बालासोर रेल हादसे पर उठे सवालों का नहीं जवाब
ओडिशा के बालासोर में हुए ट्रेन हादसे ने एक बार फिर देश में रेल सुरक्षा तंत्र की पोल खोल दी है। साथ ही इससे जुड़े कई सवाल भी उठा दिये हैं। मोदी सरकार त्वरित काम को अपना एजेंडा बताती है; लेकिन रेल सुरक्षा की ‘रक्षा कवच’ योजना जिस धीमी गति से चल रही है, उससे लगता है ज़मीनी हक़ीक़त उसके दावों से अलग है। हाल में ‘कैग’ की रिपोर्ट में भी रेल सुरक्षा से जुड़ी कई ख़ामियों को सामने लाया गया है। यदि इस हादसे से भी सबक़ नहीं लिया जाता है, तो सैकड़ों बेक़ुसूर लोग यूँ ही रेल हादसों में अपनी जान गँवाते रहेंगे। बालासोर दुर्घटना और अन्य रेल हादसों पर बता रहे हैं विशेष संवाददाता राकेश रॉकी :-
ओडिशा के बालासोर में रेल हादसा बताता है कि कैसे दशकों से सरकारें सुरक्षा के मामले में लापरवाह रही हैं और इस तरफ़ कुछ ख़ास ध्यान नहीं दिया गया। भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) की नवीनतम रिपोर्ट बताती है कि मोदी सरकार के बनाये राष्ट्रीय रेल सुरक्षा कोष (आरआरएसके) के पैसे का सही इस्तेमाल नहीं हुआ। दिसंबर, 2022 में संसद में पेश की गयी कैग रिपोर्ट में रेलवे सुरक्षा और भारतीय रेलवे के कार्यों में विभिन्न कमियों पर कई चिन्ताओं को उजागर किया था।
कोष के उद्देश्य के नाकाम होने का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि इसके तहत ट्रैक रिनुअल के काम के लिए 2018-19 में कुल 9607.65 करोड़ रुपये की राशि राखी गयी थी; लेकिन एक साल बाद (2019-20) ही इसमें 2,400 करोड़ की बड़ी कटौती करके इसे 7,417 करोड़ कर दिया गया। कैग की रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है कि रेलवे सुरक्षा पर जितना बजट निर्धारित किया गया था, उसे ही पूरा ख़र्च नहीं किया जा सका। भारतीय रेलवे में सुरक्षा का आलम यह है कि कैग ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि मौज़ूदा मानदंडों का उल्लंघन करते हुए 27,763 कोचों यानी 62 फ़ीसदी में अग्निशमन यंत्र उपलब्ध ही नहीं कराये गये थे।
इस हादसे की जाँच सरकार ने सीबीआई को सौंप दी। हालाँकि सीबीआई ने अभी तक दुर्घटना के कारणों को उजागर नहीं किया है। भारत में दुनिया का सबसे लम्बा रेल नेटवर्क है, जिसके तहत हर रोज़ क़रीब 2.21 करोड़ से ज़्यादा लोग रेल यात्रा करते हैं। ऐसे में सुरक्षा भारत में रेल की सबसे बड़ी चिन्ता है। लगातार होते हादसे बताते हैं कि हाल के वर्षों में हुए रेल हादसों की जो रिपोर्ट सामने आयी हैं, उनसे कोई ख़ास सबक़ नहीं सीखा गया। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, बालासोर के ट्रिपल ट्रेन हादसे में 288 लोगों की मौत हुई, 1,100 से ज़्यादा घायल हुए और यह रिपोर्ट लिखे जाने तक 81 शवों की पहचान ही नहीं हो पायी थी। ग़ैर-सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, इस हादसे में मृतकों की संख्या 500 से ज़्यादा हो सकती है।
