सालों तक भारतीय सेना में नौकरी करने के बाद तारा चंद यादव ने साल 2000 में सेना से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ली थी. यादव का पेंशन पेमेंट ऑर्डर बताता है कि वे जब सेवानिवृत्त हुए थे उस वक्त उन्हें केवल 5,000 रुपये मासिक पेंशन मिलती थी. आज वे स्काईलार्क समूह की 12 कंपनियों के मालिक हैं और उनकी वेबसाइट के मुताबिक इनका टर्नओवर 250 करोड़ रुपये है.
तहलका के पास मौजूद विभिन्न दस्तावेजों और तमाम जानकार लोगों से बातचीत के बाद पता चलता है कि सेवानिवृत्ति के बाद यादव ने सेवानिवृत्त सैनिकों के कल्याण के लिए काम करने वाले और रक्षा मंत्रालय के अधीन काम करने वाले पुनर्वास महानिदेशालय (डीजीआर) में आवेदन किया. इसके बाद उन्हें 2004 में गाजियाबाद के डासना में एक टोल प्लाजा चलाने का काम मिल गया. बस यहीं से यादव के करियर की दूसरी मगर बेहद चमत्कारी पारी शुरू हो गई. इसे यदि केवल बाहर या ऊपर से देखा जाए तो यह किसी के लिए भी प्रेरणा की वजह मानी जा सकती है. लेकिन इस कहानी की ऊपरी सफेदी के नीचे कई स्याह पहलू और लूटे गए औरों के अवसर भी हैं. उनके बारे में ठीक से तभी जान सकते हैं जब थोड़ा-सा डीजीआर और उसके कायदे-कानूनों के बारे में जाना जाए. भारत सरकार के मुताबिक सेना से हर साल तकरीबन 60,000 लोग अपेक्षाकृत कम उम्र में सेवानिवृत्त होते हैं. इसे देखते हुए सरकार ने 1992 में रक्षा मंत्रालय के तहत पुनर्वास डीजीआर की शुरुआत की थी. इसका मकसद था सेवानिवृत्त अधिकारी और जवानों को रोजगार के वैकल्पिक अवसर मुहैया कराना. इस काम के लिए डीजीआर के तहत कई विभाग बने हुए हैं जिनके तहत तमाम योजनाएं चल रही हैं.
डीजीआर की सुविधाएं हासिल करने के लिए कुछ शर्तों को पूरा किया जाना जरूरी है. सबसे पहली शर्त यह कि इन सुविधाओं का लाभ उसी सेवानिवृत्त कर्मचारी को मिल सकता है जिसने पहले ऐसी कोई सुविधा नहीं ली हो. दूसरा, सुविधाएं लेने वाला सरकारी, अर्धसरकारी या निजी क्षेत्र में कहीं नौकरी नहीं कर रहा हो. तीसरी शर्त यह है कि डीजीआर अपनी सुविधाओं का लाभ उठाने का अवसर उन्हें ही देगी जिन्होंने भारतीय प्रबंध संस्थान या किसी अन्य बिजनेस कॉलेज में सैन्य अधिकारियों के लिए चलने वाले किसी पाठ्यक्रम में हिस्सा नहीं लिया हो. तारा चंद यादव के मामले में डीजीआर की सुविधाएं पाने के लिए जरूरी पहले नियम को चिंदी-चिंदी करके कूड़े की टोकरी में एक नहीं बल्कि कई-कई बार डाला गया. कैप्टन के पद से रिटायर होने वाले तारा चंद यादव ने एक बार फिर से टोल प्लाजा हासिल करने के लिए आवेदन किया. हालांकि यादव रिटायर तो कैप्टन के पद से हुए थे, लेकिन इस बार उन्होंने खुद को कर्नल दिखाया. कमाल की बात यह है कि इन दो बड़े घालमेलों के बावजूद तारा चंद यादव को गुजरात के वापी में सरकारी टोल प्लाजा के प्रबंधन का काम मिल लिया. हालांकि बाद में इनके प्रबंधन में कई तरह की अनियमितताएं पाए जाने के बाद उनसे ये दोनों टोल प्लाजा वापस ले लिए गए. इस दौरान और इसके बाद एक के बाद एक यादव ने डीजीआर से कई सुरक्षा एजेंसियों के लिए भी मान्यता हासिल कर ली. इसके अलावा एक प्रशिक्षण संस्थान स्काईलार्क स्कूल ऑफ बिजनेस ऐंड टेक्नोलॉजी के लिए भी उन्हें डीजीआर से मान्यता मिल गई.
