रीटेल में एफडीआई- यानी विदेशी किराना- को लेकर संसद में चली बहस के बीच बीजेपी की यह शिकायत वाजिब है कि संसद के दोनों सदनों में हुए ज्यादातर भाषण खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के खिलाफ थे, लेकिन सरकार की जोड़-तोड़ ने दोनों सदनों में बहस का नतीजा बदल कर रख दिया. लेकिन क्या खुद बीजेपी खुदरा बाजार में विदेशी निवेश के खिलाफ है? यह याद दिलाने की जरूरत नहीं कि पिछले 20 वर्षों में लगभग सारी राजनीतिक धाराओं ने पूंजी की ताकत के आगे शर्मनाक ढंग से आत्मसमर्पण किया है, चाहे वह देसी हो या विदेशी. 1996 में महज 13 दिन रही बीजेपी की अल्पमत सरकार ने जो गिने-चुने फैसले किए उनमें महाराष्ट्र में एनरॉन की उस बिजली परियोजना को हरी झंडी दिखाने का काम भी शामिल था जिसे खुद बीजेपी हिंद महासागर में दफन कर देने का जोशीला वादा किया करती थी. उसी साल संयुक्त मोर्चा की सरकार के वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने 1991 में मनमोहन सिंह की अपनाई उदारीकरण की नीति को और जोर-शोर से आगे बढ़ाया. 1998 में भारतीय जनता पार्टी जब एनडीए के साथ फिर सत्ता में आई तो उसने अपने राजनीतिक मुद्दों की तरह अपने आर्थिक मुद्दे भी छोड़ दिए- स्वदेशी और स्वदेशी जागरण मंच को भूल कर खुले बाजार की नीति अख्तियार कर ली.
1991 से 1998 के उसी दौर ने यह साबित कर दिया कि भारत में चाहे जो भी सरकार आए, पूंजी के हरकारों को डरने की जरूरत नहीं है. सरकारों का राजनीतिक एजेंडा भले इधर-उधर हो, आर्थिक एजेंडा बिल्कुल एक रहेगा. एनरॉन ने अपने बजट में अपने विरोधियों को समझाने के लिए बाकायदा 20 करोड़ डॉलर की रकम रखी थी. आने वाले दिनों में दूसरी कंपनियों ने भी यह समझदारी दिखाई होगी, इसमें किसको शक है?
दरअसल एफडीआई की यह बहस नए सिरे से याद दिलाती है कि हमारा लगभग पूरा राजनीतिक प्रतिष्ठान उदारीकरण के अर्थप्रवाह में बहने को तत्पर है. किसान-मजदूर और छोटे दुकानदार उसका राजनीतिक एजेंडा भर बनाते हैं, आर्थिक एजेंडा थैलीशाह तय करते हैं. सत्ता में रहते हुए बीजेपी एफडीआई की वकालत करती है और विपक्ष में बैठी कांग्रेस उसके खिलाफ नोटिस देती है, लेकिन सत्ता पलटते जैसे भूमिकाएं पलट जाती हैं. अगर यह सच नहीं होता तो मौजूदा बहस के आधार पर कोई भी विदेशी कंपनी भारत में निवेश को तैयार नहीं होती. उसे लगता कि अगर सरकार बदली तो उसके हितों पर असर पड़ेगा. लेकिन वॉलमार्ट और उस जैसी दूसरी कंपनियों को मालूम है कि अगर 2014 में बीजेपी सत्ता में आ भी गई तो उनकी दुकानें चमकती रहेंगी, उनके हित सुरक्षित रहेंगे, उनके बनाए कोल्ड स्टोरेज में बीजेपी का राजनीतिक एजेंडा भी कहीं पड़ा रहेगा.