बेशक रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव, जो लगातार घटनास्थल पर राहत कार्यों का निरीक्षण करते रहे; ने कहा है कि ओडिशा के बालासोर रेल हादसे के ‘मूल कारण’ की पहचान कर ली गयी है और जल्द ही एक रिपोर्ट में इसका ख़ुलासा किया जाएगा, इस हादसे की जाँच सीबीआई के लिए आसान नहीं होगी। उसे विभिन्न पहलुओं पर जाँच करनी होगी, जिनमें पहला यह है कि क्या यह हादसा साज़िश का नतीजा था? तो साज़िश रचने वाले कौन थे? सीबीआई अभी तक की जाँच में रेलवे के ही उन लोगों की पहचान नहीं कर पायी है; जिनकी ग़लती से यह हादसा हुआ।
सीबीआई देश की सबसे बड़ी जाँच एजेंसी है; लेकिन यदि इतिहास देखें, तो कई बड़े मामलों की जाँच बाद में ठण्डे बस्ते में डाल दी गयी। सीबीआई को इससे पहले भी दो रेल हादसों की जाँच का ज़िम्मा दिया गया था; लेकिन दोनों ही मामलों में एजेंसी किसी नतीजे पर नहीं पहुँच सकी थी। ऐसे ही 2016 में कानपुर रेल हादसे की जाँच का ज़िम्मा सरकार ने राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एनआईए) को दिया था; लेकिन चार्जशीट दायर किये बिना ही मामला बन्द कर दिया गया था। रेल मंत्री की एनआईए से जाँच करवाने की घोषणा के कुछ ही महीने बाद प्रधानमंत्री मोदी ने एक चुनाव रैली में दावा किया था कि कानपुर रेल हादसा एक साज़िश थी और दोषियों को सख़्त सज़ा दी जाएगी। हालाँकि इसके एक साल बाद एनआईए ने हादसे की जाँच की फाइल बन्द कर दी और चार्जशीट भी दायर नहीं की। उसके बाद कभी हादसे का कोई सच सामने नहीं आया।
उधर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े ने प्रधानमंत्री मोदी को लिखे एक पत्र में कहा कि बालासोर रेल हादसे की जाँच के लिए केंद्रीय जाँच ब्यूरो (सीबीआई) को शामिल करना सरकार की जवाबदेही तय करने के किसी भी प्रयास को पटरी से उतारने की रणनीति का हिस्सा है। सीबीआई, या कोई अन्य $कानून प्रवर्तन एजेंसी, तकनीकी, संस्थागत और राजनीतिक विफलताओं के लिए जवाबदेही तय नहीं कर सकती है। इसके अलावा उनके पास रेलवे सुरक्षा, सिग्नलिंग और रखरखाव प्रथाओं में तकनीकी विशेषज्ञता का अभाव है।
सुरक्षा कोष पर ही सवाल
रेल यात्रा को सुरक्षित बनाने के लिए साल 2017-18 में रेलवे सुरक्षा कोष का गठन किया गया था। इसके पहले सभी ट्रैक रिन्यूअल का काम डीआरएफ से होता था। रेलवे सुरक्षा कोष के गठन के बाद यह ज़िम्मा उसके पास आ गया। कैग की रिपोर्ट बताती है कि दिसंबर, 2015 के आकलन के अनुसार रेलवे को ट्रैक रिन्यूअल के लिए 1,54,000 करोड़ रुपये की ज़रूरत थी। इसमें से रेलवे सुरक्षा फंड के ज़रिये 1.19 करोड़ रुपये के फंड का आवंटन होना था। लेकिन रेलवे सुरक्षा कोष के पास तो ज़रूरी पैसा ही नहीं है कि वह फंड दे सके। कैग रिपोर्ट के अनुसार, अगले 5 साल में 1,00,000 रुपये का कोष में आवंटन होना था। लेकिन 2017-18 से लेकर 2020-21 के दौरान बजट आवंटन के ज़रिये 20,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया। और उसमें भी वास्तव में उसे केवल 4,425 करोड़ रुपये ही मिले, अर्थात् 78.88 फ़ीसदी रक़म मिली ही नहीं।
