सऊदी अरब और दूसरे मुस्लिम देश अपने सख़्त क़ानूनों के लिए जाने जाते हैं। इन देशों में महिलाओं पर पाबंदियों की अक्सर चर्चा रहती है। आज भी कई मुस्लिम देशों में महिलाओं को पुरुषों की तरह खुलकर जीने के अधिकार नहीं हैं। वे परदे के बाहर भी नहीं आ सकतीं। लेकिन सऊदी अरब ने क़रीब पाँच साल पहले महिलाओं को स्टेडियम में बैठकर मैच देखने पर से पाबंदी हटायी थी और आज वहाँ महिलाएँ दुनिया की सबसे तेज़ चलने वाली बुलेट ट्रेन चलाएँगी।
इसके लिए सऊदी अरब रेलवे कम्पनी सार ने पिछले साल महिला पायलटों की भर्तियाँ निकाली थीं, जिसके लिए 28,000 महिलाओं ने आवेदन किया था। इन महिलाओं में से 32 महिलाओं की नियुक्ति हुई और अब उन्हें ट्रेनिंग देकर तैयार कर लिया गया है। बड़ी बात यह है कि ये महिलाएँ जो हाई स्पीड ट्रेन चलाएँगी, वो कोई मामूली ट्रेनें नहीं हैं, बल्कि दुनिया की सबसे तेज़ गति से चलने वाली ट्रेनें हैं। इन ट्रेनों में से एक का नाम हारमिआन एक्सप्रेस है, जिसकी रफ़्तार 300 किलोमीटर प्रति घंटे से लेकर 450 किलोमीटर प्रति घंटे तक है। ये ट्रेनें सऊदी अरब के पवित्र शहरों मक्का से मदीना के बीच में चलेंगी। इन्हें साल 2018 में लॉन्च किया गया था। सऊदी अरब में यह पहली बार होगा कि महिलाएँ बुलेट ट्रेन चलाने जा रही हैं और यह पश्चिम एशिया में भी पहली बार ही हुआ है। अभी तक पश्चिम एशिया में इतनी हाई स्पीड ट्रेनों को महिलाओं ने नहीं चलाया है। इससे यह साफ़ पता चलता है कि सऊदी अरब महिलाओं के प्रति सोच को बदल रहा है। हालाँकि इससे पहले से पूरी दुनिया में महिलाओं की हर क्षेत्र में एंट्री हो चुकी है; लेकिन मुस्लिम देश महिलाओं को आगे बढ़ाने के मामले में पीछे रहे हैं।
लेकिन सवाल यह है कि इस छूट से क्या मुस्लिम देश महिलाओं को छूट देंगे? क्या महिलाओं को पुरुषत्व की ग़ुलामी से मुक्ति मिल सकेगी? आज भारत में भी महिलाएँ क्या पूर्ण रूप से स्वतंत्र हैं? इस आधी आबादी को अभी पूर्ण स्वतंत्रता कब मिलेगी? कब अबला का सही मायने में नारी शक्ति का दर्जा मिलेगा और कब वह पुरुष प्रताडऩा से आज़ाद हो सकेगी? 21वीं सदी में महिलाओं की एंट्री सेनाओं से लेकर हवाई जहाज़ उड़ाने और अंतरिक्ष में परचम लहराने तक हुई है और आज महिलाओं से कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं रह गया है और उन्होंने हर कार्य क्षेत्र में अपना लोहा मनवाया है। लेकिन पुरुषों के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर चलने वाली महिलाओं के प्रति क्या लोगों का नज़रिया बदला है? क्या वे पूरी तरह सुरक्षित हैं?
