ग़ुलामी का षड्यंत्र

यह कोई नयी बात नहीं है कि कुछ चालाक और शातिर लोग दूसरे इंसानों को ग़ुलाम समझते हैं और उसी तरह उनका इस्तेमाल करते हैं। सियासत को व्यापार समझने वाले लोग इस तरह की ग़ुलाम व्यवस्था के सबसे बड़े पैरोकार होते हैं। यह ग़ुलामी धर्म, भाषा, जाति, क्षेत्र और शिक्षा के आधार पर तय की जाती है। दुर्भाग्यवश हिंदुस्तान में इस ग़ुलामी की पराकाष्ठा सदियों-सदियों रही है। इन दिनों भी राजनीतिक पार्टियों द्वारा इसी तरह की कोशिशें आम जनता के ख़िलाफ़ लगातार की जा रही हैं, ताकि इन पार्टियों की सत्ता लगातार बनी रहे।

सदियों से चली आ रहे इस ग़ुलामी के षड्यंत्र को आज तक लोगों से इस तरह छिपाकर रखा गया है जैसे आभूषणों को किसी पात्र में भरकर मनों मिट्टी के अंदर दबाकर रखा जाता है, ताकि किसी को उसकी भनक तक न लग सके। इस ग़ुलामी को बरक़रार रखने के लिए शब्दों के जाल बुने गये हैं और इन्हीं शब्दों की जादूगरी से आम लोगों को मानसिक ग़ुलाम बनाकर रखा जाता है, ताकि वे शारीरिक ग़ुलामी को सहज ही स्वीकार कर लें। आम लोगों को ग़ुलाम बनाने की कोशिश में लगे ये आका किस तरह शब्दों की जादूगरी करते रहे हैं, सबसे पहले इस बारे में बताना ज़रूरी होगा।

दरअसल, पूरी दुनिया में अंग्रेजी के दो शब्दकोश हैं; एक है- ‘ब्लैक लॉ डिक्शनरी’ जिसका उपयोग शासक यानी गवर्नमेंट के लिए किया जाता है। गवर्न यानी शासन करना, मेंट यानी माइंड पर यानी मन, मस्तिष्क को कन्ट्रोल करने वाला। इसी व्यवस्था में आज पूरी दुनिया चल रही है। बड़े-बड़े बुद्धिजीवी भी इस ग़ुलामी की छत के नीचे रहकर भी ख़ुद को बुद्धिजीवी समझते हैं, जबकि सच यह है कि वे सोयी हुई ग़ुलाम जनता को जगाने में नाकाम ही दिखते हैं।

बहरहाल गवर्नमेंट शब्द की गहराई के बारे में जानने वाले आज पूरी दुनिया में न के बराबर ही लोग हैं। क्योंकि समान्य स्तर पर आमजन को इसकी शिक्षा नहीं दी जाती है। इसके अलावा एक दूसरी डिक्शनरी है- ‘ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी’, जो कि आम लोगों को पढ़ायी जाती है और साथ में यह कहा जाता है कि इससे बढिय़ा डिक्शनरी अंग्रेजी की कहीं नहीं है। लेकिन आम लोग नहीं जानते कि यह डिक्शनरी ग़ुलामी की ज़ंजीरों में बाँधने के लिए है, जो बहुत कम और समझदार लोगों को ही ग़ुलामी की मानसिकता से बाहर निकलने देती है। शब्दों का मायाजाल समझने का प्रयत्न करें, तो पता चलता है कि एक ही शब्दों का अर्थ ‘ब्लैक लॉ डिक्शनरी’ में कुछ और होता है, जिससे कुछ चालाक लोगों ने तमाम आम लोगों तथा प्राकृतिक संसाधनों को क़ब्ज़े में लेकर सरकार रूप में संजोकर रखा है। उसी शब्दों का अर्थ ‘ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी’ में कुछ और होता है, जो आम लोगों को बताया जाता है, जिस कारण लोग उस प्रभाव से अलग सोचते भी नहीं और ग़ुलामी को ही स्वतंत्रता मान कर बैठे होते हैं।

