केवल एक साल में दोगुने के आसपास पहुँचा कपास का भाव
फ़सलों पर बढ़ती लागत और अन्य समस्याओं से टूट रहे किसान
यह विडम्बना ही है कि भारत जैसे कृषि प्रधान देश में आज किसान तमाम समस्याओं से जूझ रहे हैं। अगर कपास की खेती करने वाले किसानों की बात करें, तो इस महत्त्वपूर्ण खेती से उनका मन ऊब रहा है। इसकी वजह साफ़ है- कपास की उपज में लागत ज़्यादा आ रही है और आमदनी कम हो रही है। कपास की पैदावार करने वाले किसानों को कहना है कि कपास में पाला पडऩे से लेकर कीड़ा लगने तक सरकार से कोई विशेष राहत पैकेज तक नहीं मिलता है। ऊपर से महँगाई इतनी कि खेती की लागत भी नहीं निकलती। ऐसे में बड़ी संख्या में कपास की खेती करने वाले किसान कपास की वैकल्पिक खेती करने लगे हैं।
कपास की खेती से जुड़े और उसके जानकार डॉ. अमित कुमार का कहना है कि गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश सहित कई राज्यों में कपास की खेती बड़े पैमाने पर होती रही है। लेकिन कोरोना-काल से लेकर कृषि क़ानूनों को लेकर चले किसान आन्दोलन और यूक्रेन-रूस के युद्ध के चलते खेती पर विपरीत असर पड़ा है। इससे कपास की उपज से लेकर कारोबार तक प्रभावित हुआ है। सरकार की ओर से अनदेखी और कोरोना महामारी से कपास की बिकवाली सही तरीक़े से नहीं हो पायी है। हाल यह है कि कपास में तो किसानों की लागत तक नहीं निकल पायी है। ऐसी स्थिति में किसान कपास की जगह वैकल्पिक खेती करने लगे हैं। डॉ. अमित कुमार का कहना है कि आने वाले दिनों में कपास (रुई) की कमी बाज़ार में देखने को मिलेगी। इससे कॉटन (सूत) की कमी होगी, जिसका असल कारोबार पर देखने को मिल सकता है।
यूक्रेन-रूस युद्ध के चलते भारत में उर्वरकों की क़ीमतों बढ़ोतरी हुई है, जिसका असर भारतीय किसानों पर पड़ा है। ऐसे में सरकार किसानों को महँगे उर्वरकों की ख़रीद से बचाने के लिए सब्सिडी सहित अन्य सुविधाएँ दे।
रायपुर कृषि विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक गजेन्द्र कुमार का कहना है कि कपास की खेती करने वालों को इस फ़सल को बचाने के लिए कीटनाशक दवा का उपयोग करना होता है, जो कि अब बेहद महँगी है। यह दवा इतनी महँगी है कि मध्यमवर्गीय किसान इसे ख़रीद नहीं पाता है। इसके अलावा खाद, पानी, बीज सब कुछ महँगा है। ऐसे में कपास की फ़सल को कीड़ों से नष्ट कराने से तो अच्छा है कि दूसरी कोई खेती की जाए।
इन्हीं तमाम दिक़्क़तों के चलते कपास के किसानों ने वैकल्पिक खेती करनी शुरू कर दी है। कपास का भाव बढऩे का कारण भी उसके उत्पादन में आयी कमी है। पिछले दो-तीन साल में भारत में कपास का उत्पादन काफ़ी कम हुआ है, जो अब और कम हो रहा है।
पंजाब के व्यापारी नीरज कुमार अरोड़ा ने बताया कि पंजाब के मालवा को कपास की खेती के नाम से ही जाना जाता रहा है। लेकिन यहाँ के किसानों को गत दो वर्षों से कई समस्याओं से जूझना पड़ा है। एक तो कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ आन्दोलन में लगे समय और दूसरा उनकी कपास की फ़सल पर गुलाबी ख़तरा यानी गुलाबी सूड़ी (पिंक बॉलवर्म) ने इस फ़सल को चौपट किया है। इससे फ़सल कमज़ोर भी हुई है। हालाँकि इस बार गत वर्षों की अपेक्षा कपास के काफ़ी अच्छे दाम मिल रहे हैं। लेकिन लागत के अनुपात में कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ा है।
बताते चलें कि कपास की खेती सबसे अधिक महाराष्ट्र और गुजरात में होती है। महाराष्ट्र और गुजरात में एक समय में कपास की खेती में आगे रहने की होड़-सी लगी रहती थी। लेकिन आज दोनों ही राज्यों में कपास का उत्पादन कम हो रहा है। यहाँ की कपास योग्य काली और देगुड़ मिट्टी वाली ज़मीन पर देश के बड़े पूँजीपतियों की नज़र है। इसकी वजह यह है कि कपास की माँग दुनिया भर में बढ़ रही है, जिसके चलते यह हर साल महँगी हो जाती है। यही वजह है कि कपास को सफ़ेद सोना कहा जाता है। पूँजीपति पूरी तरह इस फ़सल पर अपना क़ब्ज़ा चाहते हैं, ताकि वे इसकी पैदावार से लेकर कपड़ा बेचने तक के कारोबार पर क़ब्ज़ा करके मोटा पैसा कमा सकें।
इस बारे में किसान नेता चौधरी बीरेन्द्र कुमार का कहना है कि कई बार फ़सल प्राकृतिक कारणों से चौपट होती है, तो कई बार दलालों की वजह से। दरअसल खेती को लेकर ऐसा माहौल बनाया जाता है, ताकि किसानों को घाटा हो और दलालों की दलाली चलती रहे। मौज़ूदा समय में आये दिन कपास के दाम बढ़ रहे हैं। इसकी वजह यह है कि छोटे किसान कपास की फ़सल संसाधनों के अभाव नहीं कर पा रहे हैं। हाल यह है कि बड़े किसान तक कपास की फ़सल की लागत नहीं निकाल पा रहे हैं। यूक्रेन-रूस युद्ध और कोरोना महामारी के पीछे बड़ा अंतरराष्ट्रीय बाज़ार छिपा हुआ है। इसलिए कपास और सूत से लेकर कपड़ों तक का भाव बढ़ रहा है। आने वाले दिनों में रुई और कपड़े के दाम और भी बढ़ सकते हैं।