यादव के मामले में डीजीआर की सुविधाएं पाने के लिए जरूरी पहले नियम को चिंदी-चिंदी कर कूड़े की टोकरी में एक नहीं बल्कि कई-कई बार डाला गया
डीजीआर के अधिकारी किस कदर तारा चंद यादव पर मेहरबान रहे, इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि यादव अलग-अलग सुविधाओं के लिए आवेदन करते समय सेना के अपने पद में बदलाव करते रहे. तहलका के पास ऐसे कई दस्तावेज हैं जो तारा चंद यादव की अनियमितताओं की गवाही देते हैं. कुछ शिकायतों के आधार पर 28-29 मार्च, 2012 को टीसी यादव की कंपनी के कार्यालयों पर डायरेक्टरेट जनरल ऑफ सेंट्रल एक्साइज इंटेलीजेंस (डीजीसीईआई) ने छापेमारी की थी. इस छापेमारी से संबंधित पीआईबी की एक प्रेस विज्ञप्ति के मुताबिक डीजीसीईआई को स्काईलार्क समूह के दफ्तरों पर छापेमारी में प्रथम -दृष्टया तकरीबन 10 करोड़ रुपये की सर्विस टैक्स की चोरी के सबूत मिले थे. विज्ञप्ति में यह भी था कि इस समूह की कंपनियों की तरफ से की जा रही गड़बडि़यों का मास्टरमाइंट सेवानिवृत्त कैप्टन टीसी यादव है जिसने फर्जी पहचान के आधार पर कई कंपनियां बनाई हैं. डीजीसीईआई ने अपनी जो रिपोर्ट रक्षा मंत्रालय को दी है उससे वाकिफ रक्षा मंत्रालय के एक अधिकारी तहलका को बताते हैं कि तारा चंद यादव के कार्यालय पर हुई छापेमारी के दौरान मिले दस्तावेजों से पता चलता है कि वहां कम से कम 175 कंपनियां चल रही थीं.
ऐसा ही मामला सेवानिवृत्त विंग कमांडर वीएस तोमर का है. वीएस कोल कैरियर्स प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के जरिए वे कोल लोडिंग और ट्रांसपोर्टेशन का काम कर रहे हैं. वहीं दूसरी तरफ वे पूर्णा सिक्यूरिटी सर्विस के नाम से सुरक्षा एजेंसी भी चला रहे हैं. डीजीआर से तोमर को मिलने वाली सुविधाओं का सिलसिला यहीं नहीं थमता बल्कि उन्हें डीजीआर की कृपा से टोल प्लाजा के प्रबंधन का काम भी मिल गया. वीएस तोमर यह काम विस्टो एंटरप्राइजेज नाम की कंपनी के जरिए कर रहे हैं. तारा चंद यादव और तोमर के उदाहरण यह साबित करते हैं कि अगर डीजीआर के अधिकारियों की कृपा बनी रहे तो कायदे-कानून को ठेंगा दिखाकर किस तरह से केवल कुछ हजार रुपये की मामूली पेंशन पाने वाले व्यक्ति भी भ्रष्ट तरीकों से करोड़ों रुपये के मालिक बन सकते हैं. आज जो कुछ डीजीआर में चल रहा है, अगर उसे कोई सही ढंग से समझे तो पता चलेगा कि डीजीआर के माध्यम से सुविधाएं हासिल करने के लिए जरूरी और ऊपर लिखी तीनों शर्तें किस तरह से केवल कागजी बनकर रह गई हैं. तहलका के पास ऐसे दर्जनों सबूत हैं जो बताते हैं कि जिन लोगों को एक भी सुविधा नहीं दी जानी चाहिए उन्हें डीजीआर नियमों को ताक पर रखकर कई-कई सुविधाएं मुहैया करा रहा है.
जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है डीजीआर के नियमों में इस बात का स्पष्ट प्रावधान है कि उसके जरिए सुविधाएं लेने वाला सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी कहीं और नौकरी नहीं कर सकता. लेकिन इन प्रावधानों की अनदेखी के दर्जनों दस्तावेजी सबूत तहलका के पास हैं. मेजर वीके तिवारी सेना से सेवानिवृत्त होने के बाद 2002 में छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में जिला सैनिक कल्याण अधिकारी बन गए. 2007 में उनका स्थानांतरण बिलासपुर हो गया. इस लिहाज से अगर देखा जाए तो उन्हें डीजीआर से कोई सुविधा नहीं मिलनी चाहिए. लेकिन वे न केवल छत्तीसगढ़ सिक्यूरिटी एजेंसी के नाम से डीजीआर से मान्यता प्राप्त एक सुरक्षा एजेंसी चला रहे हैं बल्कि कोल लोडिंग और ट्रांसपोर्टेशन का काम भी कर रहे हैं. तिवारी यह काम ओम साईं ट्रांसपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड नाम की कंपनी बनाकर कर रहे हैं. यानी तिवारी के मामले में एक नहीं बल्कि डीजीआर के दो-दो नियमों का सरेआम उल्लंघन हो रहा है. वे एक सरकारी नौकरी करते हुए डीजीआर की दो-दो सुविधाओं का आनंद उठा रहे हैं.
ऐसा ही एक और उदाहरण सेवानिवृत्त मेजर पुनित जैन का है. सेना से सेवानिवृत्त होने के बाद वे एरिक्सन इंडिया ग्लोबल सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड नाम की कंपनी में काम कर रहे हैं. लेकिन यह पुनित जैन के प्रति डीजीआर अधिकारियों की दरियादिली ही है कि उन्हें गाजियाबाद में टोल प्लाजा चलाने का काम भी दे दिया गया. पुनित जैन को सुविधाएं देने के मामले में डीजीआर यहीं नहीं रुका बल्कि उनकी सुरक्षा एजेंसी एएए दीप सिक्यूरिटी सर्विसेज को भी मान्यता दे दी गई. कुछ ऐसा ही मामला सेना से सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट कर्नल मानवंत सिंह जोहर का है. वे एशिया मोटरवर्क्स लिमिटेड में काम करते हैं और उनका आयकर रिटर्न बताता है कि वे हर महीने वहां से 2.05 लाख रुपये पगार के रूप में पा रहे हैं. इसके बावजूद वे डीजीआर से मान्यता प्राप्त दो सुरक्षा एजेंसियां – गरु ऐंड सिक्यूरिटीज और कीर्ति ऐंड टू ऐंड सॉल्यूशंस – चला रहे हैं. डीजीआर की पूरी व्यवस्था के मुट्ठी भर लोगों के हाथ का खिलौना बन जाने से कुछ लोगों के लिए सेना की नौकरी से कई गुना अच्छा इनका दूसरा करियर बन गया है. डीजीआर की जिन सुविधाओं पर लोगों का सबसे अधिक जोर होता है उनमें सिक्यूरिटी एजेंसी, पेट्रोल पंप, सीएनजी स्टेशन और कोल लोडिंग व ट्रांसपोर्टेशन प्रमुख हैं. केंद्र सरकार ने खुद कई बार सर्कुलर जारी करके सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों (पीएसयू) को कहा है कि वे उन सिक्यूरिटी एजेंसियों की सेवाएं लें जो सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारियों द्वारा चलाई जा रही हैं. आज ज्यादातर पीएसयू ऐसी ही सुरक्षा एजेंसियों की सेवाएं ले रही हैं.
