मौज़ूदा और पूर्व सांसदों, विधायकों और जनप्रतिनिधियों पर दर्ज मामलों में धीमा जाँच और अनावश्यक देरी पर पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने तल्ख़ टिप्पणी की है। इन मामलों में पुलिस के रुख़ पर नाराज़गी जताते हुए दोनों राज्यों के पुलिस महानिदेशकों को फरवरी में होने वाली सुनवाई के दौरान निजी तौर पर पेश होकर पूरी स्थिति स्पष्ट करने का आदेश दिया।
न्यायालय के अनुसार, आख़िर पूर्व और मौज़ूदा सांसदों और विधायकों के ख़िलाफ़ जाँच तय समय में पूरी क्यों नहीं हो पा रही है। ये जनप्रतिनिधि क्या आम लोगों से अलग है? जब क़ानून सभी के लिए बराबर है, तो फिर इनके मामलों में अनावश्यक देरी की कुछ तो वजह होगी। सरकारी अधिकारी या कर्मचारी के ख़िलाफ़ मामलों में सरकारी स्तर पर मंज़ूरी तय समय में हासिल कर ली जाती है, तो फिर जनप्रतिनिधियों के मामले में लम्बा समय क्यों लगता है। विभिन्न राज्यों में मौज़ूदा और पूर्व सांसदों-विधायकों के ख़िलाफ़ दर्ज मामलों में लेट-लतीफ़ी पर सर्वोच्च न्यायालय ने कड़ा रुख़ अपनाया था। देश के सभी राज्यों के उच्च न्यायालयों से अपने अधिकार क्षेत्र के ऐसे मामलों की पूरी सूची उपलब्ध कराने का निर्देश दिया गया था। इसे देखते हुए पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने स्वत: संज्ञान के आधार पर वर्ष 2021 में इस मामले की सुनवाई शुरू की। तब पंजाब में 96 पूर्व और मौज़ूदा सांसदों-विधायकों पर प्राथमिकी दर्ज थी। तब तक 12 प्रतिशत मामलों का ट्रायल भी नहीं हुआ था और 88 प्रतिशत मामलों की जाँच जारी थी। कुल 163 में से 118 मामलों की जाँच ही चल रही थी। लगभग दो साल के बाद स्थिति में कुछ सुधार ज़रूर हुआ है; लेकिन जनवरी 2023 में सुनवाई के दौरान उच्च न्यायालय ने अपनी टिप्पणी में इसे असंतोषजनक पाया।
न्यायालय ने कहा कि दोनों राज्यों की ओर से पेश किये गये हलफ़नामे में बहुत कुछ स्पष्ट नहीं था, जबकि उन्हें पूरी स्टेट्स रिपोर्ट पेश करने को कहा गया था। बार-बार समय माँगने और स्थिति पूरी तरह से स्पष्ट नहीं करना बिलकुल $गलत है। टिप्पणी में कहा गया कि आख़िर जनप्रतिनिधियों से जुड़े मामले अन्तिम निष्कर्ष पर क्यों नहीं पहुँच पा रहे हैं? हलफ़नामे में जो कुछ बताया गया है, वह हक़ीक़त में तर्कसंगत क्यों साबित नहीं हो रहा। फरवरी में होने वाली सनवाई के दौरान पंजाब के पुलिस महानिदेशक को जनप्रतिनिधियों से जुड़े मामलों की न केवल पूरी सूची और स्थिति के बारे में बताना होगा, बल्कि उन कारणों का भी हवाला देना होगा; जिसके चलते जाँच अधूरी है। पंजाब में पूर्व और मौज़ूदा सांसदों-विधायकों के लगभग 99 मामले विभिन्न अदालतों में चल रहे हैं; जबकि 42 मामलों की जाँच चल रही है, जबकि हरियाणा में 11 ऐसे मामले लम्बित हैं। जनप्रतिनिधियों के ख़िलाफ़ दर्ज मामलों की बढ़ती संख्या, राज्य सरकारों, राज्य पुलिस और जाँच एजेंसियों की निष्क्रियता पर सर्वोच्च न्यायालय ने कड़ा संज्ञान लिया था। विभिन्न राज्यों से सूचियाँ मिलने के बाद कुछ राज्यों के उच्च न्यायालयों ने निर्देश और मामले की गम्भीरता को देखते हुए कड़ा रुख़ अपनाने पर मजबूर कर दिया है।
