शैलेंद्र कुमार ‘इंसान’
भारत का पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर लगभग डेढ़ महीने से सुलगने के उपरांत पुलिस तथा सेना की माहौल में सुधार की कोशिश व्यर्थ गयी। लाख कोशिशों को उपरांत भी कुकी, नगा और मेइती समुदाय के उग्र लोग हिंसात्मक हैं। सरकार के लिए अब यह हिंसा सिरदर्द बन चुकी है।
सरकार का शान्ति बहाली दावा सही साबित नहीं हुआ। शिविरों में रहने को मजबूर 50,000 से अधिक लोग बेघर हैं। शान्ति की ख़बरों और कोशिशों के बीच मणिपुर की राजधानी इंफाल में पश्चिमी ज़िले के एक गाँव में 9 मई को एक महिला समेत तीन लोगों की हत्या और अब 11 लोगों की हत्या ने माहौल फिर ख़राब कर दिया है। हिंसा में उग्रवादियों की एंट्री हो चुकी है। दुविधा यह है कि उग्रवादी सुरक्षाकर्मियों के भेष आ रहे हैं और हमले कर रहे हैं। खामेनलोक क्षेत्र में उग्रवादियों के हमले से लोग ख़ौफ़ में हैं।
विदित हो कि मणिपुर में मेइती समुदाय द्वारा अनुसूचित जनजाति का दर्जा माँगें जाने के विरोध में कुकी तथा नगा समुदायों ने 3 मई को आदिवासी एकजुटता मार्च ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ मणिपुर के बैनर तले निकाला था, जिसके विरोध में मणिपुर में मेइती हिन्दू तथा आदिवासी कुकी, जो कि ईसाई हैं, एवं नगा समुदाय, जो कि कुकी समुदाय के साथ है, के बीच के बाद यह हिंसा भडक़ी थी। यह मार्च उच्च न्यायालय के 27 मार्च के उस फैसले के विरुद्ध निकाला जा रहा था, जिसमें न्यायालय ने राज्य को ही अनुसूचित जनजातियों की सूची में मेइती समुदाय को शामिल करने पर विचार करने का निर्देश दिया था। 3 मई से भडक़ी इस हिंसा में अब तक 100 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं तथा 300 से अधिक लोग घायल हो चुके हैं।
विदित हो कि मणिपुर में उग्रवाद एक पुरानी समस्या है, जिसकी जड़ें कथित रूप से राजनीति में भी बहुत गहरी हैं। ऐसे में अगर तीन जातियों की हिंसक झड़पों में अगर उग्रवादी शामिल हो चुके हैं, तो मणिपुर सरकार ही नहीं, केंद्र सरकार के लिए भी इसे रोकना अब आसान नहीं होगा। हालाँकि मणिपुर में पहले के मु$काबले कफ्र्यू के चलते काफ़ी शान्ति है, परन्तु सामान्य जनजीवन पटरी पर नहीं लौटा है तथा न जल्दी हालात सामान्य होने के संकेत हैं। इसकी वजह यह है कि हिंसा अब केवल जातिवाद और आरक्षण तक सीमित नहीं रही, वरन् क्षेत्रीयता तथा वर्चस्व की लड़ाई तक पहुँच चुकी है, जिसे लगातार छिपाने का प्रयास किया जा रहा है।
शुरू की सरकार की लापरवाही इतनी बड़ी हिंसा के लिए कहीं-न-कहीं ज़िम्मेदार मानी जानी चाहिए। अब हाल यह है कि हिंसा में अधिकारियों तथा नेताओं को भी अपना ख़तरा बना हुआ है। असम राइफल्स, पुलिस, सीआरपीएफ तथा सुरक्षा एजेंसियाँ हिंसा रोकने का भरसक प्रयास कर रही हैं। हिंसा की जाँच सीबीआई कर रही है। एसआईटी बन चुकी है। केंद्र सरकार ने मणिपुर के राज्यपाल की अध्यक्षता में राज्य में एक शान्ति समिति का गठन किया है। इस समिति के सदस्यों में मुख्यमंत्री, राज्य सरकार के कई मंत्री, कुछ सांसद, कुछ विधायक, वहाँ सक्रिय राजनीतिक दलों के नेता, कुछ विश्वसनीय अधिकारी, पूर्व सिविल सेवक, शिक्षाविद्, साहित्यकार, कलाकार, सामाजिक कार्यकर्ता तथा विभिन्न जातीय समूहों के प्रतिनिधि शामिल हैं। गृह मंत्री अमित शाह मणिपुर हिंसा पर नज़र रखे हुए हैं। वह मणिपुर के मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह तथा अधिकारियों, मंत्रियों के साथ बैठक कर चुके हैं। लेकिन उनके दौरे के बाद हिंसा भडक़ना आश्चर्यजनक है।
प्रश्न यह है कि क्या केंद्र सरकार का सीधा दख़ल इस हिंसा को शान्त करा पाएगा? यह प्रश्न इसलिए भी है, क्योंकि उग्रवादियों का हिंसा में कूदना इस हिंसा के शान्त होने को लेकर शंका पैदा करता है। मुश्किल यह है कि गृह मंत्री अमित शाह के दख़ल से भी यहाँ के हिंसा में शामिल समुदाय, विशेषकर पर कुकी समुदाय नाराज़ है तथा अपनी सुरक्षा की गुहार लगा रहा है। पिछले दिनों इस समुदाय ने दिल्ली में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के आवास के बाहर प्रदर्शन किया था। कुकी समुदाय के प्रदर्शनकारियों ने इस दौरान हाथों में तख़्तियाँ ली हुई थीं, जिन पर लिखा था- ‘कुकी समुदाय के लोगों के जीवन की रक्षा करें।’ बाद में ये प्रदर्शनकारी जंतर-मंतर पर भी बैठे थे।