देश में रेलवे की सुरक्षा को लेकर ढिंढोरा पीटा जाता है; लेकिन कैग की एक अन्य रिपोर्ट बताती है कि रेलवे सुरक्षा कोष का दुरुपयोग कर इस पैसे से फुट मसाजर, क्रॉकरी, बिजली के उपकरण, फर्नीचर, सर्दियों की जैकेट, कम्प्यूटर और एस्केलेटर ख़रीद लिये गये या इस पैसे को उद्यान विकसित करने, शौचालय बनाने, वेतन-बोनस भुगतान करने या झंडा लगाने में इस्तेमाल कर लिया गया।
रिपोर्ट में कहा गया है कि ग़ैर-प्राथमिकता वाले कार्यों के लिए धन के उपयोग में वृद्धि हुई, जो आरआरएसके फंड परिनियोजन ढाँचे के मार्गदर्शक सिद्धांतों के ख़िलाफ़ था, जबकि इसे बेहतर तकनीकों का उपयोग करके ट्रैक रखरखाव गतिविधियों का समय पर कार्यान्वयन सुनिश्चित करना चाहिए था।
इस बारे में भारतीय रेलवे का कहना है कि सुरक्षा कोष (आरआरएसके) का उपयोग सिर्फ़ सुरक्षा सम्बन्धी व्यय में किया गया है। सुरक्षा समिति की सिफारिशों के आधार पर रेलवे ने लोको पायलटों के लिए उचित आराम और तनाव से राहत के लिए रनिंग रूम में बॉडी मसाजर, फुट मसाजर, एयर कंडीशनिंग आदि जैसी सुविधाएँ और सुविधाएँ प्रदान की हैं। यह सामान ट्रेनों में सुरक्षित यात्रा के लिए ज़रूरी है। भारतीय रेलवे का कहना है कि सुरक्षा निधि का उपयोग सिर्फ़ सुरक्षा सम्बन्धी मामलों में किया गया है और इसके उपयोग के सम्बन्ध में जो कहा गया है, वह सच नहीं है।
बालासोर के भीषण हादसे के बाद ट्रैक रखरखाव पर उठे सवालों पर भारतीय रेलवे ने कहा कि उसने 2020 में पुराने ट्रैक (ट्रैक नवीनीकरण) को बदलने के लिए राष्ट्रीय रेल संरक्षा कोष (आरआरएसके) से 13,523 करोड़ रुपये ख़र्च किये। हालाँकि यह राशि अभी भी भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की अनुमानित राशि के 44,936 करोड़ से कम थी, जो इस उद्देश्य के लिए ख़र्च होनी थी।
कोष के लिए रेलवे को प्रत्येक वित्तीय वर्ष में वार्षिक 5,000 करोड़ रुपये का योगदान देना था। हालाँकि कैग ने पाया कि प्रतिकूल आंतरिक संसाधन स्थिति के कारण, रेलवे चार वित्तीय वर्षों क्रमश: 2017-18, 18-19, 19-20 और 20-21 के लिए वांछित योगदान को पूरा करने में विफल रहा। कुल मिलाकर रेलवे के वित्त पोषण में 15,775 करोड़ रुपये का घाटा था। भारतीय रेलवे की स्थायी समिति ने कहा कि ‘रेलवे के आंतरिक संसाधनों से आवश्यक धन का विनियोजन न होने के कारण आरआरएसके का उद्देश्य धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है।’ रिपोर्ट में जो चिन्ताजनक बात कही गयी है, वह यह है कि धन की कमी के कारण सुरक्षा सम्बन्धी कार्य रुके हुए थे।
