योगेश
दुनिया में शाकाहार चीज़ें की कमी हो रही है और जनसंख्या बढ़ रही है। खेती की ज़मीन कम होने से ये सब हो रहा है। भूमि अधिग्रहण ने इस समस्या को और बढ़ा दिया है। भोजन की आपूर्ति और ग़रीबों की थाली से छिनते भोजन की इस चिन्ता को एक खाद्य भविष्यविज्ञानी की भविष्यवाणी ने और बढ़ा दिया है। खाद्य भविष्यविज्ञानी ने कहा है की आज से 100 साल के बाद 2123 तक भोजन की थाली से 10 खाद पदार्थ ग़ायब हो जाएँगे। भविष्यवक्ता ने कहा है की ये सभी 10 खाद्य पदार्थ संयंत्र आधारित हो जाएँगे। लोग इनको घरों में बननाने की जगह कम्पनियों से ख़रीदकर खाने लगेंगे और वो काफ़ी महँगे हो जाएँगे, जिससे आम लोग उन्हें नहीं ख़रीद पाएँगे। इन खाद्य पदार्थों में शहद, काबुली चना, दूध, दालें, अनाज आदि शामिल हो सकते हैं। इसके पीछे की वजह दुनिया की कई बड़ी कम्पनियों का इन चीज़ें को अपने क़ब्ज़ें में लेने की कोशिश है। इन कम्पनियों में हज़ारों अंतरराष्ट्रीय भूमि निवेशों की होड़ लगी हुई है।
देश में सरकार 2020 में तीन कृषि क़ानून लायी थी, जिनको किसानों के लम्बे आन्दोलन के बाद वापस ले लिया गया। लेकिन कई किसान आज भी मानते हैं कि सरकार ने अपनी योजना को हमेशा के लिए ठण्डे बस्ते में नहीं डाला है। जब अवसर मिलेगा, सरकार किसानों की ज़मीन छीनने का काम करेगी। देश में बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण होना चिन्ता का विषय है। पिछले दिनों डेलावेयर विश्वविद्यालय के नेतृत्व में एक नये शोध में कहा गया है कि अंतरराष्ट्रीय कृषि भूमि का बड़े पैमाने पर अधिग्रहण और जंगलों को नष्ट किये जाने से जैव विविधता का ख़तरा पैदा हो रहा है। यह अध्ययन एनएसएफ के सोशियो इकोलॉजिकल सिंथेसिस सेंटर के माध्यम से लाये गये अंतरराष्ट्रीय सहयोग का उदाहरण है। लेकिन जैव विविधता के ऐसे अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण समझौतों भर से काम नहीं चलेगा।
हमारे देश में भूमि अधिग्रहण क़ानून-2013 के तहत गाँवों में भूमि अधिग्रहण पर चार गुना और शहरों में भूमि अधिग्रहण पर दोगुना मुआवज़ा देने का प्रावधान था। लेकिन अब यह मुआवज़ा घटकर दो गुना रह गया है। वहीं गाँवों में केंद्रीय परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण भूमि के सरकारी भाव पर ही होता है। सन् 2015 में सरकार ने भूमि अधिग्रहण क़ानून में संशोधन किया था, जिस पर कुछ राज्य सरकारों ने सवाल भी उठाये थे, देश की सरकार ने इसका स्पष्टीकरण दे दिया था। इस संशोधन वाले भूमि अधिग्रहण में साफ़ कहा गया है कि भूमि का मुआवज़ा राज्यों द्वारा निर्धारित मुआवज़ा ही होगा। भूमि अधिग्रहण सरकारी परियोजनाओं के लिए होने के लिए भू-अर्जन में प्रावधान दिये गये हैं। किसानों को भूमि अधिग्रहण से नुक़सान होता है। इससे उनकी कृषि योग्य भूमि छिन जाती है और वे मज़दूर बनने को मजबूर होते हैं। देश में कृषि भूमि के लगातार छिनने से शाकाहार वाले खाद पदार्थ की पैदावार भी कम होती जा रही है, जिससे हर किसी की थाली तक भोजन नहीं पहुँच पा रहा है। चिन्ता की बात यह है कि हमारे देश में किसानों की संख्या घट रही है।