सबसे अधिक कमाई होने की वजह से ‘कोल लोडिंग ऐंड ट्रांसपोर्टेशन स्कीम’ में लोगों की दिलचस्पी सबसे अधिक रहती है. यही वजह है कि इस स्कीम का फायदा लेने के लिए इंतजार का समय (वेटिंग पीरियड) सात साल है. यह योजना आमदनी के लिहाज से कितनी आकर्षक है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि डीजीआर के पिछले चारों महानिदेशकों ने इसके लिए आवेदन किया था – मेजर जनरल वीएस बुधवार, मेजर जनरल केएस सिंधू, मेजर जनरल हरवंत कृष्ण और मेजर जनरल एसजी चटर्जी. इस योजना के बाद सबसे ज्यादा होड़ टोल प्लाजा के परिचालन का काम हासिल करने के लिए रहती थी. मगर इसमें भ्रष्टाचार के आरोप लगातार लग रहे थे जिस वजह से 2010 में राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण ने यह काम डीजीआर के हाथों से ले लिया. डीजीआर में हो रही गड़बड़ियों की कहानी अनंत है. सेना से जो भी अधिकारी या जवान सेवानिवृत्त होता है वह डीजीआर की सुविधाएं चाहे तो उसे वहां अपना पंजीकरण कराना होता है. इसी पंजीयन संख्या के आधार पर डीजीआर संबंधित व्यक्ति को केवल एक सुविधा देता है. लेकिन दस्तावेज बताते हैं कि जहां एक ही पंजीयन संख्या पर टीसी यादव जैसे लोग अन्य लोगों का हक मार कर कई-कई सुविधाएं ले रहे हैं वहीं कुछ मामलों में एक ही पंजीयन संख्या पर एक से ज्यादा लोगों को भी सुविधाएं दी जा रही हैं. उदाहरण के तौर पर, पंजीयन संख्या-1435 पर दो लोगों सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट कर्नल राजिंदर सिंह यादव और सेवानिवृत्त कर्नल पीएस यादव को अलग-अलग टोल प्लाजा चलाने का काम मिला हुआ है. इसी तरह पंजीयन संख्या-1521 पर सेवानिवृत्त ब्रिगेडियर केएस वर्मा को सिक्यूरिटी एजेंसी, सेवानिवृत्त कैप्टन सुरेश गुलाटी को टोल प्लाजा और सेवानिवृत्त मेजर प्रताप सिंह को भी टोल प्लाजा चलाने का काम डीजीआर ने दे रखा है. ये तथ्य डीजीआर के काम-काज में बरती जा रही घोर लापरवाही की ओर इशारा करते हैं.
तहलका के पास ऐसे दस्तावेज हैं जो साबित करते हैं कि एक ही पते पर एक ही या एक से ज्यादा व्यक्तियों द्वारा गलत ढंग से कई प्रशिक्षण केंद्र चलाए जा रहे हैं
मगर अब जिन गड़बड़ियों की बातें हम करने जा रहे हैं वे केवल प्रशासनिक गड़बड़ियां नहीं है. सेना से सेवानिवृत्त होने वाले अधिकारियों और जवानों के प्रशिक्षण के लिए डीजीआर प्रशिक्षण संस्थान खोलने की सुविधा भी देता है. तहलका के पास ऐसे दस्तावेज हैं जो साबित करते हैं कि एक ही पते पर एक ही या एक से ज्यादा व्यक्तियों द्वारा गलत ढंग से कई प्रशिक्षण केंद्र चलाए जा रहे हैं. ऐसे ही एक मामले की ओर ध्यान खींचने के लिए सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट कर्नल आनंद प्रकाश सिंह ने 10 अप्रैल, 2012 को रक्षा मंत्री एके एंटोनी को एक पत्र लिखा था. लेकिन अब तक उनकी शिकायत पर कुछ नहीं हो सका. आनंद प्रकाश सिंह ने इस पत्र में लिखा था, ‘पिछले तीन महीने में दिल्ली के नांगल राय के डब्ल्यूजेड-289 के पते पर सात प्रशिक्षण केंद्रों को डीजीआर ने मान्यता दी. इनमें से दो कंपनियों में निदेशक के तौर पर गुरिंदर कौर का नाम है. वहीं तीन कंपनियों में निदेशक के तौर पर नवदीप सिंह का नाम है.’ इस पत्र में यह भी बताया गया है कि कई डीजीआर द्वारा मान्यता प्राप्त कई प्रशिक्षण केंद्र रिहाइशी पतों से चल रहे हैं और इनमें बेडरूम और ड्राइंग रूम को क्लास रूम के तौर पर दिखाया जा रहा है.
