- मैं छठी यात्रा पर निकला हूं. रामरथ यात्रा मेरी पहली यात्रा थी. उसका मेरे राजनीतिक जीवन में सबसे अहम स्थान है. इस हिन्दुस्थान में रामरथ यात्रा का आध्यात्मिक महत्व था.
- जयप्रकाश नारायण जी से हमारे बेहद आत्मीय संबंध थे. वे जनसंघ के अधिवेशन में गए थे. तब कई लोगों ने कहा था कि जनसंघ फासीवादी पार्टी है, उसके सम्मेलन में नहीं जाइए. जयप्रकाश जी ने कहा कि जिन्हें यह लगता है कि ‘जनसंघ फासीवादी पार्टी है उन्हें यह भी मानना चाहिए कि जयप्रकाश फासीवादी है.’
- यह एक विशुद्ध राजनीतिक यात्रा है, जिसमें मैं भ्रष्टाचार की बात करूंगा. सभी जगह एक ही बात कहूंगा कि भ्रष्टाचार को हर स्तर पर देखिए. सिर्फ राजनीति का भ्रष्टाचार नहीं दिखे. सबको अपना काम ईमानदारी से करना चाहिए.
- डॉ राममनोहर लोहिया ने जनसंघ के संस्थापक पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अखंड भारत की कल्पना का जोरदार समर्थन किया था. डॉ लोहिया और जयप्रकाश, दो ही नेता हुए जिन्होंने जनसंघ को पहचाना.
- 1990 में इसी बिहार में मेरी रामरथ यात्रा रोकी गई थी. 21 साल बाद अब 2011 का समय है, जब उसी बिहार में एक मुख्यमंत्री मेरी यात्रा को हरी झंडी दिखा रहे हैं. यह बड़ा बदलाव है.
- दो साल पहले मैंने काले धन के मामले पर प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी थी. भ्रष्टाचार का मसला उठाया था. आज साफ दिख रहा है. यूपीए-2 का भ्रष्टाचार सामने आ रहा है.
- हम केंद्र सरकार से मांग करते हैं कि वह काले धन के मामले पर आगामी शीतकालीन सत्र में श्वेतपत्र जारी करे और मजबूत लोकपाल बिल लाए.
- प्रधानमंत्री कौन होगा, यह पार्टी तय करेगी. मैंने 2009 में भी अपना नाम खुद से तय नहीं किया था. नीतीश कुमार पीएम बनेंगे या नहीं, यह एनडीए के साथी आपस में तय करेंगे. नरेंद्र मोदी ने बिहार से यात्रा शुरू करने पर बधाई दी है और अपने ब्लॉग पर मोदी ने लिखा है कि वे गुजरात में यात्रा का स्वागत करेंगे. वैसे नरेंद्र मोदी का कुछ कहना या लिखना इतना जरूरी क्यों है?
11 अक्तूबर को बिहार के सिताबदियारा से चलकर उसी शाम पटना पहुंचने और 12 अक्तूबर को पटना से रवाना होने के पहले करीबन 24 घंटे के अंदर लालकृष्ण आडवाणी द्वारा अलग-अलग सभाओं व सम्मेलनों में दिए गए बयान कुछ ऐसे ही थे. आडवाणी अपनी तरह से अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग बातें कहने की कोशिश करते रहे. कभी अभिभावक की भूमिका में भ्रष्टाचार पर पाठ पढ़ाते दिखे तो कभी रामदेव और अन्ना के आंदोलन में उठे मसलों को मिलाकर कॉकटेल बनाते. लेकिन भ्रष्टाचार पर भाषण देते हुए गलती से भी अन्ना हजारे का नाम लेने की गलती उन्होंने नहीं की. न ही काला धन वापसी के प्रसंग में रामदेव के आंदोलन की चर्चा की. हां, इस एक बात पर बार-बार जोर देते रहे कि दो साल पहले हमने काला धन और भ्रष्टाचार के सवाल पर प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी थी. शायद यह बताने की जुगत में कि रामदेव और अन्ना के आंदोलन के बाद भ्रष्टाचार के खिलाफ बने माहौल का फायदा उठाने की कोशिश में मैं नहीं हूं बल्कि पहले मैंने ही भ्रष्टाचार के खिलाफ मोर्चा खोला था. भ्रष्टाचार की मुखालफत का नायक मैं ही हूं, कोई और नहीं.
