्तुत करने का दावा कर रही है। परन्तु एक चैनल के विषयों के चयन और उसकी प्रस्तुति में उतना ही झूठापन और उबाऊपन है, जितना कि किसी दूसरे चैनल के विषय चयन और प्रस्तुति में। खबरों की दुनिया में ऐसा सतहीपन है, जो दर्शक को किसी प्रकार के वैचारिक निष्कर्ष नहीं देता और न ही सोचने का अवसर; क्योंकि रिमोट की आज़ादी ने विचार की अपेक्षा चयन और बदलाव पर बल दिया है; विवेक और विचार पर नहीं। एक अजब विवेकहीनता का दौर है, जहाँ मीडिया के पास विषयों का अभाव नहीं है; पर कुछ नया की इच्छा और ज़रूरी भी नहीं है। जहाँ दर्शक को डान्स और म्यूजिक के लाइव शोज़ में किसी को विजयी बनाने का झूठा अधिकार दिया जाता है; जिसके हर संदेश की कीमत है- 6 रुपये से 8 रुपये। एक ऐसा झूठा और गर्वीला भाव, जिसकी कीमत चुकाते-चुकाते दर्शक भावानात्मकता की गिरह में फँसकर नियंता होने के भाव से अभिभूत होता रहता है और ज़रूरी मुद्दों से भटक जाता है। इतनी रंगीन दुनिया मीडिया ने निर्मित की है, जिससे जब दर्शक को चयन का अधिकार मिलता है, तो अक्सर औसत दर्शक इन्फोटेंमेंट से इन्फो छोड़ देता है और टेनमेंट चुन लेता है।
यहाँ एक बार फिर दलगत राजनीति और भारत को देखने की ज़रूरत है। जिस प्रकार प्रत्येक दल आम आदमी का ज़रूरी मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए ग़ैर-ज़रूरी चीज़ों को बड़ा बनाकर प्रस्तुत करता है, ठीक उसी प्रकार मीडिया भी ज़रूरी चीज़ों को गैर-ज़रूरी और ग़ैर-ज़रूरी चीज़ों को ज़रूरी बनाकर दर्शकों का ध्यान भटका रही है। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है। विधानसभा, न्यायपालिका और कार्यपालिका नाम के तीन खम्भों पर खड़े लोकतंत्र के आयत को पूर्ण करने का काम मीडिया ही करता है। परन्तु आज चयन की सुविधा के नाम पर नया दर्शक एक ग्राहक बनकर सोच रहा है, जहाँ काम से लौटने पर वैचारिक प्रक्रिया से जुडऩे की बजाय वह केवल बाज़ारवाद के गणित के भीतर मनोरंजन खरीदना चाहता है। मसलन, एक घूँट मनोरंजन, कम खर्च और अतृप्त आकांक्षाएँ! एडोर्नो ने इसी गणित की परख करते हुए ‘कल्चर इंडस्ट्री’ को खुला झूठ माना है। वे कहते हैं- वे (संस्कृति उद्योग) किसी भी कीमत पर उनकी (दर्शकों की) इच्छाओं को पूरा नहीं करेंगे।
आज हम एक खतरनाक दौर से गुज़र रहे हैं। एक ऐसा दौर, जहाँ चारों ओर लगभग वैचारिक शून्यता का माहौल है। मीडिया भी इस वैचारिक शून्यता के निर्माण में भूमिका निभा रहा है। आजकल लगातार चैनल चयन पर दबाव है- कम पैसा खर्च करके अपनी पसंद के चैनल देखने की सुविधा। पर इस सुविधा में मुद्दे लापता हैं और बहस पूरे 24 घंटे और सातों दिन! यहाँ मीडिया का अर्थ केवल टीवी पर चलने वाली अनवरत बहस नहीं, बल्कि हर माध्यम से केवल और केवल बहस की दुनिया को देखने का प्रयास है। लगातार वाचाल होती इस दुनिया में शब्द वाचाल हो रहे हैं और इतने ज़्यादा कि वे अपना अर्थ खोकर केवल शून्य में खोने के लिए विवश हैं। मीडिया की तटस्थ और बेबाक भूमिका सवालों के घेरे में है। ब्रेख्त ने लिखा था- ‘जो लोग पूँजीवाद का विरोध किए बिना फासिज्म का विरोध करते हैं, वे उस बर्बरता पर दु:खी होते हैं, जो बर्बरता के कारण पैदा होती है। वे ऐसे लोगों के समान हैं, जो बछड़े को जि़बह किए बिना ही उसका मांस खाना चाहते हैं। वे बछड़े को खाने के इच्छुक हैं; लेकिन उन्हें खून देखना पसंद नहीं है। वे आसानी से संतुष्ट हो जाते हैं, अगर कसाई मांस तौलने से पहले अपने हाथ धो लेता है। वे उन सम्पत्ति-सम्बन्धों के िखलाफ नहीं हैं, जो बर्बरता को जन्म देते हैं। केवल अपने आपमें बर्बरता के िखलाफ हैं। वे बर्बरता के िखलाफ आवाज़ उठाते हैं और ऐसा वे उन देशों में करते हैं, जहाँ ठीक ऐसे ही सम्पत्ति-सम्बन्ध हावी हैं; लेकिन जहाँ कसाई मांस तौलने से पहले अपने हाथ धो लेता है।