सऊदी अरब की अगर बात करें, तो वहाँ पर महिलाएँ काफ़ी हद तक इस मायने में सुरक्षित हैं कि वहाँ महिलाओं से छेड़छाड़ करने वालों को कड़ी-से-कड़ी सज़ा दी जाती है। इससे भी बड़ी बात यह है कि वहाँ पर अपराधियों को सज़ा देने में ज़्यादा समय नहीं लगाया जाता है। न्याय देने के मामले में भारत जितना पीछे है, उससे यहाँ ज़्यादातर लोगों को क़ानून पर उतना भरोसा नहीं हो पाया है, जितना कि होना चाहिए। आज भी लाखों बलात्कार पीडि़ताएँ न्याय के लिए अदालतों के चक्कर लगा रही हैं। हाल ही में दिल्ली में एक युवती को कार से 12 किलोमीटर घसीटे जाने की घटना इस बात का सुबूत है कि भारत में अपराधी अदालतों और पुलिस की कार्रवाई से डरते नहीं हैं।
ऐसी ही कितनी ही घटनाएँ हैं, जिनके बारे में सोचने भर से रोंगटे खड़े हो जाते हैं। आख़िर किसके संरक्षण के चलते हमारे देश में अपराधों पर रोक नहीं लग पाती है? आज दुनिया भर के हर क्षेत्र में महिलाएँ सफलतापूर्वक काम कर रही हैं; लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि महिलाएँ अपने कार्यक्षेत्र में बाधाओं और प्रताडऩा से मुक्त हो चुकी हैं। पुलिस जैसे विभाग में महिला पुलिसकर्मियों की दुर्दशा के क़िस्से कितनी ही बार हमारे सामने आ चुके हैं। हर क्षेत्र में पुरुषों के समान अवसर हासिल होने के बावजूद उन्हें ज़्यादातर जगह पर भोग की वस्तु की नज़र से देखा जाता है। वर्क प्लेस पर महिलाओं को अपने करियर ग्राफ को बेहतर बनाने के लिए हर दिन अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। अगर वे अपने क्षेत्र में बहुत बेहतर प्रदर्शन भी करती हैं, तो उनकी तरक़्क़ी पुरुषों के मुक़ाबले काफ़ी कम होती है।
इसकी सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी उन महिलाओं की है, जो राजनीति में होते हुए भी महिलाओं के हित में क़दम नहीं उठाती हैं। केवल चुनावों के दौरान महिलाओं की तक़दीर का रोना रोने वाले नेता ही महिलाओं के सबसे बड़े शोषक बने हुए हैं। अदालतों और पुलिस को अपनी जेब में रखने वाले नेताओं के ख़िलाफ़ महिला नेता भी एक शब्द नहीं बोलतीं। कोई विरला उदाहरण किसी विपक्षी दल के नेता के ख़िलाफ़ हो, तो अलग बात है।
डॉक्टर सीमा कहती हैं कि अगर आप दफ़्तरों का रुख़ करें, तो महिलाओं के साथ भेदभाव करने और उन्हें सेक्स के लिए प्रोत्साहित करने के कितने ही मामले मिल जाएँगे। ज़्यादातर दफ़्तरों उन्हें तब तक प्रताडि़त और परेशान किया जाता है, जब तक कि वे अपने बॉस को अपना जिस्म नहीं सौंप देतीं। हालाँकि हर जगह ऐसा नहीं है; लेकिन तक़रीबन 35 से 40 फीसदी तक महिलाओं के साथ यह होता है कि वे सेक्स के लिए अपने सीनियर या सीनियर्स का आमंत्रण स्वीकार करें या कर रही हैं।
वूमन आइकॉन नेटवर्क नाम की संस्था ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि दफ़्तरों में प्रेग्नेंट महिला के साथ भेदभाव करना क़ानूनन जुर्म है। अगर कोई महिला प्रेगनेंसी में काम करना चाहती है, लेकिन उसे जबरन छुट्टी पर जाने के लिए बाध्य किया जाता है, तो इसे क्या कहा जाए?