आडवाणी यह सब बताकर यह समझाने की कोशिश करते हैं कि वक्त के प्रवाह में सब बदल रहा है. मैं बदल गया हूं
आडवाणी अपने भाषणों में कभी सत्ता परिवर्तन, कभी व्यवस्था परिवर्तन तो कभी-कभी सत्ता परिवर्तन के जरिए व्यवस्था परिवर्तन का पाठ पढ़ाते हैं लेकिन कर्नाटक और उत्तराखंड में भाजपाई मुख्यमंत्री बदल दिए जाने के सवाल पर कुछ नहीं कहते. वे नीतीश कुमार के विकास की जमकर तारीफ करते हैं, उनके साथी अनंत कुमार मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार के विकास मॉडल को भी रखते हैं. मगर नरेंद्र मोदी का नाम गलती से एक बार भी नहीं लिया जाता. नीतीश की प्रशंसा करने के साथ ही वे यह भी जरूर बताते हैं कि दो दशक पहले इसी बिहार में सांप्रदायिक कहकर मुझे जेपी के ही एक शिष्य ने गिरफ्तार किया था. आज उसी बिहार में जेपी के ही दूसरे शिष्य मुझे गले लगा रहे हैं. आडवाणी यह सब बताकर यह समझाने की कोशिश करते हैं कि वक्त के प्रवाह में सब बदल रहा है. मैं बदल गया हूं. मेरी छवि ग्राह्य हो गई है. कुछ-कुछ धर्मनिरपेक्ष जैसी.
वे अलग-अलग सभाओं में अलग-अलग बातें बोलते हैं. कभी भटकाव, द्वंद्व और दुविधा जैसी स्थिति के साथ तो कई बार सामान्य भारतीय बुजुर्ग की तरह एकरागी हो जाते हैं. जैसे कि 11 अक्टूबर की शाम पटना की सभा में हुए. बचपन से फिल्म देखने का जो उनका शौक रहा है, उसे साझा करते रहे और फिर एक फिल्म और एक गीत पर ही आधा घंटा बोल गए. आडवाणी उस समय भी एकरागी बुजुर्ग से हो जाते हैं जब पहले संवाददाता सम्मेलन में ग्लोबल फाइनैंशियल इंटेग्रिटी रिपोर्ट व एक किताब को हाथ में लेकर अपनी धुन में बोलते जाते हैं. वे और बोलते लेकिन बीच में ही रविशंकर प्रसाद इशारे में रोकते हैं कि बस, हो गया, अब बात बदलिए. लेकिन तमाम भटकाव-द्वंद्व-दुविधा और एकरागी होने के बावजूद सभी सभाओं में आडवाणी 90 के दशक की अपनी रामरथ यात्रा का स्मरण जरूर करते हैं. गर्व के साथ.
कांग्रेस, लोजपा, राजद जैसी पार्टियां भी आडवाणी की इस यात्रा में अपने लिए संभावना के सूत्र तलाशने में लगी हुई हैं
आडवाणी के बोलने से पहले इस जनचेतना यात्रा की कमान संभाल रहे यात्रा संयोजक व भाजपा के महामंत्री अनंत कुमार सभी जगह विस्तार से बताते हैं कि यह यात्रा 38 दिनों की है. 23 प्रांतों से गुजरेगी. 7600 किलोमीटर का सफर होगा. आडवाणी सभी जगह जनचेतना फैलाएंगे और फिर दिल्ली में संसद के शीतकालीन सत्र से पहले विराट सभा करेंगे. अनंत कुमार साफ-साफ कहते हैं कि दिल्ली में सत्ता बदलना जरूरी है. अलग-अलग सभाओं में पहुंच रहे दूसरे भाजपा नेता भी खुलकर इस यात्रा का मकसद सत्ता परिवर्तन बताते हैं, लेकिन आडवाणी खुद ऐसा नहीं कहते. आडवाणी खुद स्पष्ट नहीं कर रहे कि 84 साल की उम्र में 7600 किलोमीटर की यात्रा पर वे क्यों निकले हैं. अपनी पत्नी कमला आडवाणी, बेटी प्रतिभा आडवाणी के साथ इस यात्रा में ही आठ नवंबर को वे अपना जन्मदिन मनाएंगे, उम्र के 85वें साल में प्रवेश करेंगे. परिवार के सभी सदस्यों को साथ लेकर बुजुर्ग आडवाणी किससे लड़ने निकले हैं, यह भी नहीं बता रहे. क्या खुद की उम्र को चुनौती देने और उसके जरिए यह दिखाने-बताने कि अभी वे अपनी पारी जारी रखने में सक्षम हैं! पहले पार्टी के अध्यक्ष पद से हटाए जाने, फिर प्रतिपक्ष के नेता का पद भी ले लिए जाने के बाद वे भाजपा के अंतर्द्वंद्व से निपटने, संघ की छाया से बाहर निकलकर आखिरी पारी में अपनी ताकत दिखाने के अभियान में निकले हैं. या फिर सीधे-सरल शब्दों में वही एक बात कि वे अपनी चिरप्रतीक्षित मुराद को पूरा करने यानी एक बार किसी तरह से प्रधानमंत्री बनने के लिए माहौल तैयार करने निकले हैं.
