‘कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बानी’ वाले हमारे देश में सुदूर देश/गांव की भाषा समझना आम लोगों के लिए भी व्यवहारिक दिक्कतें खड़ी कर देता है. और अगर समझने के बाद उसका ज्ञाता होना और उसमें शिक्षक की तरह निपुण होकर छोटे बच्चों को पढ़ाया जाना भी शामिल हो तो भाषा की यह मुश्किल हद दर्जे की दुरूह हो जाती है. जैसा की मशहूर भाषाविद नोम चोमस्की कहा करते हैं, ‘बच्चों में कई भाषाओं को एक साथ सीखने-समझने की क्षमता वयस्कों से ज्यादा होती है.’ लेकिन अमेरिका की मेक्सिन बर्नसन कुछ अलग ही तरह की वयस्क और भाषाविद हैं. उन्होंने भारत की एक क्षेत्रीय भाषा मराठी वयस्क होने पर ही सीखी. और इस गहराई के साथ आत्मसात कर ली कि अब वे कई सालों से महाराष्ट्र के सतारा जिले के फाल्टन कस्बे में गरीब बच्चों को मराठी सिखाती हैं. लेकिन 76 वर्षीय मेक्सिन की उपलब्धि यहीं खत्म नहीं होती.
मेक्सिन को फाल्टन में भूले-बिसरे तबकों के गरीब दलित बच्चों को बेहतर शिक्षा देने के लिए प्रगत शिक्षण संस्था जैसी एक सार्थक पहल करने के लिए भी जाना जाता है. इस संस्थान में दलित वर्ग से आए बच्चे सामान्य श्रेणी के बच्चों के साथ इस तरह घुल-मिलकर पढ़ते हैं सामाजिक ऊंच-नीच यहां सूक्ष्मदर्शी की जांच में भी पकड़ में न आए. हमारे देश के कई सरकारी और गैर-सरकारी स्कूल इस असमानता से पटे पड़े हैं और महंगे प्राइवेट स्कूलों के इस दौर ने इस खाई को और गहरा कर दिया है. ऐसे समय में एक छोटे कस्बे में यह सफल प्रयोग करने का श्रेय मेक्सिन को जाता है जिनका मानना है, ‘भाषाई अनुसंधान से यह साबित होता है कि अगर सभी तबकों के बच्चे साथ मिलकर पढ़ते हैं तो बर्ताव और बात करने के तरीके से यह पता करना बेहद मुश्किल होता है कि वह कथित निचले तबके से आता है.’ यही फलसफा इस संस्था को और साथ ही मेक्सिन को अलहदा रूप देता है. यही इस संस्था की सच्ची शिक्षा भी है.
मिशीगन, अमेरिका के एक छोटे-से कस्बे एस्कनाबा में जन्मी मेक्सिन के पिता नार्वे से विस्थापित हो अमेरिका आए थे और मां का परिवार फिनलैंड से. भारत से पहला परिचय ग्यारहवीं क्लास में हुआ जब एक पत्रकार ने 1950 के अपने भारत भ्रमण का जिक्र करते हुए बताया कि कैसे आजादी के बाद भारत सिर्फ तीन साल में ही लोकतांत्रिक तरीके से बेहतर ढंग से आगे बढ़ रहा है. वे बताती हैं, ‘वह बात बड़ी रोचक और साथ ही विस्मित करने वाली थी क्योंकि भारत के पड़ोसी चीन ने ठीक विपरीत साम्यवादी रास्ता अपनाया हुआ था. तभी मैंने फैसला कर लिया था कि मैं एक दिन खुद भारत जाकर यह लोकतांत्रिक प्रयोग जरूर देखूंगी.’ शुरू से ही मिली-जुली संस्कृति में पढ़ने वाली मेक्सिन ने कोलंबिया विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एमए करने के बाद भारत आकर हैदराबाद के विवेकवर्धनी कालेज में अंग्रेजी लेक्चरर के तौर पर पढ़ाना शुरू किया. इसी समय मेक्सिन ने पहली बार मराठी सीखी और मराठी का क्रेश कोर्स करने पुणे भी गई. दो साल यहां काम करने के बाद मेक्सिन अपनी पीएचडी के लिए वापस अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ पेनसिलवेनिया लौट गईं. यहां उनका विषय था भाषाविज्ञान और भारतीय भाषाएं. वहीं उनकी मुलाकात इरावती पर्वे नाम की एक शिक्षिका से हुई. चूंकि मेक्सिन के शोध का विषय मराठी की विभिन्न बोलियों पर था और इरावती ने फाल्टन कस्बे का सोशल सर्वे किया हुआ था, इसलिए इरावती ने शोध के लिए मेक्सिन को फाल्टन जाने की सलाह दी. इस तरह वे 1966 में अपनी पीएचडी के लिए फाल्टन आई और फिर यहीं की होकर रह गयी. ‘मैं 1966 में भारत आई और 1972 तक आते-आते मुझे लगने लगा कि अंदर ही अंदर मैं भारत में ही रहने का फैसला कर चुकी हूं.’ इसके बाद भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन देने की वजह बताते हुए मैक्सिन कहती हैं, ‘मैं यहां तभी रुकना चाहती थी जब मैं भारतीय समाज को अपना पूरा योगदान दे सकूं और वह देश की नागरिकता हासिल करने के बाद ही संभव था.’
