इस बार भी होली आयी, हर बार आती है। अपने साथ गुलाल और अबीर का मौसम लिपटाये चली आती है। सबके चेहरे पर खुशी, हर मन में उमंग और हर हाथ में गुलाल, होठों पर फाग! होली का आना जैसे हर भेद का मिट जाना है। हर ओर राग, हर ओर फाग! इस बार होली आयी पर इतने रंग-राग की तैयारी साथ न लायी। कई तरह के वायरस हवा में तिर रहे थे, हैं और उनसे खतरे को लेकर एडवाइजरी भी हावी है। तरह तरह के अचूक उपाय भी साथ ही साथ सुनाई दे रहे हैं, जिसमें वायरस के पक्के इलाज का दावा भी है। चीन भले ही ढूँढ न पाये पर हमारे यहाँ हर कोने से इलाज भेजे जा रहे हैं। डर है कि फिर भी खत्म नहीं हो रहा। गज़ब तरीके से भीतर जगह बनाये बैठा है। होली तो आयी, पर उतना रंग-राग न लायी। बेटे के लिए गुझिया बनाकर और मीठे पूए बनाने के बाद बैठी सोच ही रही थी कि बसंत अपने साथ अब वो उत्साह क्यों नहीं लाता? जिसके बारे में हम कथाओं में पढ़ते थे! हम बदल गये या मौसम ही बदल गया… ये सोचते-सोचते आँख लग गयी।
देखती क्या हूँ कि मेरे घर के दरवाज़े की घंटी लगातार बज रही है। दौड़कर गयी, तो देखा तो कृष्ण और राधा की वेशभूषा में एक बालक और बालिका खड़े हैं…, हाथ में अबीर और गुलाल! हैरान होते हुए मैंने दरवाज़ा क्या खोला, वे तो भीतर आकर मंद-मंद मुस्काते मेरे काउच पर विराजमान हो गये! अभी मैं कुछ पूछ पाती कि कृष्ण सरीखा बालक बोल उठा- ‘रंग नहीं खेलोगी सखी!’ अच्छा, तो ये दोनों किसी ड्रामे का हिस्सा होंगे। मेरी सोसायटी में नाटक खेला जा रहा है और मुझे ही पता नहीं! बालक ने आगे बढ़कर मुझे रंग लगा दिया। राधा बनी बालिका भी रंग लिये खड़ी है। किसी को इतने प्यार से रंग लगाते देख मन भीज-भीज गया। पर डर भी उतना ही था। पूछ बैठी- ‘लोकल मार्केट के रंग तो नहीं लिए बेटा आपने? इस बार तो रंग की क्वालिटी को लेकर इतना डर फैला हुआ है कि मैं तो रंग खरीद ही नहीं सकी।’ कृष्ण मुस्कुरा उठे- ‘सखी, सीधे माँ यशोदा के हाथ से बने रंग लेकर आये हैं हम दोनों- फूलों को पीसकर बनाये गये रंग!’ यशोदा तो इस टॉवर में रहती नहीं! फिर किसके बाल-गोपाल हैं ये दोनों? राधा मुस्काई… माँ, हम दोनों सीधे वृन्दावन से आये हैं…। वही कृष्ण और राधा, जिन्हें तुम याद कर रही थीं। मैं मुग्ध थी.., बात न मानने का कोई कारण ही न था। मेरे मन में कई शंकाएँ थीं, कई सवाल भी। मुझसे मिलने इतने दूर देश से? कृष्ण कहने लगे- ‘इस दुनिया को जैसे-जैसे बिखरते देखता हूँ, हर बार इंसानों से संवाद करने की इच्छा बढ़ती चली जाती है। आज होली है। तुम जानती हो हमने होली मनाना कैसे शुरू किया?’ मैं बिल्कुल नहीं जानती थी। अब राधा बोल उठीं- ‘आप ही सब कुछ बताएँगे या मैं भी!’ कृष्ण मुस्कुराये, तो राधा ने इस कहानी को कहना शुरू किया- ‘बरसों पहले जब कृष्ण को राक्षसी पूतना ने स्तनपान कराया, तो उसके मरने के बाद भी कुछ विष का भाग इनके भीतर छूट गया, जिससे कृष्ण का रंग साँवला हो गया। मुझे तो साँवले कृष्ण ही भाते हैं। पर खुद इनको अपना रंग परेशान करता था। हर बखत इनके बाल सखा भी चिढ़ाते कि- ‘गोरे नन्द, यशोदा गोरी, तू क्यों श्यामल गात/ चुटकी दे-दे ग्वाल नचावत, हँसत सबै मुस्कात’ ये भी तो माँ से रूठ जाते और कहते- ‘तू मोहि को मारन सीखी, दाऊ कबहूँ न खीझे’ माँ क्या करतीं, बस हँसकर इन्हें अंक (गोद) में भर लेतीं। ऐसे ही एक दिन मैं इनकी उस नगरी में आयी।
कृष्ण बीच में ही बोले- ‘आगे की कथा मैं कहूँ राधे!’ राधा मुस्कायीं, तो कृष्ण बोल उठे- ‘राधा तो गौर वर्ण और मैं श्यामल! मन के भीतर के द्वंद्व को माँ के सामने प्रकट किया, तो माँ हँसकर बोलीं कि जाओ नीले फूलों का रंग या पीले-लाल फूलों का रंग राधा को लगा दो। बस अब क्या था? फागुन के इस मौसम में राधा को ही नहीं, हम सब ग्वालों ने सभी को लाल-पीले-नीले फूलों से रंग दिया! अब कौन किस रंग का रहता! सब अनेक रंगों के हो गये।’
मेरी उत्सुकता जागी- ‘तो क्या भगवान के मन में भी हीन भाव पनप गया था?’ आज भी तो हर कोई रंग-भेद करता है…। गोरे हो, तो सब जगह तुम्हारी; काले हो तो कहीं स्वीकार नहीं! तो क्या आपके साथ भी ऐसा ही था! क्या गोरी राधा से ईष्र्या भी थी? कृष्ण बोले- ‘नहीं, नहीं; राधा को अनेक रंग से रंगने का ये अर्थ ले लेंगी आप, तो सब बदल जाएगा। आज यही तो दिक्कत है, कि कहा कुछ गया, अर्थ कुछ और हो जाता है। यह राग-रस की होली थी, जिसे मनाकर कहीं कोई भेद नहीं रहता। उस दिन सब अपनी देह के रंग से परे होकर इतने रंगों में डूब गये कि किसी की कोई पहचान नहीं रह गयी। सब रास-होली में डूबे थे। किसी में कोई भेद नहीं था। मन का भेद नहीं; रूप का भेद नहीं; भाव का भेद नहीं; ऊँचे-नीचे का भेद नहीं; अहं का भेद नहीं! जो श्याम रंग में डूबा, सो डूबता ही गया। यही तो है होली; जहाँ सब भेद मिट जाते हैं और सब अपने हो जाते हैं। ‘ज्यों-ज्यों बूढत स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्ज्वल होय।’ ऐसी ही रहे, तो ही तो होली फागुन के उत्साह से भरी रहेगी। जहाँ सब मनुष्य होंगे, सब समान..; कोई भेद नहीं। यही तो है ब्रज की रंगपंचमी।
तो अब मैं समझी कि होली में अब उछाह क्यों नहीं दिखता? मन के मौसम में आज किसी के लिए जगह ही नहीं। हर जगह तो भेद ही है। कोई किसी को देखकर खुश नहीं। रंग भेद, भाव भेद, मन भेद, वर्ग भेद! तो होली कैसे होगी?
पर होली से तो आपके भक्त प्रह्लाद की कथा को जोड़कर देखा जाता है ना! होलिका दहन को लेकर जो कथा कही जाती है, हम तो वही जानते हैं। मैं पूरी तरह जाँच लेना चाहती थी कि किसी ने इन बालकों को सिखा-पढ़ाकर तो नहीं भेजा है!