‘लौह पुरुष’ का दुविधाग्रस्त मौन
सिताबदियारा हो, छपरा या बिहार की राजधानी पटना, आम जनों के बीच संदेश स्पष्ट है कि यह अभियान भ्रष्टाचार के खिलाफ जनचेतना तो नहीं ही है क्योंकि अगर ऐसा होता तो यह बिहार की बजाय कहीं और से शुरू होना चाहिए था. बिहार में तो आडवाणी खुद बता रहे हैं कि यहां सुशासन है, भ्रष्टाचारियों पर नकेल कसने की कोशिश एनडीए की सरकार कर रही है. तो फिर यहां अलग से जनचेतना की क्या जरूरत थी? यह यात्रा कर्नाटक से शुरू होती तो भ्रष्टाचार के मसले पर जनचेतना जैसी बात हजम होती. पड़ोस के झारखंड से शुरू होती तो भी बात हजम होती. उत्तर प्रदेश से भी शुरू होती तो बात हजम होती.
कभी अपने दम पर पार्टी को खड़ा कर चुके आडवाणी में यह साहस नहीं कि वे अपनी खुली मंशा भी खुलकर बता सकें
सिताबदियारा, जहां से यह यात्रा शुरू हुई, वहां जनता दल यूनाइटेड के उपाध्यक्ष विकल जैसे कुछ नेताओं ने मंच से गला फाड़-फाड़कर कहा कि आडवाणी जी के नेतृत्व में केंद्र सरकार को बदलने की जरूरत है, लेकिन सिताबदियारा में विकल जैसे नेताओं की बात दबकर रह गई. सिताबदियारा से हवाई मार्ग से छपरा पहुंचने पर आडवाणी के सामने ही भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता राजीव प्रताप रूढ़ी जैसे नेता खुलकर बोलते रहे कि केंद्र की सरकार बदलने के लिए यह यात्रा है. पटना की सभा में शत्रुघ्न सिन्हा भी आडवाणी के सामने ही हुंकार भरने वाली आवाज में सबको सुनाते रहे कि उम्र पर मत जाइए, जेपी भी बुजुर्ग ही थे, जब उन्होंने युवाओं के आंदोलन की अगुवाई की और बाबू कुंवर सिंह भी 80 पार के ही थे, जब अंग्रेजों से लड़ने निकल पड़े थे. शत्रुघ्न सिन्हा आरएसएस के नागपुर मुख्यालय तक अपनी बात पहुंचाना चाह रहे थे या पटना के गांधी मैदान में उपस्थित जनता को सुनाना चाहते थे, लेकिन वे खुलकर कह रहे थे कि आडवाणी के नेतृत्व में ही सत्ता परिवर्तन होगा और फिर व्यवस्था परिवर्तन. और फिर इतने के बाद जब आडवाणी से भी पूछा जाता है तो वे साफ-साफ कहने की बजाय बात घुमाते हैं. यह पूछने पर कि आप पीएम बनना चाहते हैं- आडवाणी साफ-साफ ना या हां कहने की बजाय यह कहते हैं कि यह पार्टी तय करेगी. आडवाणी पीएम पद के लिए ना नहीं कह रहे इससे यह साफ है कि उनकी उम्मीदें अभी टूटी नहीं हैं, लेकिन यह जनचेतना यात्रा उन्हीं उम्मीदों को पंख लगाने के लिए है यह बताने का साहस भी नहीं जुटा पा रहे. कभी अपने दम पर पार्टी को खड़ा करने और सत्ता तक पहुंचाने वाले आडवाणी में यह साहस नहीं है कि वे अपनी एक खुली मंशा को भी खुलकर बता सकें. या ये एक बुजुर्ग नेता के पारंपरिक मूल्य हैं, उस नेता के जो खुद के बारे में खुद कहने की बजाय दूसरों से कहलवाना-सुनना चाहता है.
