कोरोना वायरस के चलते किये गये लॉकडाउन में फँसे मज़दूर भूख-प्यास के चलते अब छटपटाने लगे हैं। ये लोग कोई एक परेशानी नहीं झेल रहे हैं। अगर ये जहाँ हैं, वहाँ रहें, तो भूखे मरें। ऊपर से इन पर मकान का किराया और बढ़ रहा है। बाहर निकलें, तो पुलिस के डण्डे खाएँ। अधिकतर सरकारें भी मज़दूरों की मदद के लिए बिल्कुल सामने नहीं आ रही हैं। पहले तो जो लोग भीड़ बनकर निकल गये, उनमें अधिकतकर जैसे-तैसे अपने घर पहुँच गये। लेकिन अब जो फँसे हुए हैं, वे अपने घर जाने की जुगत निकाल रहे हैं। इसी तरह की जुगत यानी कोशिश में उत्तर प्रदेश के 18 मज़दूर महाराष्ट्र से लखनऊ जा रहे थे। कोई साधन नहीं मिला, तो ये लोग कंक्रीट मिक्सर टैंक में ही अंदर छिपकर बैठ गये। लेकिन मध्य प्रदेश की पुलिस इन्हें इंदौर में धर-दबोचा।
देखने वाली बात यह है कि पुलिस ने मज़दूरों को उनके घरों तक पहुँचाने की बजाय इंसानियत का काम कर रहे टैंकर चालक के ख़िलाफ़ ही रिपोर्ट दर्ज कर ली और टैंकर को थाने में खड़ा कर लिया। दोपहर तक तो मज़दूरों को भी थाने में ही रखा गया। उसके बाद की सूचना नहीं दी गयी। इस मामले में इंदौर के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने बताया है कि उक्त मज़दूर कंक्रट मिक्चर टैंक में भरकर महाराष्ट्र से लखनऊ जा रहे थे। पुलिस ने एफआईआर दर्ज करके टैंकर को थाने में खड़ा कर दिया है। सभी लोगों से पूछताछ की जा रही है।
सवाल यह है कि आख़िर राज्य सरकारें मज़दूरों की समस्याओं को ध्यान में क्यों नहीं रख रही हैं? और अगर कोई मज़दूर अगर मुसीबत में घर जा भी रहा है, तो पुलिस उसकी मदद की बजाय उसे तंग क्यों कर रही है? क्या वे देश के नागरिक नहीं हैं? यहाँ प्रवासी मज़दूरों और टैंकर में बैठने की अनुमति देने वाले तथा टैंकर चालक की भी ग़लती ही कही जाएगी। क्योंकि अगर एक दम गोल और बन्द टैंक में इन लोगों को कुछ हो जाता, तो उसकी ज़िम्मेदारी किसकी होती? क्योंकि यह एक ऐसा टैंकर है, जिसमें इंसान का दम भी घुट सकता है। इसकी सम्भावना तब और अधिक हो जाती है, जब इसमें कई लोग एक साथ घुसे हों।