कृष्ण की मुस्कान कितनी मोहक थी- ‘ठीक कहती हो माँ! पर विविधता के इस देश में कथाओं की कमी है क्या? फिर हर कथा तो एक प्रतीक है- कहीं बुराई पर अच्छाई की जीत का, तो कहीं सद्भाव, प्रेम और सम्मान का। हिरण्यकश्यपु का अहं ही तो जला था उस दिन होली की अग्नि में। होलिका कोई स्त्री नहीं थी माँ! जिसे मारकर अग्नि ने प्रह्लाद को जिला दिया था। वह तो सिर्फ प्रतीक थी उस बुराई की, अंह की, जो दूसरों को नष्ट करने के अभिमान से भरा रहता है। हम जब दूसरों को मिटाने का प्रयास करते हैं, तो हमारा मिटना तो तय है ना! बस इसीलिए वह शान्त, सौम्य, साधारण-सा बालक अग्नि से बच गया और अहं, भेद, स्वार्थ, गर्व जल गया। होलिका दहन के दिन यही तो जलाने का संकल्प करते हैं न माँ! अहं को नष्ट करके एक नये दिन की प्रतीक्षा, स्वार्थ को छोड़कर सबको गले लगाने का भाव, आपसी भेदों को मिटाकर सबको अपना बनाने का भाव! इसीलिए तो हर घर का दरवाज़ा खटकाकर सबको साथ ले जाना होता है- होली खेलने के लिए! मन के दरवाज़े बन्द करके बैठने का त्यौहार नहीं है होली। यह तो समूह का त्योहार है। साथ होने का त्योहार; मिलकर गाने का त्योहार।
राधा मंत्रमुग्ध-सी बैठी थीं, अब बोल उठीं- ‘फिर फसल भी तो लहलहा उठती है ना! नयी फसल का स्वागत करते किसान और उन किसानों के साथ झूमता किसानी मन। जौ की बालियाँ, जिन्हें होला भी कहते हैं। उन्हें भी आग में पकाकर नयी फसल का स्वागत भी तो किया जाता है।
कृष्ण बोले- ‘किसानी सभ्यता का ये देश नयी ऋतु का स्वागत करता है। शिशिर के बाद वसंत का उत्साह, फसलों के बदलाव और मौसम के परिवर्तन का सूचक त्योहार भी है होली। अग्निदेव तो मुख हैं ना! नया भोजन तो उनकी सहायता से ही सौंधा होता है। तो उनको भोग लगाये बिना नयी फसल को कैसे खाया जा सकता है? ये भी तो प्रतीक है अपने बड़ों को हर खुशी में शामिल करने का। उनके दाय (बड़प्पन या दान) को कभी न भुलाने का! उनके साथ से ही आगे बढऩे का और उनके आशीष के साथ बने रहने का।’
तो आज वो उत्साह क्यों नज़र नहीं आता? मैं जानना चाहती थी। ‘कैसे आएगा? -राधा ने पूछा ‘जैसे-जैसे हम सभ्य होने का दावा करने लगे हैं, क्या हम ज़्यादा अहंकारी नहीं होते जा रहे? क्या हम अपने अहं को भुलाकर दूसरे को गले लगाने के लिए तैयार हैं? क्या भेदभाव कम करने या खत्म करने की पहल करने का साहस है हमारे भीतर? क्या रंग भेद, वर्ग भेद को कम करने की दिशा में कोशिश करने के लिए तैयार हैं हम? अगर हाँ, तो होली मनाने अर्थ होगा माँ! वरना…।
कृष्ण और राधा मुझे होली का मतलब समझा रहे थे और बस तभी मेरी आँख खुल गयी! यह क्या? मैं कोई सपना देख रही थी क्या? आँख बन्द करके फिर से उन्हें ढूँढने की कोशिश की, पर तब तक तो वे जा चुके थे। मुझे क्यों चुना उन्होंने? पता नहीं…। पर होली का मतलब तो मैं समझ गयी थी। बाज़ार से खरीदे रंग तो नहीं थे मेरे हाथ में, पर अपने हाथ से बनी गुझिया, पूए और मन में सबको गले लगाने का उत्साह था; जिससे भरकर मैं पड़ोसियों का दरवाज़ा खटखटाने के लिए बढ़ गयी…।
आप समझे होली क्या है? आज नज़ीर की पंक्तियाँ मेरे भीतर गूँज रही थीं-
‘जब फागुन रंग झमकते हों, तब देख बहारें होली की।
और दफ के शोर खड़कते हों, तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों, तब देख बहारें होली की।’
इस होली पर यही दुआ है कि हर ओर अमन-शान्ति हों, अपने-अपने अहं के खोल से हम निकलें और सबको प्रेम के रंग में रंग सकें, हिंसा खत्म हो और देश की विविधताओं के बीच अपनापा बना रहे। होली तभी तो मन का वसंत है, जिसमें सब एक हो जाते हैं। हम भी विविधताओं के बीच एक रहें… हँसते-मुस्काते।