ख़ामियों में सुधार नहीं
पिछले साल सितंबर में संसद में रेलवे की एक ऑडिट रिपोर्ट पेश की गयी थी। इस रिपोर्ट में रेल सुरक्षा में कई गम्भीर ख़ामियाँ सामने आयी थीं। रेल मंत्री वैष्णव ने कहा कि दुर्घटना इलेक्ट्रॉनिक इंटरलॉकिंग में बदलाव के कारण हुई। हालाँकि भारत के शीर्ष ऑडिटिंग निकाय कैग ने 2022 में ट्रेनों के पटरी से उतरने की घटनाओं को लेकर चिन्ता जतायी थी। रिपोर्ट में यह पता लगाने के लिए कहा गया था कि रेल मंत्रालय ने ट्रेनों के पटरी से उतरने और ट्रेनों को टकराने से रोकने के स्पष्ट उपाय तय या कार्यान्वित किये हैं या नहीं? उसने इंस्पेक्शन में बड़ी कमी, हादसों के बाद जाँच रिपोर्ट जमा करने या स्वीकार करने में विफलता, प्राथमिकता वाले कार्यों के लिए तय रेलवे फंड का उपयोग नहीं करना, ट्रैक नवीनीकरण के लिए फंडिंग में कमी और सुरक्षा के लिए अपर्याप्त स्टाफ को लेकर गंभीर चिन्ता जतायी थी।
छानबीन से ज़ाहिर होता है कि हाल के वर्षों में रेलवे पटरियों की ज्योमेट्रिकल और स्ट्रक्चरल कंडीशन का आकलन करने के लिए ज़रूरी ट्रैक रिकॉर्डिंग करने वालों ने 30-100 फ़ीसदी तक कम इंस्पेक्शन की। रिपोट्र्स में ट्रैक मैनेजमेंट सिस्टम में विफलताओं की बात कही गयी है, जिनमें आज तक कोई सुधार नहीं किया। एक रिपोर्ट के मुताबिक, ट्रैक प्रबंधन प्रणाली ट्रैक रखरखाव गतिविधियों की ऑनलाइन निगरानी के लिए एक वेब-बेस्ड एप्लिकेशन बनायी गयी है; लेकिन जाँच में टीएमएस पोर्टल का इन-बिल्ट मॉनिटरिंग मैकेनिज्म चालू नहीं पाया गया था। देश में रेल के अप्रैल, 2017 से मार्च, 2021 तक ‘इंजीनियरिंग विभाग’ के कारण डिरेलमेंट के 422 मामले सामने आये थे। इनमें 171 मामले बोगियों के पटरी से उतरने के लिए ज़िम्मेदार प्रमुख कारणों में ट्रैक के रखरखाव, जबकि 156 मामले ट्रैक पैरामीटर की सीमा से अधिक विचलन के थे। रिपोर्ट के मुताबिक, डिरेलमेंट की घटनाओं के पीछे ख़राब ड्राइविंग / ओवर स्पीड भी प्रमुख कारण हैं। ऑपरेटिंग डिपार्टमेंट के कारण होने वाली दुर्घटनाओं की संख्या 275 थी। इसके अलावा प्वाइंट्स की ग़लत सेटिंग और शंटिंग ऑपरेशन में अन्य ग़लतियाँ 84 प्रतिशत घटनाओं के लिए ज़िम्मेदार बतायी गयी हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि अधिकांश डिरेलमेंट की घटनाएँ पाँच कारणों से हुईं। इनमें नियम और संयुक्त प्रक्रिया आदेश, कर्मचारियों का प्रशिक्षण / काउंसलिंग, संचालन का सुपरविजन, विभिन्न विभागों के कर्मचारियों के बीच समन्वय और संचार और शेड्यूल इंस्पेक्शन शामिल हैं। क़रीब 63 फ़ीसदी मामलों में जाँच रिपोर्ट स्वीकार करने वाले अधिकारी के पास निर्धारित समय सीमा में जमा नहीं की गयी और 49 फ़ीसदी मामलों में स्वीकार करने वाले अधिकारियों की ओर से रिपोर्ट की स्वीकृति में देरी की गयी। कैग रिपोर्ट में कहा गया है कि ट्रैक नवीनीकरण कार्यों के लिए धन के आवंटन में कमी आयी है और पहले से आवंटित राशि का भी पूरी तरह से उपयोग नहीं किया गया है।
