संगीत छपाई का स्तर इन दिनों लुगदी साहित्य की छपाई के स्तर का हो गया है. केंद्रीय नामकरण आयोग जैसा कुछ होता लुटियन में, तो नाम दे देते ‘चूरन संगीत’. क्योंकि जिस तरह दशक भर से राम गोपाल वर्मा फिल्में छाप रहे हैं उसी तरह आजकल साजिद-वाजिद छपा-छप गाने छाप रहे हैं. और ‘दबंग’ तो जैसे साजिद-वाजिद की ‘प्यासा’ हो गई है, बेहिचक अपनी हर फिल्म में दबंग के गीतों का ‘एक्सटेंशन’ रखना वे रचनात्मकता का आखिरी नियामक समझते हैं शायद. दिन लेकिन, इससे भी बुरे चल रहे हैं. तिग्मांशु धूलिया जैसा फिल्मकार जो बाजार के लिए फिल्में नहीं बनाता है (अभी तक), अपनी फिल्मों में बाजार के लिए गीत-संगीत रखते वक्त कसमसाता क्यों नहीं है? आइटम गीतों के प्रति उनकी नई आसक्ति एक और चुभती कील है.
‘बुलेट राजा’ के गीतों के पास वैसे तो कुछ अच्छी हुक-लाइनें थीं, मगर उतने अच्छे गीत नहीं. ‘तमंचे पे डिस्को’ जैसी मजेदार हुक-लाइन के साथ आरडीबी कुछ भी नया नहीं कर पाते और गाने को अपने पुराने गीतों जैसा ही बना देते हैं. बेकार. बाकी के सभी गीत साजिद-वाजिद के हैं और आपको बताने की जरूरत ही नहीं है कि कौन-सा गाना दबंग के किस गीत की याद दिलाता है. वीरता की चौड़ाई लिए इनमें से दो गीतों के पास भी बेहतर हुक-लाइन थी, ‘बुलेट राजा’ और ‘सटा के ठोको’ के नाम से, लेकिन कौसर मुनीर और संदीप नाथ से बासी संगीत पर थोड़ा-सा भी नया लिखने की कोशिश नहीं हुई. हालांकि साजिद-वाजिद ने एक नई कोशिश जरूर की है. प्रीतम की भूल भुलैया के एक गीत की हूबहू नकल की कोशिश. और आने वाले वक्त में शायद यही कोशिश उनके संगीत को एक नया आयाम दे देगी. फिल्मों में इसी को रचनात्मकता कहने का चलन है.