किसके आडवाणी
पटना के मौर्य होटल में प्रेसवार्ता के दौरान एक दृश्य देखने लायक था. आडवाणी के पास एक सवाल गया कि आपके दायें-बायें प्रधानमंत्री पद के दोनों उम्मीदवार बैठे हुए हैं…अभी सवाल पूरा होता कि बायीं ओर बैठी लोकसभा में प्रतिपक्ष की नेता सुषमा स्वराज किसी शरमाती हुई गंवई महिला की तरह मुंह पर हाथ रखकर इशारे में कहती रहीं, क्या कह रहे हैं, मैं नहीं हूं उम्मीदवार. उस समय आडवाणी की दायीं ओर बैठे राज्यसभा में प्रतिपक्ष के नेता अरुण जेतली मौन साधकर मंद-मंद मुस्कुराते रहे. उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. जेतली के मौन और सुषमा के दबे हुए इनकार के अपने-अपने मायने हैं.
आडवाणी की यात्रा के आरंभ में, आडवाणी के बाद इन्हीं दोनों वरिष्ठ नेताओं की उपस्थिति थी. रविशंकर प्रसाद भी थे, शाहनवाज हुसैन भी थे, राजीव प्रताप रूढ़ी भी थे लेकिन ये तीनों बिहार के ही हैं, इसलिए इनका होना कोई बहुत अहम नहीं है. अनंत कुमार यात्रा के संयोजक हैं, इसलिए उनका रहना स्वाभाविक माना गया. सिताबदियारा में, जहां से आडवाणी की यात्रा की शुरुआत हुई, वह बिहार और उत्तर प्रदेश की सीमा पर है. वहां बिहार के भाजपाइयों के साथ-साथ उत्तर प्रदेश के कुछ नेता ही दिखे जिनमें मिर्जापुर के पूर्व सांसद बिरेंद्र सिंह मस्त, उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री भरत सिंह और प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही ही थे. राजनाथ सिंह उत्तर प्रदेश के हैं, उनका नहीं रहना सवाल बना रहा. कलराज मिश्र सिताबदियारा में नहीं थे, यह भी सवाल बना रहा. भाजपा के मुख्यमंत्री कई प्रदेशों में है. पास के झारखंड में, मध्य प्रदेश में, छत्तीसगढ़ में, कर्नाटक में, उत्तराखंड में. गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नहीं आने का कारण तो साफ है कि तब नीतीश कुमार यात्रा का स्वागत करने और हरी झंडी दिखाने को नहीं रहते और शायद यह यात्रा भी बिहार से शुरू नहीं हो पाती. छोटे मोदी यानी बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी सांकेतिक तौर पर यह कहकर नरेंद्र मोदी को चुनौती देते हैं कि विकसित प्रदेश की कमान संभालकर उसे विकसित बनाने का दावा करना कोई उपलब्धि नहीं होती, बिहार जैसे राज्य में कोई कुछ करके दिखाए, उसका महत्व ज्यादा है. लेकिन मोदी के अलावा दूसरे भाजपाई मुख्यमंत्री क्यों आडवाणी की इस संभावित आखिरी राजनीतिक यात्रा में नहीं पहुंच सके? जबकि नरेंद्र मोदी ने सिर्फ उपवास किया तो वहां हाजिरी लगाने पहुंचे नेताओं की फौज थी. और तो और, पड़ोसी राज्य झारखंड के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा तक इसमें शामिल हुए थे. मगर वे आडवाणी की यात्रा के शुरुआती उत्सव में शामिल नहीं हुए. इन सबके बीच सवालों का सवाल यह रहा कि इस यात्रा के आरंभ में ही भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी उपस्थिति से लेकर औपचारिक चर्चा तक में क्यों गायब किए जा रहे हैं. यदि यह भाजपा के पवित्र उद्देश्यों को लेकर की जा रही राष्ट्रव्यापी यात्रा है तो इस आयोजन के आरंभ में पार्टी अध्यक्ष गडकरी आखिर कुछ देर के लिए भी क्यों नहीं आ सके? उत्तर प्रदेश की सीमा से भी यात्रा की शुरुआत होने के बावजूद राजनाथ सिंह क्यों नहीं दिखे? दिखने के लिए भी दिखते तो ये सवाल नहीं उठते. एक भाजपा नेता कहते हैं, ‘राजनाथ सिंह कभी नहीं चाहते कि आडवाणी का कद बढ़े और गडकरी पहले ही घोषणा कर चुके हैं कि यह यात्रा प्रधानमंत्री पद के लिए नहीं है.’
