23 मार्च, 1931 का दिन था, जब भगत सिंह के साथ सुखदेव और राजगुरु लाहौर में शहीद हुए थे। साहस और भगत सिंह के नेतृत्व वाली क्रान्ति हमेशा से पूजनीय रही है। जीवन के बहुत छोटे-से समय में उन्होंने बड़ा योगदान दिया जो आज तक प्रेरक है। लेकिन उनके क्रान्तिकारी क़दमों से ज़्यादा ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ काफ़ी कुछ ऐसा है, जिसके बारे में हम अनजान हैं।
चंडीगढ़ ग्रुप ऑफ कॉलेजेज (सीजीसी) के छात्र मोहम्मद गुंडरवाला एक ब्लॉग में कहते हैं- ‘भगत सिंह के बारे में जब भी कुछ कहा जाता है, इंकलाब ज़िंदाबाद का नारा लगाते हुए एक व्यक्ति की छवि हमारे मन में आती है। लेकिन वास्तव में वह अपने समय के तीव्र बुद्धि वाले व्यक्ति थे। उनके हाथ में हमेशा एक किताब रहती थी। उन्होंने ब्रिटिश, यूरोपीय, अमेरिकी और रूसी साहित्य का विस्तार से अध्ययन किया था।
अपनी गिरफ़्तारी से पहले उन्होंने लगभग 250 किताबें और अपने दो साल के कारावास के दौरान 300 से ज़्यादा किताबें पढ़ीं। उन्होंने एक बार अपने लेख में कहा था- ‘बम और पिस्तौल क्रान्ति नहीं ला सकते। क्रान्ति की तलवार विचारों पर धार पर तेज़ की जाती है।’ उनका तीन मुख्य विचारधाराओं में विश्वास था और वे समाजवादी क्रान्तिकारी से बहुत प्रभावित थे।
समाजवादी क्रान्तिकारी
वह कार्ल माक्र्स, लेनिन और अन्य समाजवादी विचारधाराओं से बहुत प्रभावित थे। उन्हें दु:ख हुआ, जब उन्होंने देखा कि समाज किसानों, मज़दूरों और कारख़ाने के श्रमिकों के साथ कैसा व्यवहार करता है।
इन दबे-कुचले लोगों के लिए भगत सिंह लडऩा चाहते थे। लगभग सभी स्वतंत्रता सेनानियों की प्राथमिकता देश को ब्रिटिश हुकूमत से मुक्त कराना था; जबकि भगत सिंह के लिए प्राथमिकता अन्याय और शोषण का उन्मूलन करना था। उनके अनुसार, चाहे अंग्रेज हों या हमारे अपने ही ताक़तवर लोग, पूर्वाग्रह भरा उत्पीडऩ करते रहे, तो यह पूरे राष्ट्र को नीचा दिखाएगा। उनकी क्रान्तिकारी पार्टी का नाम था- ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’।
वसुधैव कुटुम्बकम
अपने 1924 के लेख विश्व प्रेम में उन्होंने ऋग्वेद आधारित श्लोक वसुधैव कुटुम्बकम की प्रशंसा की, जिसका अर्थ है कि पूरी दुनिया मेरा परिवार है। उन्होंने सपना देखा था कि फ्रांस-जर्मनी, अमेरिका-जापान, जो उस समय के बड़े दुश्मन देश थे; एक दिन नहीं लड़ेंगे और एक-दूसरे के साथ व्यापार करेंगे। इसके लिए क्रान्ति और लड़ाई अन्याय, असमानता, पूर्वाग्रह और शोषण के ख़िलाफ़ होनी चाहिए, न कि एक दूसरे के अहंकार के ख़िलाफ़।
नास्तिकता
जबकि महात्मा गाँधी धर्मनिरपेक्षता के भारतीय दृष्टिकोण का पालन कर रहे थे, भगत सिंह धर्मनिरपेक्षता के फ्रांसीसी दृष्टिकोण के अधिक पक्ष में थे, जो कहता है कि धर्म और सरकार के बीच एक दूरी होनी चाहिए, जो आज के लोकतंत्र में भी बुरी तरह ग़ायब है। उनका एक घोषणा-पत्र, नौजवान भारत सभा में उन्होंने कहा कि धार्मिक उदासीनता और उच्च वर्ग के उत्पीडऩ के ख़िलाफ़ लडऩे के लिए विभिन्न समूहों के बीच मानवता और समानता का मूल्य क्यों महत्त्वपूर्ण है। भगत सिंह नास्तिक थे। अपने सन् 1927 के लेख ‘साम्प्रदायिक दंगे और उपचार’ में सभी भारतीयों के लिए उनका शक्तिशाली सन्देश धार्मिक विचारधाराओं के बेमेल पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय अमीर और ग़रीब के बीच असन्तुलन को देखना था।