राजस्थान में इन दिनों नयी उम्र की कलियाँ गाँव-ढाणियों के पंच परमेश्वरों के कोप से थर्रायी हुई हैं। फूल-सी मासूम ख़ुशबू पर पंचों का कहर महज़ इस बात को लेकर टूटा कि जाने-अनजाने में उसका पाँव टिटहरी के घोंसले पर पड़ गया और एक अण्डा फूट गया। नतीजतन पूरे गाँव में बवंडर उठ गया। दलितों के साथ गाहे-बगाहे होने वाली बदसलूकी की घटनाएँ राजस्थान में कोई नयी बात नहीं हैं। किन्तु यह घटना तो पूरी मानवता को ही शर्मसार करती है।
दलित रैगर समुदाय की बच्ची ख़ुशबू पहली बार स्कूल गयी थी, उसी दिन स्कूलों में बच्चों को दूध पिलाने की योजना की शुरुआत हुई थी। ख़ुशबू भी दूध लेने के लिए बच्चों की कतार में खड़ी थी, तभी टिटहरी का घोंसला उसके पाँव तले आ गया। एक मासूम बच्ची की मामूली भूल ने इस क़दर कोहराम मचाया कि आनन-फ़ानन में गाँव की पंचायत बैठी और बच्ची को जीव हत्या का दोषी मानते हुए जाति से बाहर निकालने का फ़रमान सुना दिया गया। पंच पटेलों ने तालिबानी तरीक़े से बालिका को सामाजिक बहिष्कार की सज़ा सुना दी, जो इसका अर्थ भी नहीं जानती। घर के बाहर बरसाती हवाओं के थपेड़ों और आँधी-पानी के बीच टीन शेड के नीचे रोती-बिलखती बच्ची ने एक दिन नहीं, बल्कि 10 दिन बिताये। उसे इस क़दर अछूत मान लिया गया कि उसे खाना भी दूर से फेंककर दिया जाता था, ताकि खाना देने वाला व्यक्ति उससे छू न जाए! उससे किसी के बात करने का तो प्रश्न ही नहीं था। परिवार के लिए हज़ार बंदिशें थीं। पंच पटेलों का विरोध करने का मतलब था कि बच्ची की सज़ा में और इज़ाफ़ा होता। पिता हुकुम चंद को पंच पटेलों ने ज़ुर्माने की बेडियों में जकड़ दिया। हुकुम चंद को हुक्म दिया गया कि वह पंच-पटेलों को एक किलो नमकीन और शराब की बोतल का नज़राना भेंट करे। यह घटना बूँदी ज़िले के हिंडोली उपखण्ड के ग्राम पंचायत सथूर में स्थित हरिपुरा गाँव की है।
कहते हैं कि पंचों में परमेश्वर बसते हैं और बच्चे परमेश्वर को सबसे ज़्यादा प्रिय होते हैं। लेकिन इस घटना ने इस अवधारणा पर कालिख पोत दी है। ये कैसे पंच परमेश्वर हैं, जिन्होंने अपने ऐश के लिए मासूम बच्ची को गहरे तक आहत कर दिया। उसकी असहनीय पीड़ा और उससे पैदा हुए सदमे से वह शायद ही कभी उबर पाये। 10 दिनों में भी बच्ची की मुक्ति तभी, हुई जब तत्कालीन ज़िला कलेक्टर महेश शर्मा को इस घटना की $खबर लगी। हालाँकि उनका कथन भी किताबी था- ‘गाँव वालों को अपने स्तर पर ही इससे निपट लेना चाहिए था।’
लेकिन जब पूरा गाँव ही निर्ममता का साक्षी था, तो कौन न्याय करता? बच्ची की मुक्ति को लेकर भी पंच पटेलों ने घंटों तक अजीब-ओ-ग़रीब रस्मों का पाखंड रचा। हद तो यह थी कि थानाधिकारी लक्ष्मण सिंह और अन्य अधिकारी उन्हें क़ानून का भय दिखाने की बजाय तमाशबीन ही बने रहे। वरिष्ठ पत्रकार निर्मल कुमार ने इसे बौद्धिक निर्धनता कहा। उन्होंने कहा कि बच्चे जंगल बुक तो पसन्द कर सकते हैं; लेकिन जंगलराज नहीं। मानवता जब पाखंड की मुट्ठी में क़ैद है, तो हम किस मुँह से आज़ादी का अमृतकाल मनाने जा रहे हैं?
अब मानवाधिकार आयोग इस घटना पर हाय-तौबा कर रहा है। आयोग के अध्यक्ष जस्टिस प्रकाश टाटिया यह तो कहा कि यह अत्यंत शर्मनाक और गम्भीर प्रकरण है। उन्होंने इस मामले में ज़िला कलेक्टर और ज़िला पुलिस अधीक्षक से रिपोर्ट भी तलब कर ली; लेकिन आज तक रिपोर्ट का कोई अता-पता नहीं है। न ही पंचों का अभी तक बाल बाँका हुआ है।
उदयपुर ज़िले की पंचायत समिति क्षेत्र की सलूंबर तहसील स्थित राजकीय बालिका उच्च प्राथमिक विद्यालय उथरदा में एक दलित छात्रा के साथ भी कुछ ऐसा ही सुलूक हुआ। वह उस समय दंग रह गयी, जब पोषाहार छू लेने भर से स्कूल की महिला रसोइया ने न सिर्फ़ पूरा पोषाहार ही फेंक दिया, बल्कि उसकी सात पुश्तों को गालियों से नोंच दिया। बात यहीं नहीं रुकी, अगले दिन उसे स्कूल में भी नहीं घुसने दिया। मामले ने तूल तब पकड़ा, जब घटना का वीडियो वायरल हुआ। हद तो यह है कि स्कूल के प्रधानाध्यापक शंकरलाल मीणा ने यह कहते हुए घटना पर लीपा-पोती कर दी कि हमने बच्ची के परिजनों को समझा दिया है कि अब ऐसा नहीं होगा। लेकिन एक गम्भीर घटना के लिए क़ुसूरवार महिला रसोइया और स्कूल में दाख़िल होने से रोकने वाले शिक्षकों का बाल भी बाँका नहीं हुआ।