डीजीआर में चल रही गड़बड़ियों की पड़ताल के दौरान ऐसे और भी कई प्रशिक्षण संस्थानों के मामले सामने आए. इनमें से एक है किंग मैनपावर सॉल्यूशंस प्राइवेट लिमिटेड. डीजीआर के दस्तावेजों में इसका पता हैः 7डी/1369, सेक्टर-9, सीडीए कॉलोनी, मार्केट नगर, कटक, ओडिशा, पिन- 753014, टेलीफोन नंबर- 0671-2309522. जबकि बीएसएनएल की टेलीफोन डायरेक्टरी बताती है कि यह फोन नंबर और पता न्यू इंडिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड का है. सेना से सेवानिवृत्त ब्रिगेडियर अजय कोहली के नाम पर एस्कलेड सिक्यूरिटी सर्विसेज के नाम से ओडिशा में एक प्रशिक्षण संस्थान पंजीकृत है. लेकिन कंपनी ने प्रोविडेंट फंड कार्यालय में दिल्ली के जनकपुरी का पता दर्ज कराया है. आश्चर्य की बात यह है कि जनकपुरी के इसी पते पर एक और प्रशिक्षण संस्थान – एस्कलेड एंटरप्राइजेज इंडिया प्राइवेट लिमिटेड – को भी डीजीआर ने मान्यता दे रखी है. नियमों को ताक पर रखने की कहानी यहीं नहीं खत्म होती. जिन अजय कोहली के नाम पर ये दोनों प्रशिक्षण संस्थान चल रहे हैं वे खुद तेजस नेटवर्क नाम की कंपनी में बतौर निदेशक काम कर रहे हैं. डीजीआर में फैली अराजकता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि सेना से सेवानिवृत्त कुछ अधिकारियों को डीजीआर ने अपनी सुविधाएं उनके पंजीयन से पहले ही मुहैया करा दीं. सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट कर्नल सी मेधी का पंजीयन डीजीआर कार्यालय में 23 जून, 2007 को हुआ. लेकिन इसके पहले 26 अक्टूबर, 2006 को ही मेधी की कंपनी ईगल्स आई सिक्यूरिटीज को तमिलनाडु के श्रीपेरंबदूर में टोल प्लाजा चलाने का काम मिल गया. ऐसे ही सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट कर्नल एसके मेहता का पंजीयन डीजीआर में 29 दिसंबर, 2006 को हुआ लेकिन यह डीजीआर की ही माया है कि उन्हें टोल प्लाजा चलाने का काम 7 नवंबर, 2006 को ही मिल गया.
जिन लोगों को डीजीआर ने टोल प्लाजा आवंटित कर रखे हैं उनमें से कई के बारे में यह शिकायत है कि वे आवंटित तो सेना के किसी रिटायर्ड अधिकारी के नाम पर हुए हैं लेकिन उन्हें चला कोई और रहा है. इस बारे में सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट कर्नल नवीन कुमार आनंद ने बाकायदा हलफनामा देकर शिकायत दर्ज कराई थी जिसके बाद रक्षा मंत्रालय ने जांच के लिए एक तीन सदस्यीय समिति का गठन किया था. इस समिति की रिपोर्ट रिपोर्ट बताती है, ‘टोल प्लाजा के मामले में किसी के नाम पर आवंटन और किसी और द्वारा इन्हें चलाए जाने (सबलेटिंग) के कई उदाहरण हैं. यह बात सिक्यूरिटी एजेंसी के मामलों में भी सही है. सबलेटिंग के इस खेल में संबंधित एजेंसी या कंपनी के अलावा डीजीआर के अधिकारी और सेना से सेवानिवृत्त लोग व दूसरे आम लोग भी शामिल हैं.’ रक्षा मंत्रालय की इस समिति ने सिक्यूरिटी एजेंसियों की सबलेटिंग के खतरों से आगाह करते हुए यह भी कहा है, ‘अगर समाज के किसी गलत तत्व को कोई सुरक्षा एजेंसी सबलेट की जाती है तो इसके खतरों का अंदाजा लगाया जा सकता है. सबलेटिंग की वजह से अगर पीएसयू और परमाणु केंद्रों और रिफाइनरियों की सहयोगी इकाइयों की सुरक्षा की जिम्मेदारी किसी राष्ट्र विरोधी तत्व के हाथों में चली जाती है तो इसके परिणाम देश के लिए काफी भयावह हो सकते हैं.’