देश में 2017 से 2021 के बीच डिरेलमेंट की 1,127 घटनाओं में से 289 (26 फ़ीसदी) घटनाएँ ट्रैक नवीनीकरण से जुड़ी हुई हैं। इस दौरान मानवयुक्त 2,908 रेलवे क्रॉसिंग (नौ फ़ीसदी) को समाप्त करने के लक्ष्य में से केवल 2,059 (70 फ़ीसदी) क्रासिंग को ख़त्म किया गया था। कैग ने अपनी आख़िरी रिपोर्ट में सि$फारिश की है कि रेलवे दुर्घटना से संबंधित जाँच पूरी करने और उसे अंतिम रूप देने के लिए निर्धारित समय-सीमा का कड़ाई से पालन सुनिश्चित करे और ट्रैक का रखरखाव करने के लिए बेहतर टेक्नालॉजी के साथ पूरी तरह से मशीनीकृत तरी$कों को अपनाये। साथ ही रख-रखाव गतिविधियों का समय पर कार्यान्वयन सुनिश्चित करने के लिए एक मज़बूत निगरानी तंत्र विकसित किया जाए।
हादसे के बाद उठे सवाल
जिस रूट पर यह भयंकर रेल हादसा हुआ, उसे भारत का सबसे पुराना और सबसे व्यस्त रूट माना जाता है। इसका एक कारण यह भी है कि कोयले, तेल ढुलाई आदि के लिए मालगाडिय़ाँ भी इसी रूट का इस्तेमाल करती हैं। इस ट्रैक के इतने पुराने और इस पर अत्यधिक ट्रैफिक होने के कारण इसकी मरम्मत नहीं हो पाती। दूसरे हादसे की शुरुआती जाँच में सामने आयी जानकारी के मुताबिक, कोरोमंडल एक्सप्रेस को अप मेनलाइन का सिग्नल दिया गया, जिसे वह लूप लाइन में चली गयी और वहाँ खड़ी मालगाड़ी से जा टकरायी। इससे मेन ट्रैक पर गिरीं कोरोमंडल एक्सप्रेस की बोगियाँ दूसरी तरफ़ से आ रही बेंगलूरु-हावड़ा सुपरफास्ट एक्सप्रेस की बोगियों से टकरायीं। ज़ाहिर है कहीं-न-कहीं सिग्नल से जुड़ी चूक हुई। रेलवे में सुरक्षा के उपाय जिस तेज़ी से किये जाने चाहिए, वह नहीं हो रहे।
कैग की रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है कि ट्रैक के रिन्यूअल से जुड़े कामों के लिए फंड वितरण में लगातार गिरावट आयी है। इसी 17 अप्रैल को रेल मंत्रालय की तरफ़ से जारी रिपोर्ट के मुताबिक, भारतीय रेल ने वित्त वर्ष 2022-23 में 2.40 लाख करोड़ रुपये का रिकॉर्ड राजस्व हासिल किया, जो पिछले वित्त वर्ष से क़रीब 49,000 करोड़ रुपये ज़्यादा है। रेलवे का 2022-23 में ऑपरेटिंग रेशियो 98.14 फ़ीसदी रहा। अर्थात् रेलवे की कमायी का 100 रुपये में से 98.14 रुपये ख़र्च हो गया।
दिलचस्प यह है कि इसमें से क़रीब 70,000 करोड़ पेंशन फंड में ख़र्च हो गया। वेतन और दूसरे मदों पर हुआ ख़र्च अलग है। ज़ाहिर है बाक़ी में से रखरखाव के लिए कुछ नहीं बचता है। संसद की स्थायी समिति रेलवे के ज़्यादा ऑपरेटिंग रेशियो पर सवाल उठा चुकी है। इसके मुताबिक, साल 2018-19 से रेलवे का ऑपरेटिंग रेशियो 97 फ़ीसदी से ऊपर बना हुआ है।
कहाँ गया रक्षा कवच?