उत्तराधिकार अभियान वाया प्रतिभा की प्रतिभा
मंच पर बैठे-बैठे आडवाणी जब पसीने से तर-ब-तर हो जाते हैं तो बगैर मांगे ही पीछे से उन्हें नैपकिन पकड़ाया जाता है. आडवाणी चेहरे को पोंछते हैं और फिर पीछे हाथ बढ़ा देते हैं. उनके हाथ से नैपकिन ले लिया जाता है. आडवाणी सिर्फ पीछे मुड़कर देखते भर हैं, बगैर उनके कुछ बोले ही समझ लिया जाता है कि उन्हें पानी चाहिए. उनके हाथों में पानी का ग्लास दे दिया जाता है. आडवाणी की दैहिक भाषा से ही उनकी जरूरतों को समझने की समझ कोई अर्दली नहीं बल्कि उनकी 33 वर्षीया बेटी प्रतिभा आडवाणी रखती हैं. प्रतिभा इस यात्रा में अपने पिता के साथ परछाईं की तरह दिख रही हैं. यात्रा के पहले दिन से ही. खुद कहीं कुछ नहीं बोलतीं लेकिन उनके बारे में हर सभा में बोला जाता है. सिताबदियारा के मंच पर आडवाणी के आगमन के पहले मंच से उद्घोषक बार-बार बताते रहे कि आज लालकृष्ण आडवाणी की धर्मपत्नी कमला आडवाणी और पुत्री प्रतिभा आडवाणी भी यहां आ रही हैं. कमला आडवाणी नहीं आ सकीं, 33 वर्षीय प्रतिभा जरूर दिखीं. सिताबदियारा में प्रतिभा सिर्फ दिखीं, थोड़ी देर बार छपरा पहुंची तो जनचेतना यात्रा के लिए तैयार थीम साॅन्ग ‘अब बस…’ को सुनाने-बजाने के पहले प्रतिभा को दिखाया गया. छपरा में मंच का संचालन कर रहे भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता राजीव प्रताप रूढ़ी ने प्रतिभा से आग्रह किया कि वे खड़ी होकर सबका अभिवादन स्वीकार करें. और फिर छपरा से पटना आते-आते यात्रा के पहले दिन की आखिरी सभा में आडवाणी ने खुद अपनी बेटी के बारे में बोला-बताया. उन्होंने बताया कि कैसे उन्होंने अपनी बेटी प्रतिभा के साथ मिलकर अपनी यात्रा का यह थीम सॉन्ग तैयार किया है.