उदाहरण के लिए एक शब्द अंडरस्टैंड (understand) का अर्थ ब्लैक लॉ में मजिस्ट्रेट या पुलिस के आधीन स्वीकार करना है, जबकि सामान्य स्तर पर इसका अर्थ समझना होता है। दिमा$ग को झंकृत करने वाले शब्दों के मायाजाल का एक और उदाहरण स्पैल (spell) होता है, जिसका मतलब सामान्य जनों में उच्चारण समझा जाता है, वहीं शासन व्यवस्था में स्पैल का मतलब जादू है। इसी प्रकार डिलीवरी (Delivery) का मतलब सामान्य जनों को कोई चीज़ या उत्पाद प्राप्त होना समझाया गया है। किसी के द्वारा भेजी गयी कोई चीज़ देना या भेजना डिलीवरी के अर्थ में है। अब सोचना होगा कि डिलीवरी निर्जीव चीज़ों के लिए है, तो फिर जन्म लेने वाले शिशु को डिलीवरी क्यों कहा जाता है? डिलीवरी शब्द जीवित प्राणी के लिए है या एक निर्जीव (मृत) उत्पाद के लिए? यह कहाँ से आया? तुरन्त जन्मे बच्चे की आत्मा सामान के निशान लेकर कैपिटल लेटर में माँ नाम के साथ क्यों बनायी जाती है? जन्म यानी बर्थ, जो माँ के माध्यम से ही होता है, उसे मृत वस्तु से कैसे तौला जाए?

वास्तव में ग़ुलामी की शुरुआत बर्थ सर्टिफिकेट से लेकर वोटर आईडी, ड्राइविंग लाइसेंस आदि जितने पहचान पत्र गवर्नमेंट द्वारा जारी किये जाते हैं।

समझने की बात यह है कि ये सबके सब दस्तावेज़ एक तरह का समझौता यानी कॉन्ट्रैक्ट होते हैं, जो लोगों को उनकी पहचान के लिए दिये जाते हैं, ताकि पता चल सके कि आप कौन हैं? कहाँ से हैं? और क्या करते हैं? दरअसल यह एक सस्टुई क्वे वाई एक्ट-1666 (Cestui Que Vie Act-1666) के तहत उस समय के हुक्मरानों द्वारा शुरू कराया गया, ताकि लोगों को उनके धर्म, जाति, क्षेत्र और कार्य के आधार पर पहचाना जा सके। इससे पहले न तो किसी के पास उसकी पहचान का कोई दस्तावेज़ होता था और न ही जातिवाद, धर्मवाद इस क़दर हावी था कि लोग एक-दूसरे से उसकी जाति और धर्म देखकर व्यवहार करें।

इस मामले में द इंडियन एविडेंस एक्ट-1872 (The Indian Evidence Act-1872) कहता है कि किसी समझौते में दोनों पक्षों में सभी शर्तों के ख़ुलासे होने के बाद स्वीकृति दिनों पक्षों की हस्ताक्षर के साथ होनी चाहिए। परन्तु सरकार किसी को भी पूरी जानकारी किसी के साथ साझा नहीं करती और न ही किसी के दस्तावेज़ों पर अपनी कोई ऐसी सहमति देती है कि उसने दस्तावेज़ के रूप में कोई समझौता किया है, भले ही वह उस व्यक्ति की एक पहचान रखती है। इसलिए पूरा का पूरा समझौता एकतरफ़ा ही है और अमान्य माना जाना चाहिए है। लेकिन सरकार जानती है कि आज की तारी$ख में कोई भी व्यक्ति अपनी बिना पहचान के एक क़दम भी नहीं चल सकता, तो फिर उससे समझौता क्यों करना चाहिए? यानी आज के दौर में लोग इतने मजबूर हो चुके हैं कि उन्हें ख़ुद ही अपनी पहचान के दस्तावेज़ बनवाने पड़ते हैं, भले ही उसका कितना भी दुरुपयोग हो। दस्तावेज़ों के लिए हुए समझौते के आधार पर गवर्नमेंट की पूरी व्यवस्था से स्पष्ट होता है कि पूरी की पूरी व्यवस्था एक काल्पनिक (Fiction) है और एक तरह का झाँसा यानी फ्रॉड है। यह सारी व्यवस्था यूनिफॉर्म कॉमर्शियल कोड (Uniform Commercial Code) की तरह है। यूनिफॉर्म कॉमर्शियल कोड के अनुसार, पूरा विश्व तंत्र एचएम गवर्नमेंट (HM Government) नाम की एक कम्पनी के तहत होता है, जिसका ज़िक्र द इंडियन एविडेंस एक्ट-1872, ब्रिटिश नेशनलिटी एक्ट-1948  और अन्य कई जगहों पर मिलता है। ऐसा नहीं है कि इस व्यवस्था को चलाने वालों की पहचान के दस्तावेज़ नहीं बनते; लेकिन उनका दुरुपयोग होने का $खतरा कम ही होता है। वहीं आम लोगों के दस्तावेज़ों में सेंध लगना एक आम बात है।

