बिहार में आ ही गई नई मुसीबत

बिहार ने 23 मार्च को अपने अस्तित्व में आने के 106 साल पूरे होने के अवसर पर जोर-शोर से बिहार-दिवस मनाया। लेकिन ठीक इसी समय, राज्य के कई शहरों में सांप्रदायिकता की आग भड़क उठी है। वे दंगों की स्थिति का सामना कर रहे हैं। क्या बिहार के पास दंगों और उपद्रव का कोई नया दौर देखने का समय बचा है? क्या इसे इन चीजों में वक्त गंवाना चाहिए। जातिवाद से झुलस रहे इस राज्य में मज़हबी जनून इसे और भी पीछे ले जाएगा।

वैसे तो राज्य की सरकार ने बिहार दिवस के अवसर पर राज्य के विकास का ख्ूब ढिंढोरा पीटा है और विकास दर, व्यापार की सहूलियत और सड़क से लेकर इनफ्रास्ट्रक्चर के विकास वे सारे दावे किए जो उदारीकरण की अर्थव्यवस्था के प्रचलित जुमले हैं।

बिहार की बदहाली को जानने के लिए सबसे पहले वहां की शिक्षा व्यवस्था पर नजर डालनी चाहिए। कालेज और विश्वविद्यालयों की हालत काफी खराब है। विश्वविद्यालयों और कालेजों में शिक्षक की नियुक्ति की बात जाने दीजिए, काम कर रहे शिक्षकों को समय पर वेतन नहीं मिल रहा है। रिक्तियों की संख्या काफी बढ गई है और उनके भरने के कोई आसार नहीं हैं। सत्र भी दो से तीन साल की देरी से चल रहे हैं।

अगर बिहार के विकास की असली तस्वीर देखनी हो तो आप रेलगाडिय़ों और प्लेटफार्मो पर खड़ी रहने वाली भीड़ को देख सकते हैं। देश के किसी भी हिस्से में चले जाइए, आपको टिकट खिड़की पर एक न एक बिहारी मिल जाएगा। कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक किसी भी बड़े या मंझोले शहर में रिक्शा-ठेला खींचने वाले, सब्जी-भाजी और पान की दुकान चलाने वालों में उत्तरप्रदेश और अब बिहारियों की एक बड़ी संख्या है।

इस यात्रा में सिर्फ यहां का निम्नवर्ग शामिल नहीं है। यहां के मध्य और उच्च वर्ग के लोग भी जीवन भर चलते रहने वाले यात्री बन कर ही रह गए हैं। नौकरी के लिए उन्हें बाहर जाना ही पड़ता है। स्कूल-कालेजों की बुरी हालत के कारण पढाई के लिए भी उन्हें, अपने बच्चे देश के दूसरे इलाके भेजने पड़ते हैं। कोटा में चल रहे कोचिंग संस्थान हों या महाराष्ट्र, कर्नाटक या दूसरे किसी राज्य, उनके इंजीनियरिंग तथा मेडिकल कालेजों की कमाई बिहारी छात्रों के जरिए होती है। पहले लोग इस पर बहस भी करते थे। प्रतिभा तथा श्रम का पलायन बिहारी समाज को परेशान करता था। लेकिन अब इसे सामान्य मान लिया गया है।

मानव विकास सूचकांक पर यह राज्य वर्षों से अंतिम पायदान पर है। बाल विकास दर में भी राज्य बहुत नीचे है। साक्षरता के मामले में भी यह लंबे समय से राष्ट्रीय औसत से नीचे के स्तर पर बना हुआ है। पिछले साल पब्लिक अफेयर्स इंडेक्स बताने वाली रिपोर्ट आई थी जिसमें वित्तीय प्रबंधन से लेकर कानून-व्यवस्था तक के दस मानकों के आधार पर राज्यों की स्थिति का मूल्यांकन किया गया था और उन्हें उस हिसाब से दर्जा दिया गया था। इसकी रिपोर्ट में केरल को पहला और बिहार को आखिरी स्थान दिया गया था। इससे बिहार के सुशासन के बारे में कई सालों से किए जा रहे दावों का खुलासा हो जाता है।

बिहार जैसे राज्य में सांप्रदायिक हिंसा किस तरह की स्थिति ला सकती है इसका अंदाजा अस्सी के दशक के अंत (1989) में हुए भागलपुर के दंगों में हज़ार से ज्यादा मारे गए मुसलमानों व हिन्दुओं को हुई जानमाल की हानि से लगाया जा सकता है।