डीजीआर से मान्यता प्राप्त सुरक्षा एजेंसियों के मामले में सबलेटिंग के अलावा और भी कई समस्याएं हैं. ऐसी सुरक्षा एजेंसियों की संख्या अभी 2,719 है. इन एजेंसियों के जरिए देश भर में दो लाख से अधिक सुरक्षाकर्मी अलग-अलग जगहों पर नियुक्त हैं. डीजीआर के नियमों के तहत एक एजेंसी को 300 से अधिक सुरक्षाकर्मी रखने का अधिकार नहीं है. यानी एक तरह से देखा जाए तो डीजीआर ने अधिक से अधिक सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारियों को लाभ पहुंचाने के मकसद से 300 सुरक्षाकर्मियों का कोटा तय किया है. लेकिन हकीकत यह है कि यह नियम भी सिर्फ कहने के लिए है. कई ऐसी एजेंसियां हैं जिनके सुरक्षाकर्मियों की संख्या इस कोटे से कई गुना अधिक है. टीसी यादव की स्काईलार्क सिक्यूरिटी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. आज इस एजेंसी के पास हजारों की संख्या में सुरक्षाकर्मी हैं. डीजीआर से मान्यता प्राप्त एजेंसियों पर एक आरोप यह भी है कि ज्यादातर एजेंसियां उस नियम का उल्लंघन कर रही हैं जिसके मुताबिक अनिवार्य तौर पर हर एजेंसी के 90 फीसदी सुरक्षाकर्मी सेवानिवृत्त जवान ही होंगे. रक्षा मंत्रालय के ही अधिकारी बताते हैं कि अगर सिर्फ इसी नियम को आधार बनाकर सभी एजेंसियों की जांच कराई जाए तो ज्यादातर एजेंसियों की मान्यता रद्द करनी पड़ेगी.
बड़ी संख्या में जरूरतमंद सेवानिवृत्त सैनिक अपने वाजिब अधिकारों से भी वंचित रखे जा रहे हैं और उनके गुजर-बसर का सहारा सिर्फ पेंशन संस्था है
डीजीआर से सुरक्षा एजेंसियों के लिए मान्यता लेने के लिए उम्र की अधिकतम सीमा 63 साल निर्धारित की गई है. लेकिन कोई भी सेवानिवृत्त अधिकारी 65 साल से अधिक उम्र तक एजेंसी का संचालन नहीं कर सकता. लेकिन इस नियम को भी डीजीआर के अधिकारी और सुरक्षा एजेंसियों के संचालक आपस में सांठ-गांठ करके खुलेआम ठेंगा दिखा रहे हैं. इसका एक उदाहरण है दीक्षा सिक्यूरिटी सर्विसेज. इस एजेंसी को चलाते हैं सेवानिवृत्त अधिकारी केसी चड्ढा. सेना के दस्तावेजों में इनकी जन्म की तारीख दर्ज है 17 दिसंबर, 1944. इस लिहाज से देखा जाए तो 2009 में चड्डा 65 साल के हो गए थे. लेकिन अब तक ये अपनी सुरक्षा एजेंसी चला रहे हैं. दिल्ली के कई प्रमुख सरकारी कार्यालयों में इनकी एजेंसी सुरक्षा का जिम्मा संभाले हुए हैं. इस तरह के कई उदाहरण हैं. ऐसा नहीं है कि डीजीआर में चल रही धांधली की शिकायत सक्षम अधिकारियों और संस्थाओं के पास नहीं पहुंची है. सच तो यह है कि डीजीआर के अधिकारियों की मिलीभगत से चल रहे भ्रष्टाचार के इस पूरे खेल को समय-समय पर हर सक्षम संस्थाओं के सामने उठाया गया है, लेकिन अब तक उन पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई. तहलका के पास ऐसी दर्जनों शिकायतों की प्रतियां हैं. सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी विजय शर्मा कहते हैं, ‘मैंने डीजीआर के महानिदेशक, रक्षा मंत्री, केंद्रीय सतर्कता आयोग, प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी के यहां भी इसकी शिकायत की. लेकिन इन पर कार्रवाई की बात तो दूर ठीक से जांच तक नहीं कराई गई.’