ऐसे मामलों में जाँच किस तरह से होती है, इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। हरियाणा में ऐसे ही जनप्रतिनिधि के ख़िलाफ़ वर्ष 2005 में नौकरी के लिए चयन में अनियमितताओं और धोखाधड़ी का मामला दर्ज हुआ, जबकि यह संदर्भ 2001-2002 का था। यानी तीन साल से ज़्यादा प्राथमिकी दर्ज करने में ही लग गया। इस मामले की जाँच में ही बरसों लग गये, ज़ाहिर है लम्बे समय तक अदालतों में भी चलेगा। जनप्रतिनिधियों के ख़िलाफ़ दर्ज मामलों में ज़्यादातर की जाँच राज्य पुलिस की एजेंसियाँ ही कर रही है, इसलिए पुलिस की भूमिका पर सवाल उठना लाज़िमी ही है। पर क्या सभी मामलों मे पुलिस ही एकमात्र निर्णायक की भूमिका में होती है। बहुत-से मामलों में पुलिस को मामला दर्ज करने से पहले सरकारी मंज़ूरी लेनी पड़ती है। ऐसी अड़चनों के चलते कुछ मामलों में देरी हो सकती है; लेकिन आपराधिक मामलों में पूरे साक्ष्य मिलने के बाद भी जाँच सुस्त रफ़्तार से चलती है, तो संदेह होना स्वाभाविक ही है।
पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय की तल्ख़ टिप्पणी पुलिस और सरकारी सिस्टम पर है। इसमें सुधार करना ही होगा, शायद इसीलिए न्यायालयों की टिप्पणियाँ काफ़ी तल्ख़ होती हैं। पंजाब में एक पूर्व विधायक के ख़िलाफ़ जाँच पूरी हो गयी; लेकिन ट्रायल के लिए गृह मंत्रालय से मंज़ूरी लेनी पड़ी। ऐसे ही जनप्रतिनिधि सिमरजीत सिंह बैंस और उनके भाई बलविंदर सिंह बैंस के ख़िलाफ़ विभिन्न मामलों में एक दर्ज़न के क़रीब प्राथमिकियाँ दर्ज हैं। जनप्रतिधियों के ख़िलाफ़ देशद्रोह जैसी संगीन धाराओं के तहत दर्ज मामले की जाँच चल ही रही है, किसी निष्कर्ष पर कब पहुँचेगी क्या पता?
हर राज्य में पूर्व या मौज़ूदा सांसदों और विधायकों पर मामले दर्ज होते हैं। इनमें काफ़ी कुछ राजनीतिक भी होते हैं। मामला बहुत संगीन न हो, तो उनकी जाँच राज्य पुलिस ही करती है। विरोधी को सबक़ सिखाना हो, तो सरकार का समर्थन होने पर ऐसे मामलों की जाँच त्वरित गति से चलती है और तय समय में सब कुछ हो जाता है; लेकिन यही बात सत्तापक्ष से जुड़े किसी जनप्रतिनिधि के ख़िलाफ़ हो तो जाँच की दिशा और दशा क्या होगी? इसे समझना ज़्यादा मुश्किल नहीं है।
पंजाब सरकार ने अपने हलफ़नामे में कहा है कि राज्य के पूर्व और मौज़ूदा सांसदों-विधायकों पर 99 मामले राज्य की अलग-अलग अदालतों में लम्बित हैं। 42 मामलों में जाँच जारी है, जिसे जल्द पूरा किया जाएगा। उच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि फरवरी में होने वाली अगली सुनवाई के दौरान अगर दोनों राज्यों के पुलिस महानिदेशकों ने माँगी गयी पूरी जानकारी उपलब्ध नहीं करायी, तो दोनों राज्यों पर भारी ज़ुर्माना भी लगाया जा सकता है।
वहीं हरियाणा की तरफ़ से स्टेट विजिलैंस ने बताया कि पहले प्रदेश में 12 पूर्व और मौज़ूदा सांसदों-विधायकों के ख़िलाफ़ आपराधिक मामले विचाराधीन हैं। इसमें एक और मामला जुड़ गया है। इनमें पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला, भूपेंद्र सिंह हुड्डा, पूर्व विधायक रामकिशन फौजी विनोद भ्याना, जरनैलसिंह, नरेश सेलवाल, राव नरेंद्र सिंह, रामनिवास, धर्मपाल छोक्कर, सुखबीर कटारिया और बलराज कुंडू आदि हैं। इसी तरह पंजाब में पूर्व और मौज़ूदा विधायकों के ख़िलाफ़ मामलों की सूची में सुखबीर बादल, रवनीत सिंह विट्टू, सुखपाल सिंह खैरा, सुच्चा सिंह लंगाह, प्रेम सिंह चंदूमाजरा, सिकंदर सिंह, मोहन लाल, गुलजार रणिके, वीर सिंह लोपोके, बिक्रम सिंह मजीठिया और परमिंदर सिंह ढीढसा प्रमुख हैं।
सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार राज्य सरकारें अब पहले की तरह जनप्रतिनिधियों पर दर्ज मामले आसानी से वापस नहीं ले सकेंगी। इसके लिए केंद्र सरकार को राज्यों में विशेष अदालतें गठित करने के लिए धन मुहैया कराने का भी निर्देश है; लेकिन इसे अभी तक पूरी तरह से अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका है। पंजाब और हरियाणा में ही नहीं, बल्कि कई राज्यों में जनप्रतिनिधियों के ख़िलाफ़ मामलों में सम्बन्धित पुलिस और एजेंसियाँ ढीला रुख़ अपनाये हुए हैं। झारखण्ड में दर्ज ऐसे मामलों की जाँच पाँच साल से जारी है, जबकि सामान्य मामलों में ऐसा नहीं होता। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय की फटकार केवल पुलिस को नहीं, बल्कि अपरोक्ष तौर पर राज्य सरकार को भी है; क्योंकि पुलिस सरकार के नियंत्रण में ही है। जहाँ तक बात केंद्रीय एजेंसियों की है, उनकी जाँच राज्य की एजेंसियों के मुक़ाबले काफ़ी बेहतर रही है।
बढ़ते मामले, धीमी जाँच
पूर्व और मौज़ूदा सांसदों-विधायकों के ख़िलाफ़ कुल 3096 मामले दर्ज हैं। इनमें से लगभग 962 मामले लगभग पाँच साल से लम्बित चल रहे हैं। इन मामलों की जाँच सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय और एनआईए आदि कर रही हैं। सबसे ज़्यादा लम्बित मामलों में प्रवर्तन निदेशालय के हैं।
पाँच साल से ज़्यादा समय से लम्बित मामलों में ओडिशा ऊपर है। वहाँ 454 में से 323 का यह हाल है। महाराष्ट्र में कुल 482 में से 169, दिल्ली में कुल 93 में 27 ऐसे मामले हैं। महाराष्ट्र में ऐसे मामलों की संख्या 482, इसके बाद ओडिशा 454, केरल 384, मध्य प्रदेश 329 और तमिलनाडू में 260 हैं।
न्यायालय ने दिखायी सख़्ती
पंजाब और हरियाणा ने जिस तरह से पूर्व और मौज़ूदा सांसदों-विधायकों पर दर्ज मामलों में क़ा रुख़ अपनाया है उसे देखते हुए जल्द ही दोनों राज्यों की सरकारें इस दिशा में सक्रिय होंगी। राज्य स्तर पर होने वाली जाँचों में न केवल तेज़ी आएगी वरन जाँच के बाद ट्रायल के लिए ज़रूरी मंज़ूरी के लिए गम्भीर प्रयास किये जाएँगे। उच्च न्यायालय के दोनों राज्यों के पुलिस महानिदेशकों को ही पेश होने के समन नहीं समझा जाना चाहिए। यह दोनों राज्य सरकारों को भी एक तरह से नसीहत है।
चंडीगढ़ केंद्र शासित प्रदेश है। लिहाज़ा यहाँ के पुलिस महानिदेशक को भी अपने क्षेत्र से जुड़े मामलों की स्टेट्स रिपोर्ट आगामी सुनवाई के दौरान दाख़िल करनी है। जनप्रतिनिधियों के ख़िलाफ़ बढ़ते मामले और लम्बित जाँच गम्भीर मामला है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर जिस तरह से पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने कड़ा रुख़ अपनाया है उसे देखते हुए अन्य राज्यों में निकट भविष्य में हलचल हो सकती है। बरसों से बचते आ रहे कई जनप्रतिनिधि अब कठघरे में आएँगें।