30 मार्च 1947 को पूज्य बापू पहले-पहल लॉर्ड माउंटबेटन से मिलने जा रहे थे. नोवाखली और बिहार के ऐक्य यज्ञ में पड़ने के बाद यह पहला सफर था. वायसराय की ओर से सूचना तो यह थी कि बापू हवाई जहाज से दिल्ली पहुंचे. मगर बापू ने यह कहकर हवाई जहाज में जाने से इंकार किया कि, ‘‘जिस वाहन में करोड़ों गरीब सफर नहीं कर सकते, उसमें मैं कैसे बैठ सकता हूं?’’ और निश्चय किया कि ‘‘ मेरा काम तो रेल से भी अच्छी तरह से चल जाता है. मैं रेल से ही आउंगा.’’
गर्मी बहुत थी. सहन नहीं की जा सकती थी. 24 घंटे का रास्ता था. फिर हर स्टेशन पर राष्ट्र के पिता के दर्शन के लिए हजारों की भींड़ जमती थी. पर बापू को इन सब तकलीफों की फिकर ही कहां थी. उन्होंने मुझे बुलाया और कहने लगेः-
‘‘ देखो, इस यज्ञ में अकेले ही तुम मेरे साथ हो. यज्ञ में लगने के बाद यह पहली बार मैं दिल्ली जा रहा हूं. नोवाखली जाते वक्त मैंने निश्चित किया था कि वहीं ‘ करना या मरना’. और इसीलिए सब साथियों को अलग कर दिया था. सिर्फ तुम्हें मैंने अपने यज्ञ में शामिल होने दिया. लेकिन तुम्हें मैं नहीं छोड़ सकता, न तुम ही यह चाहती हो. इसीलिए तुम्हें मेरे साथ जाना है. सामान कम से कम लेना और छोटे से छोटा तीसरे दरजे का एक डब्बा पसंद कर लेना. मगर देखना, इसमें तुम्हारी कड़ी परीक्षा है, खयाल रखना!’’
मैंने सामान तो कम से कम लिया, मगर डब्बा पसंद करते समय खयाल हुआ कि हर स्टेशन पर दर्शन करनेवालों की भींड़ के कारण बापू घड़ी भर भी आराम नहीं ले पायेंगे. फिर हरिजन फंड भी मुझे गिनना पड़ेगा और उसकी आवाज होगी. इसलिए मैंने दो भाग वाला एक डब्बा पसंद किया. एक में सामान रख लिया, दूसरे में बापू के सोने- बैठने का इंतजाम कर दिया.
पटने से दिल्ली की गाड़ी सुबह 09.30 को चलती थी. बापू और मैं 09.25 को स्टेशन पर आये. वहां लोगों की भींड़ बहुत थी. फिर भी हम गाड़ी पर चढ़ गये. बापू तो ठहरे मिनट-मिनट का उपयोग करनेवाले. उन्होंने पांच मिनट में ही हरिजन फंड इकट्ठा कर लिया. 09.30 को गाड़ी रवाना हुई.
गर्मी के दिनों में बापू दस बजे भोजन करते थे. मैं सब तैयारियां करने के लिए डब्बे के दूसरे हिस्से में गयी. थोड़ी देर के बाद बापूजी के पास आयी. बापूजी लिखने में लगे थे. मुझे पूछने लगे- ‘‘कहां थी?’’
मैंने कहा-‘‘ यहां खाना तैयार कर रही थी.’’. तब उन्होंने खिड़की के बाहर नजर डालकर उन्होंने मुझे देखने को कहा. मुझे भी जरा सा खयाल हो आया कि मेरी कुछ न कुछ भूल हो गयी है. मैंने बाहर देखा तो मुझे लोग लटके हुए दिखायी दिये.
मीठी-सी झिड़की देकर बापू मुझसे कहने लगे-‘‘ क्या इस दूसरे कमरे के लिए तुमने कहा था?’’ मैंने कहा-‘‘ जी हां. मेरा खयाल था कि अगर इसी कमरे में मैं अपना काम करूं, बरतन मलूं, स्टोव पर दूध गरम करूं, तो आपको तकलीफ होगी. इसलिए मैंने दो कमरे का डब्बा लिया.’’