सेना से सेवानिवृत्त कुछ अधिकारियों का आरोप है कि डीजीआर से मान्यता प्राप्त सुरक्षा एजेंसियों में काम करने वालों के वेतन का ढांचा कुछ इस तरह तैयार किया गया है कि पीएसयू को अधिक पैसे खर्च करने पड़ें. इनमें से एक मोटा हिस्सा सर्विस चार्ज के नाम पर एजेंसियों के मालिक ले लेते हैं. दोषपूर्ण वेतन ढांचे की शिकायत सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट कर्नल एसके वोहरा ने रक्षा मंत्री एके एंटोनी को एक पत्र लिखकर की थी. इसमें उन्होंने लिखा, ‘केंद्रीय श्रम एवं रोजगार मंत्रालय ने वेतन का जो ढांचा बनाया है उसके मुताबिक पगार के बेसिक में ही रहने और खाने का भत्ता शामिल होता है. लेकिन डीजीआर ये दोनों भत्ते अलग से दे रहा है. देश भर में तकरीबन डेढ़ लाख सुरक्षाकर्मी डीजीआर के जरिए तैनात हैं. इस तरह से देखें तो हर साल देश के पीएसयू को 610 करोड़ रुपये अतिरिक्त चुकाने पड़ रहे हैं.’ वोहरा आगे लिखते हैं, ‘कायदे से तो सर्विस चार्ज 1,973 रुपये प्रति गार्ड होना चाहिए लेकिन कई एजेंसियां प्रति गार्ड 4,600 रुपये तक बचा रही हैं.’
वोहरा की शिकायत के बाद रक्षा मंत्रालय ने डीजीआर के लिए नए वेतन ढांचे का प्रस्ताव तैयार किया है. इसमें सिफारिश की गई है कि सर्विस चार्ज को मौजूदा 14-20 फीसदी से घटाकर 8-10 फीसदी किया जाए. डीजीआर की योजनाओं से अच्छी तरह वाकिफ सेना के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ‘कर्नल वोहरा ने जिन बातों का उल्लेख अपनी शिकायत में किया है और रक्षा मंत्रालय के प्रस्तावित दिशानिर्देशों को मिलाकर देखा जाए तो प्रति गार्ड पीएसयू को करीब 6,482 रुपये अधिक चुकाने पड़ रहे हैं. पिछले 20 साल से डीजीआर चल रहा है और मोटा अनुमान लगाएं तो अब तक सिर्फ इस गड़बड़ी की वजह से सरकारी खजाने को तकरीबन 30,000 करोड़ रुपये का चूना लग चुका है. अन्य गड़बड़ियों को भी जोड़ दें तो डीजीआर के जरिए पिछले 20 साल में सरकारी खजाने को तकरीबन एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है.’ डीजीआर से संबंधित अनियमितता और भ्रष्टाचार के ये मामले बताते हैं कि सेवानिवृत्त सैनिकों को जीवन यापन का आधार देने के मकसद से विकसित की गई व्यवस्था किस तरह से मुट्ठी भर लोगों की कमाई का औजार बनकर रह गई है. नतीजा यह हो रहा है कि बड़ी संख्या में जरूरतमंद सेवानिवृत्त सैनिक अपने वाजिब अधिकारों से भी वंचित हो रहे हैं और उन्हें अपने और अपने परिवार की गुजर-बसर सिर्फ पेंशन के सहारे करने को मजबूर होना पड़ रहा है. l
प्रश्नोत्तर: ‘शिकायतों पर कार्रवाई की प्रक्रिया चल रही है’
डीजीआर के महानिदेशक मेजर जनरल प्रमोद बहल से हिमांशु शेखर की बातचीत के प्रमुख अंश
नियमों के मुताबिक उस व्यक्ति को कोई सुविधा नहीं मिल सकती जिसे पहले ही डीजीआर से कोई सुविधा मिली हुई हो. लेकिन कई ऐसे मामले हैं जिनमें सेवानिवृत्त सैनिक एक से अधिक सुविधाएं ले रहे हैं. इस बारे में आपका क्या कहना है?