मीडिया की जि़म्मेदारी बहुत बड़ी है। आज भी देश की एक बड़ी आबादी समाचार पत्रों को विश्वसनीयता का सबसे बड़ा स्रोत मानती है। घरों के बाहर अखबार वाले जब सुबह अखबार नहीं देते, तब एक अजब-सी बैचेनी उनके भीतर खदबदाहट मचाती है। आज भी कुछ लोग अखबारों को पढक़र भाषा के सुधार की सलाह देते हैं। खबरों की कटिंग को प्रामाणिकता का स्रोत समझकर रखते हैं। पर मीडिया का लक्ष्य अब खबर कम और बाज़ार ज़्यादा है। दर्शक के उपभोक्ता के रूप में तब्दील होने के दौरान खबरें और सूचनाएँ भी प्रोडक्ट के रूप में तब्दील होती गई हैं। यह सब कुछ इतनी सूक्ष्मता से हुआ कि खुद जन-समूह को भी खबर नहीं हुई कि वह कब उपभोक्ता के रूप में बदल गया। डेनिस मेक्वेल मास की व्याख्या एक विद्रोही, अशिक्षित और असंस्कृत समूह के रूप में करते हैं, जिसे मीडिया बाज़ार के माध्यम से पहले छोटा बनाती है; महत्त्वाकांक्षा पैदा करती है; फिर आकांक्षाओं के सपने देकर उसे खबरों से ज़्यादा विज्ञापन के लुभावने आकर्षण से जोड़ती है। दर्शक प्राय: मीडिया से अपना भावनात्मक सम्बन्ध बना लेता है। क्योंकि मीडिया के पास हर वर्ग के लिए कुछ-न-कुछ है। जैसे-बच्चों के लिए कार्टून, गृहणियों के लिए पाक सामग्री, युवाओं के लिए स्पोट्र्स आदि पर क्या यही है वह चयन, जिसकी हमें सचमुच ज़रूरत है? अथवा इसे हमारे मन-मस्तिष्क पर किसी खास नशे की तरह चस्पा कर दिया गया है?
मीडिया दर्शक की इसी भावात्मकता को ‘इनकैश’ करने का कार्य करती है। रामशरण जोशी लिखते हैं- ‘जब मीडिया का लक्ष्य केवल मनोरंजन करना और सूचना देना मात्र रह जाता है, तब सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक धरातल पर कई प्रकार की विकृतियाँ उभरने लगती हैं। मीडिया प्रत्येक कवरेज का मास प्रोडक्शन करने लगती है। वह प्रत्येक घटना को प्रोडक्शन और पैकेजिंग की नज़र से देखने लगती है। इतना भोग-सापेक्ष कार्य सोचने के लिए विवश करता है। समाचार चैनल पर की जाने वाली बहस का अंतहीन प्रसारण न किसी लक्ष्य पर पहुँचता है, न ही दर्शक को किसी प्रकार की विचारोत्तेजक सामग्री देता है। हर चैनल किसी एक खास दल का समर्थक है और अपनी किसी खास प्रतिबद्धता को दर्शाने के लिए ही बहस का इस्तेमाल करता है; जिसके प्रभाव और परिणाम से उसका कोर्ई सम्बन्ध नहीं होता। जैसे कहा जा रहा हो कि फैशन के दौर में गारंटी की इच्छा न करें।’
आज आधुनिकता का दौर है। महानता के सारे वृत्तांत नष्ट हो चुके हैं। महानता के वृत्तांत अब क्षण-भर में प्रोद्योगिकी और तकनीक के माध्यम से बनते और नष्ट हो जाते हैं। इसीलिए अब मीडिया हमारी प्राइवेसी का ही विस्तार हो गई है। सरकारी तंत्र के अनुसार भी अब कहीं भी कोर्ई प्राइवेसी नहीं हो सकती। आपकी हर गतिविधि अब तकनीक के माध्यम से देखी और जाँची जा रही है। जो कहा जा रहा है, उससे अलग जो नहीं कहा जा रहा, इस बात में दिलचस्पी ज़्यादा है। इसीलिए शब्द मुँह में डालकर कुछ कहलवाना है। क्योंकि मीडिया और राजनीति अब केवल मुँह हैं- कान और मस्तिष्क नहीं। हालाँकि