इसी दौरान मेक्सिन ने कुछ और शिक्षकों के साथ मिलकर स्कूल नहीं जाने वाले दलित बच्चों के लिए ‘आपली शाला’ की नींव रखी. वे बताती हैं, ‘शुरू में हमने इसे शिक्षा के वैकल्पिक प्रोग्राम की तरह लिया ताकि जो गरीब दलित बच्चे स्कूल नहीं जा सकते थे उन्हें लिखना-बोलना-पढ़ना सिखाया जा सके. लेकिन हमें जल्द ही यह बात समझ आ गई कि हमारा मुख्य काम उन बच्चों को मुख्यधारा के स्कूलों में दाखिला दिलवाना, उन्हें पढ़ाई जारी रखने के लिए प्रोत्साहित करना और कक्षा में सफल बनाना है.’ 1978 से 1985 तक वे आपली शाला संभालती रहीं और अपना भाषा संबंधी शोध भी करती रहीं. साथ ही अपनी जीविका के लिए हर साल कुछ वक्त के लिए अमेरिका जाकर कालेज के छात्रों को मराठी भी पढ़ाती रहीं. मेक्सिन आगे कहती हैं, ‘इस दौरान काफी लोगों ने कहा कि मुझे एक पूर्णकालिक स्कूल खोलना चाहिए. लेकिन मैंने हर बार इस विचार का विरोध किया क्योंकि मैं सरकारी स्कूलों की शिक्षा प्रणाली पर ज्यादा विश्वास करती थी न कि प्राइवेट स्कूलों की. इसलिए जो भी मुझसे स्कूल खोलने के लिए कहता तो मेरा सीधा जवाब होता कि मैं अपना वक्त दलितों के बच्चों को पढ़ाने के लिए लगाना चाहती हूं न कि एलीट क्लास के बच्चों को.’ मगर धीरे-धीरे उन्हें यह समझ आने लगा कि अच्छी शिक्षा की जरूरत दलितों के अलावा दूसरे बच्चों को भी है. इस बात को समझते हुए उन्होंने 1984 में प्रगत शिक्षण संस्था को पंजीकृत कराया. इसके अंतर्गत कमला निंबकर बालभवन की शुरुआत हुई. बालवाड़ी से शुरू हुए इस स्कूल में हर साल एक नई कक्षा जुड़ती गई और अब यहां दसवीं तक की कक्षाएं लगती है. 1997 में निकले दसवीं के पहले बैच के सभी 14 बच्चे पास हुए और तब से अब तक दसवीं का रिजल्ट 100 फीसदी रहा है.
कमला निंबकर बालभवन में दाखिल होते ही आप समझ जाएंगे कि यह स्कूल बाकी स्कूलों से कितना अलग है. हो सकता है आपको किसी कक्षा में छात्र छोटे-छोटे समूहों में सब्जियां और फल काटते हुए मिलें जिनको मिलाकर कुछ देर में सलाद बनाया जाएगा. साथ ही एक शिक्षक भी मिले जो बता और पूछ रहा हो कि किस सब्जी या फल में कौन-सा विटामिन है. यह भी हो सकता है कि अगली कक्षा में किसी पाठ का नाट्य रूपांतर चल रहा हो जिसमें छात्रों के अलावा शिक्षक भी कोई पात्र अभिनीत कर रहा हो. इस स्कूल की नींव रखते वक्त ही कुछ नियम बना दिए गए थे जिन्हें आज भी कोई नहीं तोड़ता. स्कूल में सभी धर्म-संप्रदाय-जाति के बच्चों को दाखिला मिलेगा और पिछड़ी जाति के बच्चों के दाखिले के लिए सम्मिलित रूप से विशेष प्रयास किए जाएंगे. स्कूल का वातावरण बोझिल न होकर हंसी-खुशी और आजाद ख्यालों का होगा. पढ़ाई का माध्यम मराठी होगा लेकिन अंग्रेजी भी पहली कक्षा से ही पढ़ाई जाएगी और उसपर जरूरी ध्यान दिया जाएगा. यहां कक्षाएं बड़ी और हवादार हैं, लाइब्रेरी में अनेकों विषयों की किताबों की भरमार है, लड़के-लड़कियां साथ पढ़ते-खेलते हैं और शिक्षकों को बाहर ट्यूश्न देने की मनाही है. कमला निंबकर बालभवन के छात्रों की प्यारी मेक्सिन मौसी के अनुसार, ‘मैंने शुरू में ही फैसला कर लिया था कि यह स्कूल शिक्षा के मरुस्थल में सिर्फ एक खूबसूरत उद्यान की तरह नहीं होगा बल्कि एक ऐसा केंद्र होगा जहां पर दूसरे स्कूलों को भी बेहतर बनाने के लिए काम किया जाएगा, खासतौर पर सरकारी स्कूलों को.’ इसीलिए यहां एक प्रोग्राम चलाया जाता है जिसमें संस्थान के शिक्षक दूसरे सरकारी स्कूलों में नियमित तौर पर जाकर वहां के छात्रों को कुछ नया सिखाने का प्रयास करते हैं.
1986 में मेक्सिन ने इस अवधारणा के साथ इस स्कूल की नींव रखी थी कि यहां बच्चे जाति आधारित असमानता को नजरअंदाज करते हुए हंसते-खेलते शिक्षा प्राप्त कर सकें और जहां सिर्फ इम्तिहानों में अच्छे नंबर लाना ही आखिरी मंजिल न हो. आज, यहां की शिक्षा कार्यप्रणाली, ‘ हमारी हिंदुस्तानी शिक्षा प्रणाली की कमजोर जड़ों को कैसे मजबूत किया जाए?’ वाले सवाल का एक बेहतर जवाब बन चुकी है.