यह एक खतरनाक परिदृश्य है. मामला सिर्फ खुदरा बाजार में विदेशी पूंजीनिवेश का नहीं है, उस पूरे अर्थतंत्र की नई जकड़बंदी का है जो हमारी राजनीतिक व्यवस्थाओं से बेपरवाह जानती है कि भारत में उसका अश्वमेध पूरा हो चुका है. वह मनचाहे फैसले करवाती है, मनचाहे तर्क गढ़वाती है और मनमाने ढंग से अपने अधिकारों की व्याख्या करती है. यह देखना कहीं ज्यादा दुखद है कि सिर्फ कांग्रेस जैसी मध्यमार्गी या बीजेपी जैसी दक्षिणपंथी पार्टियां ही इसकी चपेट में नहीं हैं, सामाजिक न्याय का झंडा बुलंद करने वाली तथाकथित समाजवादी धारा के राजनीतिक दल भी इसके शिकार हैं. संसद में लालू यादव एफडीआई के साथ दिखे, मुलायम ने वोट से अलग रह कर सरकार का साथ दिया और मायावती ने राज्यसभा में यह सुनिश्चित किया कि सरकार की हार न हो.
1991 से 1998 के उसी दौर ने यह साबित कर दिया कि भारत में चाहे जो भी सरकार आए, पूंजी के हरकारों को डरने की जरूरत नहीं है
अब इस पूरी प्रक्रिया के आगे विदेशी किराने के फायदे और नुकसान वाली बात बेमानी लगती है. विदेशी किराना आएगा तो किसानों को फायदा होगा, क्योंकि बिचौलिए हट जाएंगे, यह तर्क उदारीकरण के बिल्कुल शुरुआती दिनों की याद दिलाता है जब कहा जाता था कि कोटा और इंस्पेक्टर राज खत्म होने से भ्रष्टाचार भी रुकेगा. मगर आज कोटा और इंस्पेक्टर राज की मामूली रिश्वतखोरी भ्रष्टाचार के खौफनाक आयामों में बदल चुकी है. फिर वॉलमार्ट अगर भारत में दुकानें खोलने की अर्जियां डाल रहा है तो उसके बिचौलिये यहां पहले से सक्रिय हो चुके होंगे जो उसके आने की बाधाएं कम करेंगे.
इसके समानांतर जो लोग यह तर्क दे रहे हैं कि विदेशी किराना किसानों को और मजबूर और नौजवानों को और पस्तहाल छोड़ देगा, वह पूरे देश को सेल्समैनों का देश बनाकर रख देगा, क्या उन्हें वाकई किसानों, नौजवानों और देश की फिक्र रही है? दरअसल विदेशी पूंजी से पहले देसी पूंजी बड़े ठाठ से और कुछ ज्यादा निर्मम तरीके से यह काम कर रही है, यह समझना हो तो सेज और दूसरी विराटकाय परियोजनाओं के नाम पर उजाड़े और बेदखल किए जा रहे समुदायों की हकीकत देखनी चाहिए.
दरअसल उदास करने वाली एक बड़ी सच्चाई यह है कि हम सब इस नए दौर में एक बेशर्म किस्म की उपभोक्तावादी संस्कृति के आदी हो चुके हैं. बाजार अपनी जरूरत के हिसाब से माल बना रहा है और हमारी जरूरत बता कर हमें बेच दे रहा है. विदेशी कंपनियां इसलिए भी भारत आने को तैयार हैं कि उन्हें यह नजर आ रहा है कि एक हड़बड़ाया हुआ भारतीय मध्यवर्ग अपने डेबिट-क्रेडिट कार्ड लिए, अपनी चेकबुक लिए जैसे सब कुछ खरीदने पर आमादा है. भारत की संसदीय राजनीति ने यों ही खाने और दिखाने के दांत अलग-अलग नहीं कर लिए हैं, उसे भी पता है कि बाजार में एक बार माल आएगा तो देसी-विदेशी पूंजी का, मजदूर-किसान हित का सवाल पीछे छूट जाएगा. दरअसल यह संसद एक अधूरे भारत के हितों की प्रतिनिधि रह गई है और इसके लिए एक बड़े भारत को वह बस अपने उपनिवेश की तरह इस्तेमाल कर रही है.