भलाई नाम भर की

बिहार में अल्पसंख्यकों के कल्याण से जुड़ी संस्थाओं की स्थिति ऐसी है कि कहीं ताले हैं और जहां ताले नहीं हैं वहां काम करने वालों को तनख्वाह के लाले हैं. अल्पसंख्यक वित्त निगम की हालत तो यह है कि बेरोजगारों के हजारों आवेदन पड़े हैं पर उसके पास एक भी पैसा नहीं कि वह जरूरतमंदों को कर्ज दे सके.

इस मुद्दे पर दो बयान गौर करने लायक हैं. पहला पंद्रह सूत्री कार्यक्रम क्रियान्वयन समिति के पूर्व अध्यक्ष शरीफ कुरैशी का है. कुरैशी कहते हैं, ‘2009 में जब मेरा कार्यकाल खत्म हुआ तो मैं अपने दफ्तर से तमाम फर्नीचर और कंप्यूटर लेकर घर चला आया क्योंकि यह सब मेरा निजी सामान था. अपने तीन साल के कार्यकाल के दौरान अल्पसंख्यकों की समस्याओं के समाधान के लिए मैं ज्यादातर अपने ही खर्च से विभिन्न जिलों में भ्रमण करता रहा, जबकि मुझे राज्यमंत्री का दर्जा प्राप्त था. मेरे हटने के बाद से पंद्रह सूत्री कार्यक्रम क्रियान्वयन समिति के दफ्तर पर ताला पड़ा है.’

दूसरा कथन बिहार राज्य अल्पसंख्यक आयोग के वर्तमान अध्यक्ष नौशाद अहमद का है. वे कहते हैं, ‘अपने पांच साल के कार्यकाल में राज्य में मैंने मुसलमानों या अल्पसंख्यकों के प्रति ऐसी कोई समस्या महसूस ही नहीं की जिसके मामले में हमें कोई कार्रवाई करनी पड़े या इस संबंध में राज्य सरकार को कोई अनुशंसा करनी पड़े. सरकार अल्पसंख्यकों की समस्या के प्रति खुद ही इतनी संवेदनशील है कि आयोग को इस मामले में दखल की जरूरत महसूस नहीं होती.’

दोनों बयानों को देखा जाए तो ये बिहार सरकार के अल्पसंख्यकों के प्रति रवैये पर एकदम विरोधाभासी टिप्पणियों जैसे लगते हैं. लेकिन इन दोनों कथनों के निहितार्थ कुछ-कुछ एक जैसे ही हैं. दूसरी टिप्पणी को अगर थोड़ी देर के लिए वाजिब मान लिया जाए तो इसका मतलब यह हुआ कि अल्पसंख्यकों की समस्याओं के समाधान की देखरेख करने वाली पंद्रह सूत्री कार्यक्रम क्रियान्वयन समिति और अल्पसंख्यकों की समस्याओं के प्रति सरकार को समय-समय पर अनुशंसा करने वाले आयोग की कोई जरूरत ही नहीं है. ऐसा इसलिए क्योंकि सरकार अल्पसंख्यकों की तमाम समस्याओं का समाधान समुचित ढंग से कर रही है. ऐसी स्थिति में अल्पसंख्यक आयोग पर सरकारी बजट का करोड़ों रुपये खर्च करने का कोई औचित्य ही नहीं है और उस पर भी पंद्रह सूत्री कार्यक्रम क्रियान्वयन समिति की तरह ताला डाल दिया जाना चाहिए. पंद्रह सूत्री कार्यक्रम क्रियान्वयन समिति अल्पसंख्यक समुदाय के विकास, उसकी शिक्षा, सुरक्षा, सांप्रदायिक दंगों के नियंत्रण और पुनर्वास आदि से जुड़े 15 महत्वपूर्ण मामलों की निगरानी करने वाली महत्वपूर्ण संस्था है. इसे केंद्र सरकार की पहल पर गठित किया गया है. हालांकि अल्पसंख्यक विभाग के मंत्री शाहिद अली खान का तर्क है कि नई व्यवस्था के तहत इस समिति की जिम्मेदारी राज्य के मुख्य सचिव को देने की बात है. लेकिन सच यह है कि पिछले तीन साल में सरकार ने इस नई व्यवस्था के तहत भी कोई शुरुआत नहीं की है.

