पानी से लेकर ज़मीन तक पर बढ़ते जा रहे प्लास्टिक से पनप रहीं कई बीमारियाँ
आज दुनिया में कोई घर ऐसा नहीं होगा, जिसमें प्लास्टिक का इस्तेमाल नहीं होता हो। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं, जो प्लास्टिक का इस्तेमाल नहीं करता हो। कह सकते हैं कि आज हर ख़ास और आम प्लास्टिक का उपयोग कर रहा है। इंसानी ज़िन्दगी में यह अब ज़रूरी वस्तु बन चुकी है। आज शहरों से लेकर गाँवों तक यह प्लास्टिक किसी महामारी की तरह बढ़ता जा रहा है। लेकिन प्लास्टिक हमारे वातावरण के लिए कितनी घातक है, इसका अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि इसके नुक़सान इंसानों को ही नहीं, जानवरों, पेड़-पौधों और फ़सलों को भी हो रहे हैं।
खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) ने एक रिपोर्ट में कहा है कि कृषि उत्पादों से जुड़ी सप्लाई चेन में हर साल क़रीब 1.25 करोड़ टन प्लास्टिक का उपयोग किया जाता है। जबकि फ़सल उत्पादन और पशुधन प्रति वर्ष 1.2 करोड़ टन प्लास्टिक उपयोग कर रहा है। इसके अलावा खाद्य उत्पादों के भण्डारण और पैकिंग में हर साल क़रीब 3.73 करोड़ टन प्लास्टिक का उपयोग किया जाता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि इसके अलावा मछली पालन में हर साल क़रीब 21 लाख टन प्लास्टिक का इस्तेमाल होता है। जबकि जंगलों और वन सम्बन्धित गतिविधियों में हर साल क़रीब दो लाख टन प्लास्टिक का उपयोग किया जाता रहा है। प्लास्टिक की पैकिंग के चलते खाद्य पदार्थ और उससे ज़्यादा पेय पदार्थ नुक़सानदायक हो जाते हैं। आज कई बीमारियाँ ऐसी हैं, जो प्लास्टिक जनित हैं। इन बीमारियों में अस्थमा, पल्मोनरी कैंसर और किडनी और लीवर सम्बन्धी बीमारियाँ शामिल हैं। कई बार देखा गया है कि शहरों में घूमने वाली गायों के पेट से कई-कई किलो प्लास्टिक निकाला गया है, जो कि सड़कों, नाले-नालियों से लेकर कूड़ा घरों तक फैली अनाप-शनाप फैली प्लास्टिक का ही नतीजा है।
दरअसल प्लास्टिक में सबसे घातक बिस्फेनॉल ए (बीपीए) टॉक्सिन (विषैला पदार्थ) पाया जाता है, जो कि पानी को सबसे ज़्यादा प्रदूषित करता है। जिस पानी में प्लास्टिक की मात्रा बहुत होगी, वहाँ पानी को साफ़ करने वाले जीव और वनस्पति तो मर जाते हैं और बीमारियाँ फैलाने वाले बैक्टीरिया पैदा हो जाते हैं, जिनमें मक्खी और मच्छर भी शामिल हैं। प्लास्टिक पेड़-पौधों के लिए बेहद घातक है। बावजूद इसके हमारे आसपास प्लास्टिक इतनी तेज़ी से जमा हो रहा है कि इसे हटाने और नष्ट करने के लिए अरबों रुपये का ख़र्चा होगा।
चिन्ता का विषय
प्लास्टिक आज कितनी बड़ी चिन्ता का विषय है, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि यह एक कभी नष्ट नहीं होने वाला पदार्थ है। लेकिन इस पर फ़िलहाल दुनिया के कुछ ही जागरूक लोग और विशेषज्ञ ध्यान दे रहे हैं, जो कि नाकाफ़ी है।
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की एक रिपोर्ट बताती है कि साल 2019 में एक टन प्लास्टिक की उत्पादन लागत क़रीब 1,000 डॉलर थी। एक रिपोर्ट बताती है कि भारत हर साल क़रीब 94.6 लाख टन प्लास्टिक कचरा जमा होता है।
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की एक रिपोर्ट बताती है कि हर साल क़रीब कई लाख करोड़ रुपये की प्लास्टिक उत्पन्न की जाती है। और अगर इस पर समय रहते प्रतिबंध नहीं लगाया गया, तो 2040 तक प्लास्टिक कचरा दुनिया में दोगुना हो जाएगा। प्लास्टिक की इस समस्या से निपटने के लिए डब्ल्यूडब्ल्यूएफ ने संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य देशों से एक वैश्विक सन्धि पर बातचीत शुरू करने का आग्रह किया है, ताकि 2030 तक महासागरों में बढ़ते प्लास्टिक प्रदूषण को रोका जा सके। वर्तमान में प्लास्टिक को कई कम्पनियाँ रीसाइकिल कर रही हैं। लेकिन विशेषज्ञ कहते हैं कि इससे कोई फ़ायदा नहीं; क्योंकि इससे प्लास्टिक कम नहीं होगा। इसकी पहली वजह यही है कि प्लास्टिक से प्लास्टिक ही तैयार होगा।