ट्रेन-टक्कर रोधी प्रणाली, जिसे मूल रूप से ‘रक्षा कवच’ का नाम दिया गया है, एक बड़ी उम्मीद के साथ रेलवे सुरक्षा का हिस्सा बनता दिखा था। लेकिन 2012 में हुई सफल टेस्टिंग के बावजूद यूपीए सरकार ने इस पर आगे कुछ नहीं किया। इसके 10 साल बाद मार्च, 2022 एनडीए की सरकार के समय भी सफल ट्रायल रन हुआ; लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात। मार्च, 2022 में रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव और रेलवे बोर्ड के चेयरमैन ने दो अलग-अलग ट्रेनों पर सवार होकर इस तकनीक का सफल परीक्षण किया था। दोनों बार ट्रायल में देखा गया कि दो ट्रेन आमने-सामने से टकराती हैं या नहीं। कवच के कारण आमने-सामने की ट्रेन काफ़ी मीटर दूर पूरी तरह से रुक गयीं। बेशक प्रधानमंत्री मोदी पिछले एक साल में दर्ज़न भर वन्दे भारत ट्रेन को हरी झंडी दिखा चुके हैं, रेलवे की सुरक्षा जहाँ की तहाँ खड़ी है।
‘तहलका’ की जुटायी जानकारी से ज़ाहिर होता है कि मार्च 2022 के ट्रायल के एक साल बाद महज़ 65 लोको इंजनों में कवच टेक्नोलॉजी लगायी जा सकी है। इस एक साल में रेलवे के 19 जोन में सिर्फ़ सिकंदराबाद में ही कवच लगाने की प्रक्रिया शुरू हुई है। बता दें देश में कुल 13,215 इलेक्ट्रिक इंजन हैं।
इस साल फरवरी में जब मंत्री निर्मला सीतारमण ने रेल बजट पेश किया था, तो उसमें रेलवे सुरक्षा निधि में 45,000 करोड़ रुपये ट्रांसफर करने का ऐलान किया था। पिछले साल के सफल परीक्षण के बाद रेल मंत्री ने घोषणा की थी कि 2022 से 2000 किलोमीटर की लंबाई वाले 23 रेलवे नेटवर्क कवच तकनीक का इस्तेमाल किया जाएगा। उसके बाद हर साल 4,000-5,000 किलोमीटर का नेटवर्क जोड़ा जाएगा। लेकिन सरकार उस गति से काम नहीं कर पायी। ख़ुद रेल मंत्री ने इसे स्वीकार किया था ।
ट्रेन कोलिजन अवॉइडेंस सिस्टम (टीसीएस), जिसे अब मोदी सरकार ने ‘कवच’ का नाम दिया; का पहला परीक्षण मनमोहन सिंह सरकार के दौरान अक्टूबर, 2012 में हो गया था। यह टेस्टिंग हैदराबाद में हुई और जब सफल रही, तो मनमोहन सिंह सरकार ने इसे ‘क्रांतिकारी तकनीक’ कहा था। तब इस तकनीक से लैस दो ट्रेनों को एक ट्रैक पर एक ही दिशा में चलाया गया और जब वे एक दूसरे से क़रीब 210 मीटर दूर थीं, तो रुक गयीं। इसके बाद इस तकनीक को सफल घोषित किया गया।
कांग्रेस आज मोदी सरकार (एनडीए) से सवाल पूछ रही है कि 2022 में जब रक्षा कवच का सफल ट्रायल कर लिया गया था, तो इसे पूरी तरह लागू क्यों नहीं किया गया। लेकिन सवाल कांग्रेस (यूपीए) पर भी बनता है कि जब 2012 में उसने सफल ट्रायल कर लिया था, तब उसने इस पर आगे और काम क्यों नहीं किया? इस तरह यह दोनों ही सरकारों की नाकामी है।
‘कवच’ तकनीक उस स्थिति में जब एक ट्रेन को स्वचालित रूप से रोकेगा, जब निर्धारित दूरी के भीतर उसी पटरी पर उसे दूसरी ट्रेन के आने का सिग्नल मिलता है। साथ ही भारतीय रेलवे का डिजिटल सिस्टम रेड सिग्नल के दौरान ‘जंपिंग’ या किसी अन्य ख़राबी का सिग्नल मिलने पर भी कवच के ज़रिये ट्रेन ख़ुद रुक जाती है। कवच प्रणाली लगाने की शुरुआत दिल्ली-हावड़ा और दिल्ली-मुंबई रेल मार्ग पर लगाने का प्रस्ताव था।