इसमें कोर्ई संदेह नहीं कि मीडिया ने हमें एक विश्वग्राम में बदला है। मार्शल मैक्लुहान ने कहा था कि मीडिया के भीतर का कथ्य नहीं, बल्कि मीडिया खुद ही संदेश है। मैक्लुहान ने माना था कि यह मीडिया का भीतरी गुण नहीं, स्वयं उसका चरित्र है; जिससे वह स्वयं संदेश बन जाती है। वे इसके लिए लाईट-बल्ब का उदाहरण देते हैं, जिसके भीतर किसी भी ‘कंटेंट’ का अभाव होता है; पर फिर भी उसका सामाजिक प्रभाव बहुत अधिक होता है। ठीक इसी तरह वे कहते हैं कि कथ्य का उतना महत्त्व नहीं होता, जितना मीडिया का! कथ्य का यह घटाव चिंता पैदा करता है। हम क्या चुनें और कैसे चुनें, इसका विवेक उत्पन्न होने से पहले ही हमारा सामना मीडिया के छितरे साम्राज्य से हो जाता है।
ऐसा नहीं कि सारा दोष मीडिया का है अथवा मीडिया में सब कुछ नकारात्मक ही है। ऐसा कहना और समझना दोनों ही विवेकहीनता के परिचायक होंगे। जिस तरह लोकतंत्र में खामियों की लम्बी फेहरिस्त होने के बावजूद अराजकता को उसका विकल्प कभी नहीं माना जा सकता, ठीक उसी तरह मीडिया में समस्याएँ होने के बावजूद उसके बिना जीना सम्भव नहीं है। अपने ही कुएँ के भीतर आदमी जी नहीं सकता। मीडिया अपने डैनों के भीतर ज़रूरी और ग़ैर-ज़रूरी दोनों पक्षों को लेकर खड़ी है; ज़रूरत है सिर्फ चयन के विवेक की। बालमन अभी कल्पना के पंखों की उड़ान भी नहीं भर पाता कि हत्या और लूटमार से भरे खेलों से उसका परिचय मीडिया उपकरणों के माध्यम से हो जाता है। खेल के मैदान में थकने की बजाय वह उस अनजान दुनिया में ‘विरोधियों’ से लड़ता है; सबको खत्म करता है और एक झूठी वर्चुअल दुनिया का शहंशाह बन जाता है। विवेक उत्पन्न होने से पहले वह उन सभी सूचनाओं को पा लेता है, जिसके सही और गलत के बीच का अंतर वह नहीं जानता। परिणाम हम सब जानते हैं। अब मैट्रो के सफर में पुस्तकें नहीं दिखतीं, मोबाइल में डूबी आँखें दिखती हैं; नेट-फ्लिक्स की िफल्में दिखती हैं। मीडिया के पास दोनों कंटेंट हैं- हॉट भी और कूल भी। हॉट माध्यम में ज़्यादा मानसिक परिश्रम नहीं करना पड़ता; जबकि कूल माध्यम के लिए अधिक मेहनत करनी पड़ती है। मैक्लुहान कहते हैं कि एक व्याख्यान संगोष्ठी की तुलना में कम भागीदारी के लिए बनता है और एक किताब से कम के लिए एक संवाद। चयन तो हमारा ही होगा, पर देखने और दिखाने वाले दोनों पर उसका दायित्व बोध भी तो आ जाए।
जिस तरह लोकतंत्र विवेकशील जनता की मांग करता है, मीडिया भी सजग और सचेत दर्शक की माँग अवश्य करती है। हम भूल नहीं सकते कि ऐसे अनेक मामलों में मीडिया के सजग हस्तक्षेप ने सकारात्मक भूमिका निभाई है, जहाँ उम्मीद लगभग खत्म हो चुकी थी। परन्तु साथ ही यह भी सत्य है कि मीडिया ट्रायल को ही निर्णय न बना दिया जाए, बल्कि थोड़ा ठहरकर विचार किया जाए। आर्थिक दबावों ने मीडिया के चरित्र को भी बदला है, पूँजीवादी विश्व
अर्थव्यवस्था की छाप अब हर जगह है। टीआरपी की लड़ाई भी है। परन्तु दायित्व भी उतना ही बड़ा है; जि़म्मेदारी भी उतनी ही बड़ी है। सब कुछ आए, पर सजग हस्तक्षेप की इच्छा से; हंगामे-भर के लिए नहीं। दुष्यंत कुमार की पंक्ति याद आ गई- ‘सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए’। एक सजग लोकतंत्र, सजग मीडिया और सजग जनता ही कुछ बदल सकते हैं; रच सकते हैं। इस शक्ति को मीडिया पहचाने और तोप के सामने अखबार निकालने की सदिच्छा, जो अकबर इलाहाबादी ने की थी; वह आज भी पूरी होती रहे।