फिल्म डबल धमाल
निर्देशक इंद्र कुमार
कलाकार संजय दत्त, अरशद वारसी, रितेश देशमुख, कंगना, मल्लिका शेरावत
यूं तो ऐसी फिल्मों के बारे में लिखने को कुछ खास नया नहीं होता लेकिन रस्म है ही तो निभानी ही पड़ेगी और वह भी अच्छे से. अब हम इंद्र कुमार की तरह उस माध्यम का अपमान तो नहीं कर सकते ना जो हमारा जीवन है. आपने सिंगल धमाल देखी हो तो डबल धमाल मत देखिए और नहीं देखी हो, तब भी मत देखिए. क्योंकि बच्चों के अलावा इसे शायद ही कोई और झेल पाए और बच्चे भी झेल पाएंगे, यह ऐसा कोई भी आदमी यकीन से नहीं कह सकता जो बच्चा नहीं है. और वैसे भी बच्चों को यही सब देखना है तो कार्टून चैनलों पर इससे कहीं बेहतर विकल्प हैं. कम से कम उसमें इंसानों को तो बेवकूफी करते हुए नहीं देखना पड़ता. अगर आपके बच्चे या बड़े झेल भी सकते हों तो भी ऐसी फिल्में नहीं दिखाई जानी चाहिए. सेंसर बोर्ड जाने किस आधार पर इन्हें पास करता है. बेचने के लिए रखे गए नंगे बदन और जबरदस्ती का सेक्स ही अश्लीलता नहीं हैं.
अनीस बज्मी की शैली की ये द्वि या शून्य अर्थी तथाकथित कॉमेडी भी अश्लील है. कला के एक खूबसूरत माध्यम के साथ मजाक. और दुर्भाग्य से रितेश देशमुख, अरशद वारसी और कंगना जैसे काबिल एेक्टर इस मजाक का हिस्सा हैं. ऐसी फिल्में देखने के बाद कमजोर दिल के कुछ लोगों को तो मानवता से भी नफरत हो सकती है. ऐसी हर फिल्म में किसी चिड़ियाघर का और गुरिल्ले का एक दृश्य जरूर होता है और जिसमें फिल्म का कोई किरदार भी गुरिल्ले की खाल पहनकर जानवर बन जाता है और सोचता है कि आप खुश होंगे.
ऐसी हर फिल्म में कहीं न कहीं किसी काले, गंजे, मोटे, अपाहिज और पागल का मजाक जरूर बनाया जाता है. हद तो तब हो जाती है, जब मिमिक्री की सीमाएं लांघते हुए फिल्म ‘तारे जमीन पर’ जैसे संवेदनशील विषय का मजाक उड़ाने लगती है. तकनीकी तौर पर भी ऐसी फिल्में बंडल होती हैं. कहानी में पांच मुख्य पुरुष किरदार हैं तो पांचों को फ्रेम में रखे बिना कोई सीन शूट ही नहीं होगा. फिर वे बारी-बारी से बंदर जैसा चेहरा बनाएंगे और इस तरह बंदर का अपमान करके उसे अपने किरदारों के बराबर ले आएंगे.
यूं तो इन फिल्मों में सभी लोग किसी अजायबघर के प्राणी होते हैं लेकिन लड़कियों के किरदार ऐसे रखे जाते हैं कि वे महाबेवकूफ हों और उनका पति नकली बाल लगाकर आए तो वे उसे पहचान न सकें. इसके अलावा वे बस कुछ वाहियात से गानों में कुछ और कम कपड़ों वाली लड़कियों के साथ नाचती हैं.
ऐसी फिल्में इस समय में बन रही हैं तो यह हम सबके लिए शर्म की बात है. इतने बड़े बजट पर इनके बन सकने के लिए हमारे समाज का बेवकूफी स्तर ही जिम्मेदार है. ऐसी फिल्में भी कभी बनती थीं, इस पर बीस साल बाद हमारे बच्चे हंसते-हंसते दोहरे हो जाएंगे.
-गौरव सोलंकी