समुद्रों में जा रहा लाखों टन प्लास्टिक
आज हमारे देश के अधिकतर नदी-नाले प्लास्टिक की बोतलों और थैलियों से अटे पड़े हैं। नदियों की सफ़ाई तो यहाँ कोई करना ही नहीं चाहता, लेकिन अगर नालों को कभी-कभी साफ़ कर भी दिया जाता है, तो उनमें अगले ही दिन लोगों द्वारा फेंका गया प्लास्टिक फिर से जमा हो जाता है। हाल यह है कि लोग प्लास्टिक की थैलियों में पैक नमकीन, चिप्स, चॉकलेट और गुटका-तम्बाकू आदि खाकर, पानी और कोल्ड ड्रिंक्स पीकर बोतल आदि को कहीं भी फेंक देते हैं। एक रिपोर्ट बताती है कि हिन्दुस्तान की सैकड़ों नदियों के ज़रिये समुद्र में प्लास्टिक हर साल क़रीब 1,26,513 मीट्रिक टन प्लास्टिक पहुँच रहा है, जिसके चलते हर साल लाखों समुद्री जीव अपना जीवन गँवा रहे हैं।
स्वयंसेवी संगठन ओसियन क्लीनअप और उसके सहयोगियों द्वारा किये गये एक शोध में कहा गया है कि दुनिया के सभी समुद्रों में पहुँचने वाला 80 फ़ीसदी प्लास्टिक कचरा दुनिया की क़रीब 1000 से ज़्यादा नदियों के ज़रिये पहुँचता है। वहीं बाक़ी 20 फ़ीसदी प्लास्टिक कचरा क़रीब 30,000 नदियों के ज़रिये समुद्रों में पहुँच रहा है। यह हाल तब है, जब शहरों से लेकर गाँवों तक प्लास्टिक ही प्लास्टिक फैला हुआ है।
शहरों में तो कचरे के पहाड़ बन चुके हैं, जिनमें प्लास्टिक की मात्रा क़रीब 35 फ़ीसदी है। अनुमान जताया जाता है कि दुनिया के कचरे का अनुपात अगर निकाला जाए, तो एक आदमी क़रीब हर रोज़ 50 ग्राम तक ठोस प्लास्टिक कचरा पैदा करता है। हालाँकि दुनिया में बहुत-से लोगों ने प्लास्टिक से बिल्कुल दूरी बना रखी है, जो कि एक अच्छी बात है।
प्लास्टिक बना रोज़ी-रोटी का ज़रिया
वैसे तो आज दुनिया में लाखों लोगों की रोज़ी-रोटी का ज़रिया प्लास्टिक ही है, जिसमें सबसे निचले पायदान पर वो लोग आते हैं, जो प्लास्टिक कचरा बीनकर अपना पेट भरते हैं। ऐसे लोगों की संख्या क़रीब डेढ़ फ़ीसदी है। इन डेढ़ फ़ीसदी लोगों में 70 फ़ीसदी लोग नशा करने वाले होते हैं, जबकि बाक़ी 30 फ़ीसदी घर चलाने के लिए मजबूरन यह काम करते हैं, जिनमें महिलाओं और बच्चों की संख्या काफ़ी बड़ी है। कचरा बीनने वालों की दुनिया स्लम बस्तियाँ हैं, जहाँ पर लगभग एक-चौथाई लोग इसी को अपना रोज़गार बनाये हुए हैं। पिछले साल यानी 2021 के आख़िर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के सभी शहरों को कूड़ामुक्त बनाने के लिए स्वच्छ भारत मिशन शहरी यानी एसबीएम-यू 2.0 के दूसरे चरण की शुरुआत करने की बात कही थी। लेकिन धरातल पर इसका कोई असर नज़र नहीं आ रहा है।
सबसे बड़ी चुनौती नदियों की सफ़ाई
नदियों की सफ़ाई की बात अक्सर हिन्दुस्तान में सरकारी विज्ञापनों और ख़बरों के माध्यम से आती रहती हैं, लेकिन नदियों की सफ़ाई कभी नहीं हो पाती। इसकी कोई एक वजह नहीं है। इसमें सबसे बड़ी वजह है इच्छाशक्ति का अभाव। सरकारों द्वारा हर साल हज़ारों करोड़ रुपये का बजट नदियों की सफ़ाई के नाम पर पास किया जाता है और उस बजट का बंदरबाँट हो जाता है। हिन्दुस्तान में नदियों की सफ़ाई का कार्यक्रम साल 1985 में गंगा एक्शन प्लान के साथ शुरू हुआ था। तबसे लेकर आज तक हर साल करोड़ों रुपये नदियों की सफ़ाई के लिए बजट में पास किये जाते हैं; लेकिन नदियों में फैली गन्दगी जस-की-तस बनी रहती है।
नदियों की सफ़ाई के नाम पर कहीं-कहीं कभी-कभार कुछ लोगों को लगाकर कुछेक दिन सफ़ाई का काम चलता भी है, तो उसके नाम पर भी बंदरबाँट जमकर चलता है। नदियों की सफ़ाई के नाम पर सबसे ज़्यादा बजट गंगा को साफ़ करने के लिए पास किया जाता है।