अदालती फ़ैसलों में देरी के लिए ज़िम्मेदार कौन?

हिंदुस्तान की अदालतों से ज़्यादातर लोगों की शिकायत रहती है कि उनके फ़ैसले काफ़ी देरी से आते हैं। हालाँकि यह शिकायत ग़लत नहीं है, क्योंकि देखा गया है कि फ़ैसले आने में देरी होती ही होती है। बहुत कम मामले ऐसे हैं, जिन पर कम समय में फ़ैसले आते हैं। कई मुक़दमे तो दो से तीन-चार पीढिय़ाँ तक लड़ती रहती हैं। सवाल यह है कि क्या इसके लिए केवल अदालतें और जज ही ज़िम्मेदार हैं?

हाल ही में इंडिया टुडे के एक कॉन्क्लेव में ‘जस्टिस इन द बैलेंस : माय आइडिया ऑफ इंडिया एंड द इंपॉर्टेंस ऑफ सेपरेशन ऑफ पॉवर्स इन अ डेमोक्रेसी’ विषय पर सीजेआई जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने जजों की परेशानियों को देश के सामने रखा। उन्होंने जजों की छुट्टियों को लेकर कहा कि सुप्रीम कोर्ट का हर जज सातों दिन काम करता है। उन्होंने कहा कि हम सुबह 10:30 बजे से शाम 4:00 बजे के बीच करते हैं, वह हमारे काम का एक हिस्सा है। इसके अलावा हर शनिवार को सुप्रीम कोर्ट का हर जज अपने आदेश को डिक्टेट करता है और फिर रविवार को उसी आदेश को पढ़ता है, जो उसे सोमवार को सुनाना है।

सीजेआई जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट में एक महीने में सिर्फ़ आठ से नौ दिन और पूरे साल में सिर्फ़ 80 दिन ही काम होता है। क्योंकि वहाँ कोर्ट तीन महीने भी नहीं चलती। इसी तरह ऑस्ट्रेलिया में हाई कोर्ट एक महीने में दो हफ़्ते सुनवाई ही करता है। वहाँ भी पूरे साल में 100 से भी कम दिन तक जज बैठते हैं। वहाँ कोर्ट की दो महीने की छुट्टी रहती है। इसी तरह से सिंगापुर की अदालतें पूरे साल में सिर्फ़ 145 दिन काम करती हैं। लेकिन ब्रिटेन और हिंदुस्तान में अदालतें साल में 200 दिन काम करती हैं। लेकिन लोगों को नहीं पता कि हिंदुस्तान में जजों को जो छुट्टी मिलती है, उसमें से ज़्यादातर वक़्त सुरक्षित रखे गये आदेशों को लिखने में गुज़र जाता है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि यहाँ जजों को पूरे हफ़्ते काम करना पड़ता है।

सीजेआई ने कहा कि जजों के पास छुट्टियों का उपयोग अपने लिए करने का समय ही नहीं होता, वो लगातार मुक़दमों के निपटारे में लगे रहते हैं। इसलिए वह अदालत में भाषा और टेक्नोलॉजी में कुछ तरह के बदलाव लेकर आ रहे हैं। उन्हें संगीत सुनना बहुत पसंद है।

हिंदुस्तान के पूर्व सीजेआई जस्टिस एनवी रमना (तब के सीजेआई) ने ठीक ही कहा है कि हिंदुस्तान की अदालतें काम के बोझ तले दबी हुई हैं। उनके अनुसार, हिंदुस्तान की निचली अदालतों में चार करोड़ से ज़्यादा मुक़दमे लंबित पड़े हैं। उन्होंने सीजेआई रहते हुए मुख्य न्यायाधीशों के 39वें सम्मेलन का उद्घाटन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों की मौज़ूदगी में साफ़ कहा था कि अदालतें जजों की कमी से जूझ रही हैं। देश में 10 लाख लोगों पर महज़ 20 जज हैं, जो बढ़ती मुक़दमेबाज़ी को सँभालने के लिए नाकाफ़ी हैं। उन्होंने यह भी कहा था कि 24,000 जजों के पदों में बड़ी संख्या में जजों के पद ख़ाली पड़े हैं। उस समय उन्होंने देश के 25 उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों से जल्द-से-जल्द जजों की पदोन्नति के लिए नाम भेजने को भी कहा था।