स्विट्जरलैंड में बर्न विश्वविद्यालय से बाहर चलने वाले कई शोध और विकास संगठनों की एक संयुक्त अंतरराष्ट्रीय पहल से भूमि अधिग्रहण और उससे होने वाले नुक़सानों के चौंकाने वाले ख़ुलासे हुए हैं। इस पहल से सन् 2009 से अंतरराष्ट्रीय और घरेलू भूमि सौदों पर आँकड़े इकट्ठे किये गये हैं। शोध में कृषि भूमि निवेश के सबसे बड़े वैश्विक आँकड़े सामने आये हैं। सदी की शुरुआत के बाद से भूमि अधिग्रहण तेज़ी से बढऩे के कुछ उल्लेखनीय कारण हैं। सन् 2008 और सन् 2010 में वैश्विक खाद्य संकट ने खाद क़ीमतों में अचानक बढ़ोतरी ला दी, जिसे देखते हुए दुनिया भर में निर्यात पर प्रतीबंध लगा दिया गया। भूगोल और स्थानीय विज्ञान विभाग और संयंत्र और मृदा विज्ञान विभाग में सहायक प्रोफेसर काइल डेविस ने कहा है कि इन घटनाओं के कारण खाद्य आयात पर भरोसा करने वाले कई देशों ने महसूस किया कि वे इस प्रकार के दुनिया भर में होने वाले व्यवधानों से पडऩे वाले प्रभावों को नहीं झेल सकते। इन कमज़ोरियों को दूर करने के लिए खाद्य निवेश, विशेष रूप से कृषि अधारित निवेश आंशिक रूप से बढ़े। इसके अलावा पहली पीढ़ी की जैव ईंधन फ़सलों वाले देशों, जैसे- मकई, गन्ना और ताड़ के तेल आदि ने विभिन्न देशों को उन जगहों पर परियोजनाओं में निवेश करने के लिए प्रोत्साहन दिया, जहाँ कृषि भूमि अपेक्षाकृत सस्ती थी। एक बार सस्ती कृषि भूमि का अधिग्रहण हो जाने के बाद इन वस्तुओं का उत्पादन करके उन देशों को निर्यात किया जाना आसान होता है, जो बदलाव और प्रसंस्करण के माध्यम से उनका उपयोग करते हैं।
इधर, ऐतिहासिक आधार पर जंगल नष्ट किये जा रहे हैं। कुछ समय पहले शोधकर्ताओं ने 40 देशों में बड़े पैमाने पर भू-स्थित अंतरराष्ट्रीय कृषि भूमि अधिग्रहण के वैश्विक आँकड़े इकट्ठे किये थे। इन अधिग्रहणों के ऐतिहासिक पर्यावरणीय प्रभावों और अधिग्रहण के लिए निवेशों के बाद कृषि भूमि के पूरी तरह से दोहन होने पर जैव विविधता पर इसके संभावित प्रभावों पर $गौर किया गया। शोधकर्ताओं ने विश्लेषण में पाया कि किस हद तक विभिन्न क्षेत्रों में कृषि भूमि पर निवेश ने जंगलों के नुक़सान की दरों को भी बढ़ाया है। एक शोधकर्ता ने कहा कि हमने भूमि निवेश पर आधारित चार अलग-अलग क्षेत्रों- लैटिन अमेरिका, पूर्वी यूरोप, एशिया और उप-सहारा अफ्रीका को देखा। अध्ययन में पाया गया कि उप-सहारा अफ्रीका और एशिया में ज़्यादातर निवेश जंगलों के विनाश से जुड़े हैं। इसे निर्धारित करने के लिए शोधकर्ताओं ने उच्च-रिजॉल्यूशन उपग्रह के आँकड़ों का उपयोग किया। इसमें पता चला कि वनों को हर साल कहाँ से कितना कम किया जा रहा है। इससे पता चला कि भूमि निवेश के चलते नुक़सान की दर काफ़ी अधिक थी। उन्होंने यह भी अध्ययन किया कि प्रत्येक तलसला के लिए अनुबंध वर्ष के सम्बन्ध में जंगलों का नुक़सान कब और कितना हुआ।