हाल ही में एम्स में चोरी हुए चार करोड़ लोगों के डेटा की कहीं-न-कहीं यही कहानी है कि आम लोगों की गोपनीय जानकारी आजकल बन रहे दस्तावेज़ों में सुरक्षित नहीं है। $खासतौर पर आधार बनने और सोशल मीडिया के बाद तो यह और भी मुश्किल हो चुकी है। यह बात लोगों को नहीं बताकर सरकारें लीगल माइनर बनाकर ग़ुलामी के टोकनों के रूप इस्तेमाल करती हैं, क्योंकि विभिन्न दस्तावेज़ों के माध्यम से आम आदमी टैक्स, चालान, ज़ुर्माना आदि तो भरता ही है, कई अन्य तरी$कों से पैसा चुकाकर सरकार के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता रहता है कि उसे सरकार द्वारा सुरक्षा मिली हुई है। हालाँकि यह कोई नयी बात नहीं है, राजा-महाराजाओं के दौर में भी ऐसा ही होता था; लेकिन तब लोगों को पास दस्तावेज़ों के नाम पर उसके पिता का नाम और पहचान के लिए निवास वाली जगह का नाम हुआ करता था। और नागरिक के तौर पर राजा द्वारा जारी एक टोकन, जिसे मुद्रा या प्रमाण पत्र भी माना जाता था। सभी जीवित मानव जो इस पृथ्वी पर निवास कर रहे हैं, गवर्नमेंट पॉलिसी से अलग जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। हालाँकि बहुत-से आदिवासियों के साथ यह नियम लागू नहीं है। आज भी दुनिया में न जाने कितने ही लोग हैं, जिनकी पहचान का कोई दस्तावेज़ कहीं मौज़ूद नहीं है; लेकिन उन लोगों की गिनती किसी जानवर से ज़्यादा कहीं नहीं होती है, क्योंकि अगर अपनी पहचान रखनी है और आम समाज में रहना है, तो पहचान भी रखनी ही होगी।

लॉ फर्म एडमिलोर्टी लॉ एंड मेरीटाइम लॉ के अनुसार, सभी देशों की गवर्नमेंट ने आम लोगों को समुद्री कानूनों के तहत ग़ुलाम बना रखा है। लेकिन क्या इस ग़ुलामी से लोग कभी बाहर निकल सकेंगे? क्या लोग सरकारों की इस चाल को समझ सकेंगी। क्यों नहीं किसी को नौकरी करने के लिए एक पढ़ाई का सर्टिफिकेट ही पर्याप्त हो सकता? क्यों किसी को अपना सब कुछ बताने की ज़रूरत है? कानून के कुछ जानकार मानते हैं कि लोगों की पहचान के लिए उनका पता, पिता का नाम और उनका ख़ुद का नाम पर्याप्त हो सकता है, जिसके लिए उसके पास वोटर आईडी कार्ड ही पर्याप्त है। टैक्स देने के लिए अधिक से अधिक पैन कार्ड होना चाहिए। लेकिन अब लोगों को आधार भी रखना पड़ता है, जिसके अंदर आधार कार्ड धारक की पूरी की पूरी पहचान, उसका पेशा, उसकी आमदनी, उसके बैंक बैलेंस और न जाने किस-किस तरह की गोपनीय जानकारी तक का पता चल जाता है। इसी प्रकार राशन कार्ड की बात है, क्या उसके बगैर सबको राशन नहीं दिया जा सकता। लेकिन सरकार राशन कार्ड के माध्यम से यह उजागर कर देती है कि कौन महा$गरीब है? कौन गरीब है? कौन मध्यमवर्गीय है और कौन अमीर है। मेरे कहने का मतलब यह है कि इससे लोगों में गरीबी-अमीरी के भेदभाव की खाई बढ़ती है, जो एक उन्नत समाज के लिए ठीक नहीं है। आख़िरी सवाल, क्या कभी लोग इस ग़ुलामी के षड्यंत्र से बाहर निकल सकेंगे?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)