प्रतिभा अपने पिता की सभाओं और यात्राओं में पहले भी जाती रही हैं लेकिन टीवी एेंकरिंग से अपनी पहचान बनाने के बावजूद इनमें मौन गुड़िया की तरह ही दिखती रही हैं. इस बार भी मौन ही साधे हुए हैं लेकिन हर सभा में उनके नाम की चर्चा जरूर हो रही है. सभा-सम्मेलन क्या, संवाददाता सम्मेलन में भी एक बार वे जरूर दिखती हैं. कुछ बोलती नहीं, कभी-कभी तसवीर लेती हैं, वीडियो रिकाॅर्डिंग करती हैं और फिर आडवाणी की कुरसी के पीछे बैठी रहती हैं. कहा जा रहा है कि आडवाणी संभवतः अपनी आखिरी राजनीतिक यात्रा में निकले हैं तो उनके साथ उनकी पत्नी और बेटी का होना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं क्योंकि वे लगभग 40 दिन तक यात्रा में रहेंगे. यात्रा के दौरान ही आडवाणी का जन्मदिन भी आएगा. उम्र के हिसाब से यात्रा में आडवाणी का खयाल रखने वाला कोई अपना उनके साथ जरूर चाहिए. लेकिन जिस तरह से प्रतिभा मंचों पर दिख रही हैं, उनकी उपस्थिति दर्ज करवाई जा रही है, उससे यह सुगबुगाहट भी हो रही है कि कहीं आडवाणी आखिरी जोर लगाकर अपनी बेटी को राजनीति का पाठ तो नहीं पढ़ा रहे. भाजपा प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन कहते हैं, ‘प्रतिभा पहले भी कई यात्राओं में हमेशा साथ रही हैं इसलिए इसके राजनीतिक मायने नहीं निकाले जाने चाहिए.’ लेकिन भाजपा के ही एक दूसरे नेता कहते हैं, ‘हो सकता है, आडवाणी जी की यह कामना भी हो. ‘
और अंत में, संभावनाओं के सूत्र की तलाश
आडवाणी की यह यात्रा अखिल भारतीय राजनीतिक पार्टी भाजपा की है या आडवाणी में आस्था रखने वाले और आडवाणी से राजनीतिक ककहरा सीखने वाले चंद भाजपाइयों की, यह देखा जाना अभी बाकी है. इस यात्रा के परोक्ष और प्रत्यक्ष एजेंडे का आकलन शुरू हो गया है और बाद में भी होगा. लेकिन इस यात्रा के आरंभ से ही इसमें संभावनाओं के सूत्र भी तलाशे जाने लगे हैं. पहली संभावना राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के मजबूत होने की देखी जा रही है. आडवाणी की इस यात्रा के आरंभ में सिताबदियारा में नीतीश कुमार मौजूद रहे. वे छपरा में भी थे. उन्होंने ही हरी झंडी भी दिखाई. पटना की सभा में जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव भी मौजूद रहे. नीतीश की मौजूदगी और सहयोग का आडवाणी ने जमकर बखान किया. सहयोग के लिए तहेदिल से धन्यवाद दिया. शरद यादव पटना की सभा में बोलकर जब निकल गए तो मंच से सफाई भी दी गई कि शरद जी को कहीं जाना था इसलिए चले गए.
कांग्रेस, लोजपा, राजद जैसी पार्टियां भी आडवाणी की इस यात्रा में अपने लिए संभावना के सूत्र तलाशने में लगी हुई हैं. राजद के लालू प्रसाद यादव अचानक से अपनी ताकत बढ़ी हुई महसूस कर रहे हैं. लालू आडवाणी की यात्रा को 21 साल पुरानी यात्रा से जोड़कर खुद को फिर से सांप्रदायिकता विरोधी राजनीति का केंद्र बताने-बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं. रामविलास पासवान भी अपना राग अलाप रहे हैं. आडवाणी की यात्रा का विरोध कर रहे ये दोनों नेता आडवाणी के खिलाफ बोलकर तुरंत केंद्र की ओर टकटकी लगा देते हैं. किसी बच्चे की तरह कि देखो हमने आज यह कोशिश की है, अब तो एक चॉकलेट का हक बनता है. हिंदी प्रदेशों में संभावनाओं की तलाश में लगी कांग्रेस भी अपनी संभावना तलाशने में लगी हुई है. पटना में यात्रा के पहले ही कांग्रेस के तेजतर्रार नेता संजय निरूपम यहां पहुंचे और काला झंडा वगैरह दिखाने की बात मीडिया में कहते रहे. आडवाणी की यात्रा से किस-किसको फायदा होगा, यह देखा जाना अभी बाकी है. आडवाणी को, भाजपा को, विरोधियों को या सब कुछ टांय-टांय फिस्स हो जाएगा.