ओडिशा हादसे में बारे में इस तकनीक के जानकार कह रहे हैं कि कवच तकनीक होता, तो कोरोमंडल एक्सप्रेस जैसे ही सिग्नल जंप करती, तो स्वचालित रूप से ब्रेक लग जाता। ऐसा होने यह होता कि कोरोमंडल मालगाड़ी से 380 मीटर पीछे ही रुक जाती और उससे नहीं टकराती। ऐसे ही विपरीत दिशा से आ रही बेंगलूरु-हावड़ा सुपरफास्ट कवच के कारण हादसा होने से पहले ही रुक जाती। ज़ाहिर है यह हादसा रोका जा सकता था।
ऐसे में यह साफ़ है कि रक्षा कवच पर यदि तेज़ी से काम किया गया होता, तो ओडिशा हादसा रोका जा सकता था। जानकारों के मुताबिक, कवच प्रणाली का ढिंढोरा तो बहुत पीटा गया; लेकिन ज़मीन पर काम नहीं हुआ। हुआ होता, तो इतनी बड़े पैमाने पर इंसानी जानों को बचाया जा सकता था। बेशक रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव रेल हादसे के बाद रात-दिन हादसा स्थल पर राहत के काम का ख़ुद निरीक्षण करते रहे। सच यह भी है कि यह उनके मंत्रालय का ज़िम्मा था कि वह कवच प्रणाली पर बेहतर तरी$के से काम करता। लेकिन ऐसा हुआ नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी ख़ुद बार-बार रेल के आधुनिकीकरण की बात करते रहे हैं। सुरक्षा इसमें सबसे बड़ा कम्पोनेंट है; लेकिन इस पर ज़मीन पर बहुत कमज़ोर काम हुआ है।
देश के बड़े रेल हादसे
6 जून, 1981 को मानसी-सहरसा ट्रेन बागमती नदी में जा गिरी। हादसे में 300 लोगों की मौत हुई।
20 अगस्त, 1995 को फ़िरोज़ाबाद में पुरुषोत्तम एक्सप्रेस की कालिंदी एक्सप्रेस से टक्कर में कम-से-कम 350 लोगों की मौत हो गयी।
26 नवंबर, 1998 को पंजाब के खन्ना-लुधियाना सेक्शन पर खन्ना में जम्मू तवी-सियालदह एक्सप्रेस और अमृतसर-बाउंड फ्रंटियर मेल में टक्कर के बाद डिब्बे पटरी से उतरने के कारण कुल 212 लोगों की मौत हुई।
2 अगस्त, 1999 को अवध-असम एक्सप्रेस और ब्रह्मपुत्र मेल में टक्कर से कोलकाता के पास गाइसल स्टेशन पर 300 से ज़्यादा लोग मारे गये।
10 सितंबर, 2002 को राजधानी एक्सप्रेस बिहार में रफीगंज के पास धावा नदी पुल पर पटरी से उतर गयी, जिससे 130 लोगों की मौत हुई।
29 अक्टूबर, 2005 को वेलिगोंडा ट्रेन हादसे में 114 लोगों की मौत हुई।
10 जुलाई, 2011 को यूपी के फ़तेहपुर के पास कालका मेल के 15 डिब्बे पटरी से उतरने से 70 लोगों की मौत हो गयी।
7 जुलाई, 2011 को उत्तर प्रदेश के एटा ज़िले में छपरा-मथुरा एक्सप्रेस की बस से टक्कर हो गयी, जिससे 69 लोगों की मौत हुई।
20 मार्च, 2015 को यूपी के रायबरेली में देहरादून-वाराणसी की जनता एक्सप्रेस पटरी से उतर गयी, जिससे 58 लोगों की मौत हुई।
20 नवंबर, 2016 को इंदौर-पटना एक्सप्रेस कानपुर के पास पुखरायाँ में पटरी से उतर गयी, जिससे 146 लोग मारे गये।
20 नवंबर, 2016 को इंदौर-पटना एक्सप्रेस 19321 पटरी से उतर गयी, जिससे 150 यात्रियों की मौत हुई।
2 जून, 2023 ओडिशा के बालासोर में कोरोमंडल एक्सप्रेस और बेंगलूरु-हावड़ा एक्सप्रेस के बेपटरी होने और एक मालगाड़ी के टकराने से 288 लोगों की मौत हुई।
ट्रेनों की लेटलतीफ़ी