राष्ट्रीय जनता दल के राज्यसभा सांसद प्रोफेसर जाबिर हुसैन बिहार राज्य अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष भी रह चुके हैं. वे इस पर गंभीर चिंता व्यक्त करते हैं कि अल्पसंख्यक आयोग जैसी वैधानिक संस्था की कोई रिपोर्ट पिछले छह साल में सरकार ने विधानसभा में पेश तक नहीं की जबकि 1994 में राज्य सरकार ने यह जरूरी कर दिया था कि आयोग की रिपोर्ट हर वर्ष सदन में पेश की जाए और उस पर बहस हो. हुसैन कहते हैं कि पिछले छह साल में अल्पसंख्यक आयोग को पंगु बना कर रख दिया गया है.

अल्पसंख्यकों या दूसरे शब्दों में मुसलमानों से जुड़ी दूसरी स्वायत्त संस्थाओं को जानने-समझने के क्रम में अगला नंबर आता है उर्दू परामर्शदातृ समिति का. उर्दू के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए जिम्मेदार इस समिति के तत्कालीन अध्यक्ष और उर्दू के विख्यात शायर कलीम आजिज का तीन वर्षीय कार्यकाल 15 जून, 2011 को खत्म हो चुका है. इस पद पर राज्य सरकार ने किसी नए व्यक्ति की नियुक्ति नहीं की है. चूंकि समिति के अध्यक्ष के दस्तखत से ही यहां के कर्मियों का वेतन दिया जाता है, इसलिए कर्मियों को नए अध्यक्ष के आने का इंतजार करना पड़ेगा, जो वे पिछले आठ महीने से कर रहे हैं. इस समिति में कार्यरत कर्मियों की पीड़ा मो. अयूब की बातों से झलकती है. अयूब कहते हैं, ‘पिछले कई महीनों से हम अपने अधिकारियों के निजी काम करके कुछ पैसे जुटा लेते हैं, यही मेरे परिवार का सहारा है.’ मो. अयूब समिति में चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी हैं.

अब कुछ ऐसी ही हालत बिहार उर्दू अकादमी की भी होने वाली है. अकादमी की पूरी कार्यकारिणी की मियाद चार नवंबर, 2010 को खत्म हो गई थी. पिछले 16 महीने से अकादमी बिना कार्यकारिणी के ही है. और अब हालत यह है कि 31 जनवरी, 2012 को अकादमी के लिए जिन अस्थायी सचिव मंजूर एजाजी को तैनात किया गया था उनका कार्यकाल भी 31 जनवरी, 2011 को ही समाप्त हो चुका है. सरकार की तरफ से अभी ऐसा कोई संकेत भी नहीं है कि अकादमी का अगला सचिव कब और किसको बनाया जाएगा. इसलिए अकादमी के कर्मियों को आशंका है कि उन्हें अगले महीने से अपने वेतन से वंचित होना पड़ेगा.

सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चों की शिक्षा के लिए चलाई गई योजना ‘तालीमी मरकज’ का हाल भी बुरा है. यह योजना गरीब और पसमांदा मुसलमानों के बच्चों के लिए शुरू की गई थी. पिछले तीन साल में राज्य भर में 3,700 तालीमी मरकज (शिक्षा केंद्र) खोले गए. हर केंद्र पर एक शिक्षक को नियुक्त किया गया. लेकिन ज्यादातर शिक्षकों को मिलने वाला मानदेय पिछले 14 महीने से नहीं मिला है. मो. मुअज्जम आरिफ अपने साथी दूसरे शिक्षकों के साथ जब हमसे मिलते हैं तो उनकी झल्लाहट छिपाए नहीं छिपती. आरिफ कहते हैं, ‘ऐसे रोजगार से तो बेरोजगारी ही भली थी.’ इतना ही नहीं, अधिकतर तालीमी मरकज पर मिड-डे मील की भी व्यवस्था नहीं होने के कारण गरीब बच्चे इन केंद्रों पर आने में हिचकने लगे हैं. नतीजा यह कि इन केंद्रों का वजूद भी खतरे में पड़ता नजर आ रहा है.

कमजोर वर्ग के अल्पसंख्यकों के स्वरोजगार से जुड़ी संस्था बिहार राज्य अल्पसंख्यक वित्त निगम की भी सेहत ठीक नहीं. निगम न्यूनतम ब्याज पर बेरोजगारों को कर्ज देकर स्वरोजगार के लिए प्रोत्साहित करता है. लेकिन 2011-12 में उसने एक भी पैसे का कर्ज नहीं दिया. वह भी तब जब राज्य के निगम के लोन अफसर अनवारुल हक स्वीकार करते हैं कि 2011 में निगम के पास पांच हजार से अधिक बेरोजगारों ने कर्ज के लिए अर्जी लगाई थी. अनवर कहते हैं, ‘निगम को राज्य सरकार ने इस वर्ष पैसा दिया ही नहीं तो वे आवेदकों को कहां से देंगे.’ अल्पसंख्यक वित्त निगम को केंद्र और राज्य सरकार, दोनों से एक निर्धारित राशि मिलती है.

सामाजिक कार्यकर्ता अशरफ अस्थानवी कहते हैं, ‘आप अल्पसंख्यक विभाग की वेबसाइट पर देखिए जो बताती है कि 2011 में 31 हजार 632 छात्रों को पोस्ट मैट्रिक स्काॅलरशिप दी गई, पर ऐसे अनगिनत छात्र हैं जिन्हें वह रकम अभी तक मिली ही नहीं.’ अपनी बात की पुष्टि में अस्थानवी हमारे सामने पटना के सद्दाम हुसैन और मो. शादाब को मिसाल के रूप में पेश कर देते हैं.

बात आगे बढ़ाते हुए राजनीतिक विश्लेषक रेहान गनी और पत्रकार महफूज आलम कहते हैं कि सरकार की घोषणाओं और व्यवहार में जमीन-आसमान का फर्क है. एक तरफ वह तालीमी मरकज और अल्पसंख्यकों को कर्ज देने की घोषणा तो बढ़ा-चढ़ा कर करती है, लेकिन दूसरी तरफ वह अल्पसंख्यक वित्त निगम जैसे संस्थान, जिसे कर्ज देना है, को एक पैसा उपलब्ध नहीं करवाती. ऐसी स्थिति में जरूरतमंदों को कर्ज कहां से मिलेगा. महफूज ऐसे कई आंकड़े पेश करते हैं जो सरकार की कथनी और करनी की पोल खोलते हैं.

इन तमाम सवालों और मुद्दों पर सरकार का पक्ष भी हैरान और मायूस करने वाला है. अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री शाहिद अली खान बातों-बातों में यह सच कह जाते हैं कि फिलहाल अल्पसंख्यकों से जुड़ी अकादमियों और समितियों के पुनर्गठन की कोई बात नहीं चल रही है. वे यह भी स्वीकार करते हैं कि अल्पसंख्यक वित्त निगम द्वारा बेरोजगार अल्पसंख्यकों को वित्त वर्ष 2011-12 में एक पैसे का कर्ज न दिया जाना चिंता का कारण है. पर शाहिद अली खान इस बात को टाल जाते हैं कि आखिर निगम को सरकार पैसे उपलब्ध क्यों नहीं कराती ताकि वह कर्ज दे सके.