अब यह साफ दिखाई देता है कि जाति तथा वर्ण के पेंच को सुलझाने में यहां का समाज असमर्थ साबित हुआ है और इसने इसे बदहाली में पहुंचाने में खासी भूमिका निभाई है। औपनिवेशिक शोषण का माकूल जवाब देने में यह राज्य इसलिए असमर्थ रहा कि जाति तथा वर्ण ने उसके पैरों में भारी जंजीर डाल रखी है। यह सिलसिला आज़ादी के बाद भी कायम रहा। अतीत में बुद्ध से लेकर कबीर तक के संघर्ष के बाद भी जाति की सीढी टूटी नहीं। वर्तमान में गांधी, लोहिया, आंबेडकर और मार्क्स-लेनिन के विचारों की मजबूत उपस्थिति के बाद भी सामाजिक विषमता अभी भी कायम है। कई बार जाति की पकड़ ढीली होती दिखाई देती है, लेकिन यह फिर से प्रभावी हो जाती है और शोषण के नए रूप लेकर आ जाती है।

अंग्रेज़ों की लूट के बाद गरीब हुए बिहार को फिर से उठकर खड़ा होने का मौका ही नहीं मिल रहा है। अंगं्रेजों के आने के पहले परंपरागत कारीगरी पर आधारित इन व्यवसायों में पिछड़ों तथा दलितों का बड़ा हिस्सा शामिल था। संपन्न खेती, खूबसूरत जंगलों तथा नदियों की चंचल धाराओं ने बिहार को दुनिया के सर्वाधिक संपन्न इलाकों में बदल रखा था। भारत प्राचीन और मध्य काल में अगर कभी पहले तो कभी दूसरे नंबर (चीन तथा भारत में पहले नंबर के लिए प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी) की अर्थव्यवस्था थी तो इसमें बिहार का महत्वपूर्ण योगदान था इसलिए यह कोई संयोग नहीं था कि मगध में शक्तिशाली साम्राज्य पैदा हुए।

बिहार का इतिहास संघर्षों से भरा है। बंगाल में जब नवजागरण चल रहा था तो बिहार के किसान जमींदारी में पिस रहे थे और इससे मुक्ति के लिए छटपटा रहे थे। सन् 1912 में बिहार को बंगाल से अलग करने के समय बिहार एक गरीब राज्य बन चुका था। एक समय कारीगरी तथा हुनर से लैस बिहार के लोग मज़दूर बन चुके थे। पलायन का न थमने वाला सिलसिला शुरू हो चुका था। बिहार के लोकगीतों में कलकत्ते के लचकते पुल से लेकर वहां की हर सड़क और सोनागाछी जैसे सेक्स के बाजार का इतना जीवंत चित्रण है कि साहित्य में इसे रख ले।

बिहार बनने के ठीक पांच साल बाद यहां के पीडि़त किसान महात्मा गांधी को ढूंढ ले आए। उनकी खोज चंपारण तक ही नहीं थमी, नए विचारों को अपनाने का बिहार का यह प्रयास जारी रहा। साम्यवादी तथा समाजवादी विचारों को भी राज्य ने खुले दिल से अपनाया। असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन से लेकर किसान आंदोलन और फिर 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन, इस समाज ने बढ-चढ कर हिस्सा लिया। आज़ादी के बाद भी यह खोज जारी रही। डा लोहिया, जयप्रकाश नारायण, बाबा साहेब आंबेडकर से लेकर चारू मजुमदार तक इस समाज को प्रेरित करने वालों की लंबी सूची है। सभी विचारधाराओं का प्रयोग-क्षेत्र रहा है बिहार।

कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में सामाजिक न्याय की ताकतों का उदय हुआ और फिर लालू प्रसाद ने पिछड़े-दलितों की सम्मानजनक राजनीति शुरू की तो लगा कि अब सामाजिक जकडऩ कमजोर हो जाएगी। उन्होंने हिंदुत्व की उभरती ताकत को मात देने लायक सामाजिक समीकरण भी बनाया, लेकिन परिवारवाद और अवसरवाद के दलदल में वे फंस गए। वे सभी पिछड़ों की आंकांक्षा पूरी करने में भी सफल नहीं हो पाए। पिछड़े-दलितों को साथ रखने में विफलता के कारण ही समता पार्टी और फिर जद(यू) जैसे दल उभर कर आए और नीतीश कुमार-भाजपा का गंठजोड़़ सामने आया।