भारत में ट्रेनों की लेटलतीफ़ी कोई नयी बात नहीं है। इन दिनों वंदे भारत एक्सप्रेस को लेकर दावा किया जाता है कि यह 160 से 180 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से दौड़ सकती है। हालाँकि हाल में सूचना के अधिकार में पूछे गये सवाल के जवाब में रेलवे ने वंदे भारत के साथ ही देश की विभिन्न ट्रेनों के बारे में चौंकाने वाली बातें बतायी हैं। रेल मंत्रालय के जवाब के मुताबिक, भारत की सबसे तेज़ गति से चलने वाली वंदे भारत एक्सप्रेस ट्रेन 2021-22 में क़रीब 84 किमी प्रति घंटे और 2022-23 में 81 किमी प्रति घंटे की औसत रफ़्तार से दौड़ी है। इस अवधि यानी 2021-22 में राजधानी एक्सप्रेस की औसत रफ़्तार 71 किमी प्रति घंटा, शताब्दी की क़रीब 72 किमी प्रति घंटा, दुरंतो की 69 किमी प्रति घंटा, तेजस की 75 किमी प्रति घंटा से ज़्यादा रफ़्तार रही है, जबकि मेल एक्सप्रेस ट्रेनों की रफ़्तार 53 किमी प्रति घंटे की रही। वहीं 2022-23 में राजधानी की औसत रफ़्तार 71 किमी प्रति घंटा, शताब्दी की 69 किमी प्रति घंटा, दुरंतो की 67 किमी प्रति घंटा और तेजस की 73 किमी प्रति घंटा रही, जबकि मेल एक्सप्रेस ट्रेनों की 51 किमी प्रति घंटा रफ़्तार रही है। नीमच में आरटीआई कार्यकर्ता चंद्रशेखर गौर ने यह जानकारी आरटीआई से माँगी थी। रेल मंत्रालय ने यह भी बताया कि साल 2022-23 में कुल 2,74,587 ट्रेनें लेट हुईं, जिसमें क़रीब 4,46,206 घंटे का समय बर्बाद हुआ अर्थात् हर 18,591 दिन (50 साल 93 दिन) का समय बर्बाद हो गया।
हादसे के बाद का मंज़र
यह एक हादसा था, जिसकी तस्वीरों ने सभी को विचलित कर दिया। तीनों ट्रेन का डिब्बे बुरी तरह छितरे पड़े थे और शव जहाँ तहाँ बिखरे पड़े थे। किसी का सिर साथ नहीं था, तो किसी बाज़ू ग़ायब थे। हादसे के बाद घटनास्थल के बहुत से वीडियो सामने आये। इनमें एक वीडियो बहुत हृदयविदारक था, जिसमें दिख रहा था कि शवों को जानवरों की तरह वाहन के भीतर डाला जा रहा है। एक अन्य घटना उस व्यक्ति की है, जो अपने बेटे को शवगृह से ज़िन्दा ढूँढ लाया। उसे मृत समझकर वहाँ रख दिया गया था।
हेला राम मल्लिक नाम के इस व्यक्ति के मुताबिक, जब उन्हें बालासोर ट्रेन हादसे की ख़बर मिली, तो वह अपने घर से 230 किलोमीटर की दूरी तय करके घटनास्थल पर पहुँचे और अपने बेटे को ढूँढना शुरू किया। बेटे को ढूँढते हुए वह एक अस्थायी मुर्दाघर में भी गये और वहीं उन्होंने देखा कि उनका बेटा लाशों के ढेर में जीवित पड़ा है। बेटे को वह अस्पताल लेकर गये, क्योंकि और उसके हाथ-पैर में काफ़ी चोटें थीं। लोगों को अपने परिजनों के शव ढूँढने में भी काफ़ी दिक्क़त झेलनी पड़ी। कई शव इतने दिन बाद भी पहचाने ही नहीं गये। इसका एक कारण यह भी था कि हादसे में शव बहुत क्षत्-विक्षत हो गये थे। हादसे के बाद हर ओर चीख-पुकार मची रही। अस्पतालों के मुर्दाघर में लाशों का अंबार लगा रहा। एक घटना यह हुई कि अपने बड़े भाई का शव ले जाने के लिए एक व्यक्ति सनातन साहू कई घंटे अस्पताल के बाहर खड़ा रहा; लेकिन भाई का शव नहीं ले जा सका। कारण था अस्पताल में मुख्यमंत्री नवीन पटनायक का दौरा। सनातन साहू ने शव वाहन की माँग की तो उन्हें इंतज़ार करने को कहा गया। वैसे प्रधानमंत्री मोदी भी घटनास्थल पर आये। बहुत-से विशेषज्ञ मानते हैं कि ऐसी घटनाओं में वीवीआईपी के दौरे ऐसे होने चाहिए कि राहत कार्य प्रभावित न हों।