बात सही है कि कुछ लोग डीजीआर से एक से अधिक सुविधाएं ले रहे हैं. लेकिन इसकी वजह जानने के लिए पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है. इस तरह के जो भी मामले सामने आए हैं उनमें से ज्यादातर 2005 से 2009 के बीच के हैं. यह वह समय था जब हमारे पास न तो रिकॉर्ड रखने के लिए कोई कंप्यूटरीकृत व्यवस्था थी और न ही निगरानी के लिए कोई प्रभावी तंत्र था. इसके अलावा एक बात यह भी है कि जो भी सेवानिवृत्त सैनिक डीजीआर से सुविधाएं हासिल करने के लिए आता है उसे एक हलफनामा देकर बताना होता है कि उसने डीजीआर से पहले कोई सुविधा नहीं ली और वह कहीं और नौकरी तो नहीं कर रहा. लेकिन इन हलफनामों में भी गलत जानकारी दे दी जाती है. व्यापक निगरानी तंत्र के अभाव में ये गड़बड़ियां चल रही थीं. लेकिन 2010 से ऐसे मामलों में काफी कमी आई है. हमने रिकॉर्ड रखने के लिए कंप्यूटरीकृत व्यवस्था विकसित की है और इसका असर दिख रहा है.
क्या आप यह कहना चाह रहे हैं कि अब डीजीआर में सब कुछ ठीक हो गया है?
अभी भी एक से अधिक सुविधाएं लेने या नौकरी करते हुए डीजीआर से सुविधाएं हासिल करने के मामले सामने आते हैं लेकिन हम उन पर तुरंत कार्रवाई करते हैं.
सिक्यूरिटी एजेंसियों और टोल प्लाजा की सबलेटिंग के भी कई मामले हैं. रक्षा मंत्रालय द्वारा गठित त्यागी समिति की रिपोर्ट में भी कई ऐसे मामलों का उल्लेख है. इसके बावजूद कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गई?
सबलेटिंग की शिकायतें तो आती हैं लेकिन इन्हें प्रमाणित करना आसान नहीं है क्योंकि जब तक मालिकाना हक किसी और व्यक्ति को देने के कागजात नहीं मिल जाएं तब तक यह साबित नहीं होता कि सबलेटिंग हुई है. जहां तक त्यागी समिति की रिपोर्ट का मामला है तो इस समिति का गठन रक्षा मंत्रालय ने किया था और रिपोर्ट भी रक्षा मंत्रालय को ही सौंपी गई थी. इस पर कार्रवाई भी रक्षा मंत्रालय को ही करनी है.
सिक्यूरिटी एजेंसियों के लिए तैयार किए गए वेतन ढांचे पर भी सवाल उठ रहे हैं. कहा जा रहा है कि एजेंसियों को अधिक मुनाफा देने के लिए दोषपूर्ण वेतन ढांचा तैयार किया गया. आखिर क्यों नया वेतन ढांचा तैयार होने के बाद भी लागू नहीं हो पा रहा?
वेतन ढांचे को लेकर कुछ आपत्तियां कई लोगों को थीं. डीजीआर ने भी इन आपत्तियों को समझने के बाद यह पाया कि कुछ सुधार की जरूरत है. इसके बाद हमने नया वेतन ढांचा तैयार करके रक्षा मंत्रालय के पास भेजा है. जैसे ही मंजूरी मिलेगी नया वेतन ढांचा लागू हो जाएगा.
सेना से सेवानिवृत्त कैप्टन टीसी यादव ने अपने दस्तावेजों में हेरफेर करके डीजीआर से कई सुविधाएं हासिल कीं और 5,000 रुपये मासिक पेंशन से सैकड़ों करोड़ रुपये का साम्राज्य खड़ा कर लिया. इस आरोप पर आप क्या कहेंगे कि यादव ने यह काम डीजीआर अधिकारियों की मिलीभगत से किया?
आज की तारीख में टीसी यादव को डीजीआर से कोई सुविधा नहीं मिल रही. हां, यह जांच का विषय जरूर है कि आखिर 5,000 रुपये मासिक पेंशन हासिल करने वाला व्यक्ति 250 करोड़ रुपये की कंपनियों का मालिक कैसे बन बैठा. लेकिन यह जांच डीजीआर के अधिकार क्षेत्र में नहीं है.