एनसीआरबी के आँकड़े बताते हैं कि हाल के वर्षों में देश में एससी, एसटी और महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध के मामले तेज़ी से बढ़े हैं। अख़बारों की सुर्ख़ियाँ देखने और सोशल मीडिया में हर दिन हज़ारों ख़बरों को देखने से पता चलता है कि देश में पिछले कुछ वर्षों से एससी, एसटी, ओबीसी, महिलाओं, किसानों, मज़दूरों और अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ अपराधों में बढ़ोतरी हुई है। एक अनुमान के मुताबिक, अदालतों में लंबित मामलों के चलते एससी, एसटी और महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले अपराध के मुक़दमे दर्ज होने में या तो देरी होती है या देरी के चलते पीडि़त ही मुक़दमे दर्ज नहीं करवा पाते हैं या पुलिस ही उनके मामलों को अपने पास रफ़ा-दफ़ा करने की कोशिश करती है। इतनी अड़चनों के बावजूद भी जो मुक़दमे दर्ज हो भी जाते हैं, उनका फ़ैसला आने में काफ़ी देरी होती है। एनसीआरबी के मुताबिक, एससी, एसटी और महिलाओं के ख़िलाफ़ बढ़ते अपराधों से ज़्यादा चिन्ता की बात यह है कि उन्हें समय पर न्याय नहीं मिलता और अधिकतर मामले अदालतों में लंबित ही रह जाते हैं।

एनसीआरबी के आँकड़ों के मुताबिक, साल 2019 में एससी के लोगों के ख़िलाफ़ 45,935 अपराध दर्ज हुए, जो कि साल 2018 के मुक़ाबले 7.3 फ़ीसदी ज़्यादा थे। मतलब साल 2019 में देश में हर 12 मिनट में एक दलित के ख़िलाफ़ अपराध हुआ। इसी प्रकार से महिलाओं के ख़िलाफ़ भी अपराध बढ़े हैं। एक अनुमान के मुताबिक, एससी, एसटी और महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराधों के ख़िलाफ़ दर्ज मुक़दमों में से छ: से आठ फ़ीसदी मुक़दमों पर ही फ़ैसला आ पाता है। इसका मतलब यह हुआ कि 92 से 94 फ़ीसदी मुक़दमों में एससी, एसटी के लोगों और महिलाओं को समय पर न्याय नहीं मिल पाता।

इसी प्रकार से एनसीआरबी के साल 2021 के आँकड़ों के मुताबिक, जेलों में मुस्लिम क़ैदियों की तादाद घटी है, जबकि हिंदू क़ैदियों की तादाद में इज़ाफ़ा हुआ है। आँकड़ों के मुताबिक, साल 2021 में मुस्लिम क़ैदियों की संख्या 18.7 फ़ीसदी हो गयी थी, जो कि साल 2020 में 20.2 फ़ीसदी थी। बहरहाल, देश में बढ़ते अपराधों का नतीजा यह हो रहा है कि देश की अदालतों में लंबित मामलों की संख्या बढ़ती जा रही रही है। जजों की कमी के चलते दशकों पुराने मामले भी अदालतों में चल रहे हैं। जजों की कमी के चलते हर रोज़ जितने पुराने मुक़दमों का निपटारा हो रहा है, उससे कहीं ज़्यादा मुक़दमे हर रोज़ अदालतों में दर्ज हो रहे हैं।

पिछले दिनों लोकसभा को दिये एक सवाल के जवाब में केंद्र सरकार ने सूचित किया था कि देश में 4.70 करोड़ मामले अदालतों में लंबित हैं, जिनमें से 69,000 मुक़दमे सिर्फ़ सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं। वहीं देश के 25 उच्च न्यायालयों में क़रीब 60 लाख मुक़दमे लंबित हैं, तो निचली अदालतों में 4,10,47,976 मुक़दमे लंबित हैं। केंद्र सरकार ने यह भी बताया कि इन आँकड़ों में अरुणाचल प्रदेश, लक्षद्वीप, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के आँकड़े शामिल नहीं हैं, जो कि उसके पास उपलब्ध भी नहीं हैं।