शोधकर्ताओं ने एशिया में भी भूमि निवेश के लिए अनुबंधों के बाद जंगलों के नुक़सान की दरों में बहुत उछाल पाया। उन्होंने साफ़ किया कि भूमि अधिग्रहण की नीयत से किये गये निवेशों से जंगलों के कटान में काफ़ी बढ़ोतरी हुई है। अफ्रीका में जितना नुक़सान वनों का अधिग्रहण से हुआ है, उससे थोड़ा ही कम नुक़सान भारत में वनों को हुआ है। इस क्षेत्र में निवेश करने वाले ऐसी जगहों का लाभ उठाते हैं, जहाँ शासन-प्रशासन की मिलीभगत हो। इसका मतलब जंगलों का नुक़सान सीधे निवेशकों के कारण ही नहीं हुआ है, बल्कि घूसख़ोरों के कारण भी हुआ है। इस मिलीभगत ने उत्तराखण्ड, हिमाचल, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखण्ड, महाराष्ट्र और पूर्वोत्तर राज्यों में वन क्षेत्रों को बड़ा नुक़सान पहुँचाया है। सवाल यह है कि यदि उस कृषि और वन भूमि को ऐसे ही ग्रसा जाता रहा, तो जैव विविधता का क्या होगा? लोगों का पेट कैसे भरा जाएगा? आँकड़ों में देखा जा सकता है कि पिछले दो दशकों में भूमि अधिग्रहण के लिए निवेश तेज़ी से बढ़ा है, जो कि भविष्य के लिए ठीक नहीं। भूमि अधिग्रहण की अधिकता के लिए निवेशक राजनीतिक और प्रशासनिक ताक़तों के साथ दोस्ती बढ़ाकर उनके सहारे का उपयोग कर रहे हैं।
शोधकर्ताओं ने कहा है कि भूमि अधिग्रहण से अनुमान लगाया गया है कि इसकी बहुतायत संभावित रूप से बढ़ सकती है। यदि ऐसा हुआ, तो खाद्य पदार्थों के अलावा जैव विविधता का और संकट आना तय है। क्योंकि कृषि एक ऐसा क्षेत्र है, जो एक खाद्य पदार्थ उत्पादक प्राकृतिक प्रणाली है, जिसमें वृक्ष भी अहम हैं। आज दुनिया की एक बड़ी आबादी मांसाहार पर निर्भर है; लेकिन उनकी शाकाहार पर निर्भरता भी है, जिसे वो कभी भी शून्य नहीं कर सकते। इस तरह कृषि पर पूरी दुनिया के लोग निर्भर हैं। इसी के चलते एक वर्ग एक साज़िश के तहत कृषि भूमि के साथ-साथ वन भूमि पर भी अपना अधिकार जमाना चाहता है, जिसके लिए वह लगातार भूमि अधिग्रहण करने में लगा है।
तेज़ी से हो रहे इस भूमि अधिग्रहण से बचने के लिए हमारे देश के किसानों को एकजुट होकर इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की ज़रूरत है। अगर किसान इस समस्या के प्रति अभी भी जागरूक नहीं हुए, तो आने वाले समय में उद्योगपति भूमि के मालिक होंगे और किसान उनके खेती मज़दूर। ऐसा होने पर उद्योगपति खाद पदार्थों की मनमानी क़ीमत वसूल करने से नहीं चूकेंगे। देश के किसानों और दूसरे लोगों को चाहिए कि वे मिलकर उनकी भूमि के अधिग्रहण को रोकने की सरकार से माँग करें और भूमि पर किसानों को हमेशा के लिए अधिकार देने की माँग करें। अगर अभी ऐसा नहीं किया, तो भविष्य में कृषि भूमि, खाद संकट और जैव विविधता का सामना सबको करना पड़ेगा।