बापूजी कहने लगे- ‘‘ कितनी कमजोर दलील है. इसी का नाम है अंधा प्रेम. तुम जानती हो न कि मेरी तकलीफ बचाने के लिए हवाई जहाज का उपयोग करने से इंकार करने के बाद स्पेशल रेलगाड़ी से सफर करने की सूचना दी गयी थी. लेकिन एक स्पेशल ट्रेन के पीछे कितनी गाड़ियां रूकें और हजारों का खर्च हो जाये, यह मुझसे कैसे सहा जाये? मैं तो बड़ा लोभी हूं. आज तो तुमने सिर्फ दूसरा कमरा ही मांगा, लेकिन अगर सलून भी मांगती तो वह भी तुझे मिल जाता. मगर क्या यह तुम्हें शोभा देता? तुम्हारा रेल का यह दूसरा कमरा मांगना सलून मांगने के बराबर है. मैं जानता हूं कि तुम मेरे प्रति अत्यंत प्रेम की वजह से यह सब करती हो. लेकिन मुझे ता तुम्हें उपर चढ़ाना है. नीचे नहीं गिराना है. तुम्हें भी यह समझ लेना चाहिए. और अगर तुम समझती हो तो मैं इधर कह रहा हूं और उधर तुम्हारी आंखों से पानी बह रहा है, वह नहीं बहना चाहिए. अब इन बातों का प्रायश्चित यही है कि तुम सब सामान इस कमरे में ले लो और अगले स्टेशन पर स्टेशन मास्टर को मेरे पास बुलाना.’’
मैं तो थरथर कांप रही थी. सामान तो हटाया मगर मुझे बापू की फिकर बनी ही रही कि अब क्या होगा? कैसे होगा? दूसरे, यह फिकर थी कि कई बार बापू दूसरों की ऐसी छोटी भूलों को अपनी ही समझकर उनके लिए उपवास करते हैं, वैसे ही कहीं इसके लिए भी एकाध बार का भोजन न छोड़ दें. इसके अलावा घर के सब काम- पढ़ना, लिखना, मिट्टी के लेप लगाना, कातना, मुझे पढ़ाना- जैसे घर में, वैसे ही ट्रेन में भी होते थे!
आखिर स्टेशन आया. बापू ने स्टेशन मास्टर को बुलाया और कहने लगे-‘‘ यह लड़की मेरी पोती है. बेचारी भोलीभाली है. शायद वह अभी मुझे समझी नहीं, इसलिए उनसे दो कमरे पसंद किये. इसमें इसका दोष नहीं, मेरा ही दोष है. क्योंकि मेरे शिक्षण में कुछ अधूरापन रह गया होगा. अब उसका प्रायश्चित तो हमदोनों को करना ही होगा. हमने दूसरा कमरा खाली कर दिया है. जो लोग गाड़ी पर लटक रहे हैं, उनके लिए इस कमरे का उपयोग कीजिए, तभी मेरा दुख कम होगा.’’
स्टेशन मास्टर ने बहुत मिन्नतें कीं पर बापूजी कहां माननेवाले थे? स्टेशन मास्टर ने तो यहां तक कहा कि उन लोगों के लिए मैं दूसरा डब्बा जुड़वा देता हूं. बापू ने कहा- ‘‘ हां दूसरा डब्बा तो जुड़वा ही दीजिए, मगर इस कमरे का भी इस्तेमाल कीजिए. जिस चीज की हमें जरूरत न हो, वह ज्यादा मिल सकती हो तो भी उसका उपयोग करने में हिंसा है. मिलनेवाली सहूलियतों का उपयोग करवाकर आप क्या इस लड़की को बिगाड़ना चाहते हैं?’’
बेचारे स्टेशन मास्टर शर्मिंदा हो गये. उन्हें बापू का कहना मानना पड़ा.
बापू तो सारे हिंदुस्तान के पिता ठहरे. वे आराम से बैठें और उनके बच्चे लटकते हुए सफर करें, यह उनसे कैसे सहा जाता. इससे लटकते हुए लोगों को जगह मिली और मुझे अमूल्य सबक मिला कि जो सहूलियतें मिल सकती हैं, उनमें से भी कम से कम अपने उपयोग में लेनी चाहिए. उस समय वह झिड़की कड़ी तो मालूम हुई थी लेकिन आज उसकी कीमत मेरी जीवन में लगायी नहीं जा सकती. बापू ने ऐसे बारिकी भरे अहिंसा पालन से अपने जीवन को गढ़ा था. और उसमें जो थोड़ा भी फायदा उठाने का मौका मुझे मिला, वह सारी उम्र मेेरे साथ रहेगा.
प्रस्तुतिः अनुपमा