अदालतों में जहाँ लंबित मुक़दमों के चलते लोग परेशान रहते हैं, वहीं आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से वकील और लगातार काम के बोझ से जज परेशान रहते हैं। इसके निपटारे के लिए या तो सरकार को अदालतों और जजों की संख्या बढ़ानी पड़ेगी या फिर जजों को साल के 365 दिन लगातार 16-16 घंटे काम करना पड़ेगा, तब कहीं जाकर लंबित मुक़दमों को आगामी 10 वर्षों में 80 से 90 फ़ीसदी तक निपटाया जा सकेगा। 

पिछले दिनों क़ानून मंत्री किरेन रिजिजू ने लोकसभा में कहा था कि अदालतों में मामलों का समय पर निपटारा बहुत सारी बातों पर निर्भर करता है, जिसमें जजों और अन्य न्यायिक अधिकारियों की समुचित संख्या, आधारभूत ढाँचा, तथ्यों की जटिलता, सुबूतों की उपलब्धता, पक्षों का सहयोग, नियमों औ प्रक्रियाओं का पालन आदि शामिल हैं। हालाँकि हाल ही में उन्होंने इंडिया टुडे कांक्लेव में विवादित बयान भी दिया। उन्होंने दावा किया कि कुछ एक्टिविस्ट चाहते हैं कि कोर्ट विपक्षी दल की भूमिका निभाएँ। इस दौरान वह कॉलेजियम प्रणाली की निंदा करने से नहीं चूके और उन्होंने इसका ठींकरा कांग्रेस पार्टी के सिर पर फोड़ते हुए कहा कि यह कांग्रेस पार्टी के दुस्साहस का परिणाम है।

बहरहाल नीति आयोग ने साल 2018 में अपनी एक रिपोर्ट में लिखा था कि जिस रफ़्तार से अदालतों में मामलों का निपटारा हो रहा है, उससे लंबित पड़े मामलों के निपटारे में 324 साल से ज़्यादा का वक़्त लगेगा। सन् 2018 में 2.9 करोड़ मामले देश की अदालतों में लंबित पड़े थे। इन मामलों में से 65,695 मामले 30 साल से ज़्यादा पुराने थे। क़ानून और अदालतों की व्यवस्था के जानकार बताते हैं कि मुक़दमों में देरी का एक कारण डिजिटाइजेशन का न होना भी है। कोरोना काल में अदालतों ने ऑनलाइन सुनवाई की थी, साथ ही पिछले कुछ वर्षों से हमारे देश की अदालतों ने मुक़दमों के निपटारे में तेज़ी लाने की कोशिश की है; लेकिन तेज़ी से दर्ज होते मुक़दमों के चलते और जजों की कमी के चलते मुक़दमों के निपटारे में देरी होती है। इसके अलावा सरकारों और पूँजीपतियों के दबाव के चलते भी आम आदमी के मामले लटके रहते हैं। इसलिए बुद्धिजीवी वर्ग हमेशा कहता है कि अदालतों को दबाव मुक्त होना चाहिए और उन्हें स्वतंत्र रूप से काम करने के लिए जिस प्रकार से बनाया गया है, उनकी स्वतंत्रता को उसी प्रकार से बरक़रार रहने देना चाहिए।

जहाँ तक देश में अदालतों में जजों के पदों की बात है, तो सुप्रीम कोर्ट में कुल सेंक्शन पद 34 हैं। वहीं देश भर के सभी 25 हाई कोर्ट में कुल सेंक्शन पद 1,108 हैं। इन प्रमुख अदालतों में भी काफ़ी पद ख़ाली पड़े हैं। वहीं देश की निचली अदालतों में तक़रीबन भी हज़ारों पद जजों की नियुक्ति की राह देख रहे हैं। सरकार को चाहिए कि जजों के ख़ाली पड़े पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया जल्द पूरी करे, ताकि देश में लंबित मुक़दमों को जल्द से जल्द निपटाया जा सके। अगर सरकार इन पदों पर भर्तियों के लिए हरी झंडी नहीं देती है, तो इसमें सुप्रीम कोर्ट को पहल करनी चाहिए, ताकि जल्द से जल्द जजों की भर्ती प्रक्रिया को पूरा किया जा सके। सरकार को समझना होगा कि सिर्फ़ न्याय व्यवस्था को लेकर बड़ी-बड़ी बातें करने से काम नहीं चल सकता, उस पर अमल करना होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)