दुर्दशाग्रस्त किसान

किसानों के आत्महत्याएँ करने के मामलों में वृद्धि की ख़बर निश्चित ही परेशान करने वाली है। ख़ासकर तब, जब विभिन्न सरकारें किसान कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा करती रहती हैं; जिनमें आकर्षित करने वाली क़र्ज़माफ़ी योजनाएँ भी शामिल हैं। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट नामक संस्था ने हाल में एक रिपोर्ट जारी की, जिसमें बताया गया है कि 2021 में कृषि क्षेत्र के 10,881 लोगों ने आत्महत्या कर ली, जो हाल के पाँच वर्षों में सबसे ज़्यादा है। शोध करने वाले थिंक-टैंक ने पाया कि केंद्र सरकार के कृषि आय दोगुना करने के वादे के बावजूद आत्महत्या करने वाले किसानों की तादाद में बढ़ोतरी हो रही है। हक़ीक़त में मंत्रालय के सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन के आँकड़े भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि 2013 और 2019 के बीच किसानों की आय में 30 फ़ीसदी की वृद्धि तो हुई; लेकिन उनका क़र्ज़ा भी क़रीब 58 फ़ीसदी बढ़ गया।

हाल में संसद में पेश की गयी कृषि पर आधारित एक संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में ख़ुलासा किया था कि सरकार कृषि आय को दोगुना करने के अपने 2022 के लक्ष्य को हासिल करने से बहुत दूर है। समिति ने कहा कि औसत मासिक कृषि घरेलू आय महज़ 10,218 रुपये थी। रिपोर्ट के मुताबिक, आत्महत्या के सबसे ज़्यादा 4,064 मामले महाराष्ट्र में दर्ज हुए। इसके बाद कर्नाटक में 2,169 और मध्य प्रदेश में 671 मामले आता है। रिपोर्ट के मुताबिक, पंजाब में साल भर में 270 किसानों की मौत हुई। किसान नेताओं का आरोप है कि सरकारें अक्सर पंजाब, जिसने हरित क्रांति की शुरुआत की; में कृषक समुदाय की ख़राब स्थिति को कम करके दिखाती हैं। सच यह है कि नौ राज्यों में सन् 2020 की तुलना में सन् 2021 में किसान आत्महत्या के मामले बढ़े हैं। अकेले असम में क़रीब 13 गुना वृद्धि देखी गयी है। ज़ाहिर है कि खाद्यान्न पैदा करने के लिए ख़ून-पसीना देने वाले किसानों की आय दोगुनी करने का केंद्र का बड़ा लक्ष्य अभी भी सपना ही है।

किसानों के आत्महत्या करने का सबसे बड़ा कारण क़र्ज़ है। यह बात पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के एक अध्ययन में सामने आयी है। इस अध्ययन के मुताबिक, कम-से-कम 83 फ़ीसदी आत्महत्याएँ क़र्ज़ के कारण हुईं। आत्महत्या करने वाले ऐसे किसानों के पास पाँच एकड़ से कम भूमि थी। यह कुल आत्महत्या मामलों का 45.61 फ़ीसदी है, जबकि छोटे किसानों (2.47 एकड़ और 5 एकड़ के बीच की भूमि वाले किसानों) के मामले 30.53 फ़ीसदी हैं।

अध्ययन में पाया गया है कि जान देने वाले अधिकतर किसान अपनी युवावस्था में थे। अध्ययन के मुताबिक, 72 फ़ीसदी पीडि़त 15-35 वर्ष की आयु वर्ग के थे। अध्ययन बताता है कि किसानों द्वारा आत्महत्या के प्रमुख कारण किसान विरोधी $कानून, ख़राब सरकारी नीतियाँ, ऋणग्रस्तता, बढ़ती इनपुट लागत, घटती आय, महँगी स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा, उच्च ब्याज दर, सब्सिडी के वितरण में भ्रष्टाचार, फ़सल ख़राब होना, ख़राब मानसिक संतुलन और फ़सलों की बिक्री का संकट आदि थे। इसके अलावा कई बार तो एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य इतना कम था कि उससे लागत भी पूरी नहीं हो पाती। कुछ मामलों में तो यह सुनिश्चित भी नहीं होता। इस निराशाजनक परिदृश्य को देखते हुए सरकार को कृषि क्षेत्र, जिस पर 70 फ़ीसदी से ज़्यादा लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से निर्भर हैं; की मदद के लिए तत्काल क़दम उठाने चाहिए।