हिंसा रोकने के लिए मणिपुर के हिंसाग्रस्त क्षेत्रों में लगातार इंटरनेट सेवाएँ 3 मई से बंद की हुई हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने इंटरनेट सेवाओं के निलंबन के ख़िलाफ़ याचिका की तत्काल लिस्टिंग से इनकार करते हुए कहा कि मामला उच्च न्यायालय के पास है। परन्तु इससे पहले सर्वोच्च न्यायालय हिंसा को लेकर हुए जान-माल के नुक़सान पर चिन्ता जताते हुए राज्य में शान्ति बहाली की प्रक्रिया पर ज़ोर दे चुका है। सवाल यह है कि लम्बे समय तक मणिपुर हिंसा पर केंद्र सरकार ने कुछ भी क्यों नहीं कहा? दूसरा सवाल यह है कि अगर अगर मणिपुर हिंसा रोकने में राज्य सरकार अभी तक असफल है, तो सरकार को ब$र्खास्त करके वहाँ राष्ट्रपति शासन क्यों नहीं लगा दिया जाता? क्या ग़ैर-भाजपा शासन वाले किसी राज्य में इतनी बड़ी हिंसा के बाद केंद्र सरकार उस राज्य की सरकार को बर्दाश्त कर पाती? अगर नहीं, तो मणिपुर सरकार पर नाराज़गी क्यों ज़ाहिर नहीं हो रही है? अवैध हथियारों को स्वेच्छा से जमा करने के निर्देश के बजाय सरकार ने पहले ही क्यों नहीं जाँच अभियान चलाकर लोगों के हथियार ज़ब्त कर लिये? अब जिस स$ख्ती से हिंसा रोकने की कोशिश की जा रही है, वह कोशिश पहले भी तो की जा सकती थी।
कुल मिलाकर अब ग़ैर-अफस्पा क्षेत्रों में तलाशी अभियान के दौरान दण्डाधिकारियों की उपस्थिति सुनिश्चित की जा रही है। सैकड़ों अवैध हथियार बरामद किये गये हैं। इन हथियारों में 900 से अधिक कम तथा अधिक ख़तरनाक बंदूक, राइफल, कट्टे जैसे हथियार, 1,200 से अधिक कारतूस, 200 से अधिक बम तथा अन्य सैकड़ों अन्य धारदार हथियार शामिल हैं। सभी प्रमुख सडक़ों पर सैन्य टुकडिय़ों का पहरा है।
देखने में आ रहा है कि सेना के डर से लोग भले ही घरों में क़ैद हैं, परन्तु अभी भी मेइती समुदाय उग्र दिख रहा है। हिंसा में बड़ी बात यही है कि सबसे पहले मेइती समुदाय के लोग ही उग्रता पर उतरे तथा इस समुदाय के लोगों ने आदिवासी एकता मार्च पर हमला किया। सवाल यह है कि मेइती समुदाय अनुसूचित जनजाति का दर्जा क्यों पाना चाहता है? मणिपुर के आदिवासी समुदाय के लोगों का कहना है कि उनको मिले आरक्षण तथा उनके अधिकार क्षेत्र की प्राकृतिक चीज़ों पर क़ब्ज़ें की यह साज़िश है और सरकार इस साज़िश में शामिल है। तत्काल के हालात यह हैं कि उग्रवादी संगठन इस हिंसा को शान्त नहीं होने देना चाहते। जानकार मान रहे हैं कि उग्रवादी संगठनों का हिंसा में कूदना सरकार के लिए और मुसीबत खड़ी कर सकता है। उग्रवादी संगठन हिंसा को बढ़ावा देंगे तथा विरोधी पक्ष के सामान्य लोगों को मौत के घाट उतारने से नहीं चूकेंगे। शान्ति बहाली की कोशिश तथा कड़ी निगरानी के बीच तीन लोगों की हत्या यह साबित कर चुकी है।
संवेदनशील क्षेत्रों के जिन लोगों को सरकार ने विस्थापित कर दिया है, उनके वापस अपने घर लौटने की संभावनाएँ फ़िलहाल नहीं हैं। केंद्रीय गृह मंत्रालय हिंसा प्रभावित मणिपुर में विस्थापित लोगों के लिए 101.75 करोड़ रुपये के राहत पैकेज की मंज़ूरी दे चुका है। हालाँकि राज्य सरकार के सुरक्षा सलाहकार कुलदीप सिंह का यह दावा है कि मणिपुर में स्थिति शान्तिपूर्ण है तथा नियंत्रण में है, $गलत साबित हुआ। कांग्रेस का कहना है कि सरकार हिंसा रोकने में नाकाम साबित हुई है।
मणिपुर के कुछ ज़िलों में 24 घंटे में 12 घंटे तथा पहाड़ों के पड़ोसी ज़िलों में 24 घंटों में से 8 से 10 घंटे की ढील कफ्र्यू में दी गयी थी। लेकिन फिर से तनाव बढऩे पर सख्त पहरे के बीच जनता है। पुलिस तथा सैन्य टुकडिय़ाँ लोगों पर लगातार नज़र बनाये हुए हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग-37 पर आवश्यक वस्तुओं की आवाजाही कड़ी सुरक्षा निगरानी के बीच हो रही है। हर वाहन की जानकारी पुलिस के पास होने पर ही वह सडक़ों पर चल पा रहा है।
शान्ति बहाली के लिए राज्य में सेना तथा असम राइफल्स के लगभग 10,000 जवान तैनात हैं। सवाल यह है कि मणिपुर में मौत का तांडव कब रुकेगा?