सामाजिक कार्यकर्ता चेतना सिंह कहती हैं कि जिस तरह से घरों में महिलाओं के साथ छेड़छाड़ होती है, उसी तरह दफ़्तरों में भी उनके साथ किसी-न-किसी रूप में हर दिन छेड़छाड़ होती रहती है। यही वजह है कि महिलाओं में पहले से ज़्यादा बोल्डनेस आयी है और वे भी पुरुषों की तरह इसमें शामिल हो रही हैं। उनका ध्यान इस बात से बिलकुल हटने लगा है कि आख़िरकार वे एक महिला ही हैं और उन्हें सेक्स सम्बन्धी कुछ गोपनीय पहलुओं पर हर किसी से बात नहीं करनी चाहिए। गृहणी कल्पना शर्मा कहती हैं कि उनकी बेटी दो साल से नौकरी कर रही है। उसने एक लडक़े की कई बार शिकायत की, तब हमने उसके बॉस से शिकायत की, जिसके बाद मेरी बेटी पर ही कई तरह के आरोप लगने लगे। जैसे कि वह ख़ुद लडक़ों के मुँह लगती है, वग़ैरह-वग़ैरह। इसके बाद मेरी बेटी ने अपनी नौकरी बदल दी। अब वह वहाँ शान्ति से काम कर रही है।
गुजरात की कपड़ा मिलों में काम करने वाली लड़कियाँ और महिलाएँ अपने चरित्र को बमुश्किल ही बचाकर रख पाती हैं। हालाँकि बहुत-सी महिलाएँ और लड़कियाँ एक्स्ट्रा लव अफेयर में पड़ी हुई यहाँ मिल जाएँगी। फैक्ट्रियों में काम करने वाली महिलाओं और लड़कियों का भी यही हाल है।
दरअसल हर क्षेत्र में महिला कर्मचारियों की बढ़ती माँग ने पुरुषों के प्रति उनके झुकाव को भी हवा दी है। हालाँकि जहाँ का मैनेजमेंट सख़्त होता है, वहाँ यह सब नहीं चलता। लेकिन अगर मैनेजमेंट, बॉस या मालिक ही ख़राब हों, तो उनसे टक्कर लेना महिला कर्मचारियों के लिए भारी पड़ता है, जिसके आगे बहुत-सी महिलाएँ सरेंडर कर देती हैं और यह सोचकर कि यह सब तो चलता है, अपने को उसी आग में झोंक देती हैं, जिसके लिए उन्हें समाज का एक बड़ा पुरुष वर्ग देखता है। ऐसे में महिलाओं के लिए अच्छे मैनेजमेंट वाली कम्पनियों में नौकरी ढूँढना एक चुनौतीपूर्ण विषय है।
जिस्मानी तौर पर सुरक्षा के अलावा महिलाओं के लिए पुरुषों के समान वेतन पाने की चुनौती भी हमेशा बनी रहती है। लीडरशिप का मौक़ा भी उनके पास कम ही होता है। अगर कहीं महिलाओं को लीडरशिप का मौक़ा मिल भी जाता है, तो वहाँ वो अपने जूनियर पुरुष को भी वर्चस्व वाला मान लेती हैं, क्योंकि वे पहले से ही समर्पण के भाव से घिरी होती हैं, जो उन्हें संस्कारों में घर के अंदर से ही परोस दिया जाता है। हालाँकि हर महिला इस तरह की नहीं होती। कई महिलाएँ लीडरशिप हाथ में आते ही उसी लहज़े से लवरेज हो जाती हैं, जो किसी लीडर पुरुष का होता है। भारत में तो राष्ट्रपति भी इस समय एक महिला ही हैं। इससे पहले भी महिला राष्ट्रपति और महिला प्रधानमंत्री हमारे देश में रही हैं; लेकिन सवाल फिर वही है कि क्या इससे सही मायने में महिलाओं को सुरक्षा और सशक्तिकरण मिल सका है? कार्यस्थल पर यौन उत्पीडऩ के कितने ही मामले हर रोज़ होते होंगे; लेकिन ज़्यादातर महिलाएँ इसे हर रोज़ की गतिविधि मानकर इसे सहज स्वीकार कर लेती हैं। यही महिलाओं की सबसे बड़ी कमी होती है।
उनकी दूसरी कमी यह होती है कि वो उन कुलिग पुरुषों से कम बात करती हैं, जो सीधे और अच्छे होते हैं, कम बात करते हैं और काम पर ध्यान देते हैं। महिलाओं को ध्यान रखना चाहिए कि उनके इस प्रवृत्ति के पुरुष सहकर्मी महिलाओं के सम्मान और उनकी गरिमा का ख़याल रखते हैं। उनके साथ ही महिलाओं को तालमेल बिठाना चाहिए, क्योंकि ऐसे पुरुष उनकी मदद भी करने में अपना कोई लालच नहीं देखते, ताकि उनकी बेहतर मदद हो सके।