नीतीश कुमार का महागठबंधन छोड़ कर फिर से भाजपा के साथ आने और हिंदुत्व की शक्तियों को देशव्यापी उभार के कारण बिहार में इन शक्तियों को नई ताकत मिली है। राज्य साप्रदायिक हिंसा की चुनौती का सामना कर रहा है। औरंगाबाद, समस्तीपुर, भागलपुर तथा मुंगेर में स्थिति विस्फोटक बनती जा रही है। रामनवमी के अवसर पर औरगांबाद में बड़े पैमाने पर आगजनी और हिंसा भी हुई है। बाकी जब जगहों पर झड़प हुई और हिंसा हुई। भागलपुर में एक बड़े भाजपा नेता के बेटे की उपस्थिति से मामला और भी पेंचीदा हो चुका है।

केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे के बेटे अरिजीत शाश्वत के खिलाफ प्राथमिकी होने के बाद भी उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जा सका। वह कानूनी दांचपेंच का सहारा ले रहे हैं और केंद्र व राज्य की पुलिस लाचार दिखाई दे रही है। लोगों को लग रहा है कि नौकरशाही पहले की तरह काम नहीं कर रही है। राज्य के नए राजनीतिक समीकरण उसके कामकाज पर असर डाल रहे हैं। इससे अल्पसंख्यगकों के बीच असुरक्षा बढती जा रही है।

बिहार में आरएसएस और उसके सहयोगी संगठनों ने रामनवमी के अवसर का इस्तेमाल आक्रामक हिंदुत्व को आगे बढ़ाने के लिए किया। हथियारों के साथ जुलूस निकालने का सुनियोजित कार्यक्रम अपनाया गया। इन जुलूसों में भड़काने वाले नारे लगाए गए और उन्हें अल्पसंख्यकों के इलाके से ले जाया गया।

जाति के संघर्ष के कारण बिहार अपने पिछड़ेपन को दूर करने में विफल रहा है। यह उसे विपन्नता और बदहाली से निकलने नहीं देती है। नक्सलवाद और लोहियावाद के लंबे संघर्षो के बाद भी बिहार जिस तरह के जातिभेद, स्वार्थ और शोषण में फंसा है उसकी तुलना किसी भी राज्य की सामाजिक बनावट से नहीं हो सकती है। इसने दलितों पर अत्याचार के ऐसे कारनामे किए हैं जिसे इतिहास में शायद ही कभी भुलाया जा सके।

कोढ़ में खुजली की तरह सांप्रदायिकता भी अब इसमें घुस आई है। देश की समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा है। शोषण और बेरोजगारी, गरीबी तथा बीमारी से ध्यान हटाने का इससे अच्छा उपाय अभी की सरकार को नज़र नहीं आ रहा है।

ठेकेदारी और भ्रष्ट तंत्र के सहारे पैसा कमाने वाला वर्ग इसका नेतृत्व कर रहा है। वह जातिवादी है और सांप्रदायिक भी। इसे राजनीति और नौकरशाही का संरक्षण मिला हुआ है। यह अपनी सुविधा से कभी जेडीयू, कभी आरजेडी और कभी बीजेपी में चला जाता है। हिंदुत्व इन्हीं शक्तियों को इक_ा कर रहा है।

बिहार में आज नई चुनौतियां हैं। सांप्रदायकिता से नीतीश लड़ते हैं या हथियार डालते हैं, यह देखना है। वे बिहार को विशेष दर्जा दिला पाते हैं या नहीं वे राज्य की आर्थिक स्थिति सुधार पाते हैं या नहीं। अपने नेताओं के नेतृत्व में बिहार सालों पीछे जा रहा है।

 

दिल्ली लाए गए लालू

राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव को पुलिस पहरे में ट्रेन से नई दिल्ली के आल इंडिया इंस्टीच्यूट ऑफ मेडिकल साईसेज में विशेष इलाज के लिए 28 मार्च को एडमिट किया गया।

लालू इस समय 71 साल के हैं और 23 दिसंबर से बिरसा मुंडा जेल में हैं। उनके स्वस्थ्य की समुचित देखभाल के लिए उन्हें रांची में राजेंद्र इंस्टीच्यूट ऑफ मेडिकल साईसेज में 17 मार्च को दाखिल किया गया था। लालू डायबिटीज, ब्लडप्रेशर किडनी इंफेक्शन और हाई क्रिएटिनिनि लेवेल की शिकायत है।

लालू प्रसाद पर मुख्यमंत्री रहते हुए चारा घोटाला कांड के आरोप रहे हैं। उन्हें चारा घोटाले के चार मामलों में 2013 से सीबीआई की विशेष अदालत ने सजाएं दी हैं। अभी हाल उन्हेंं 14 साल की सजा दुमका टेजरी मामले पर सुनाई गईं थी। हालांक अदालत ने कहा है कि उन्होंने पैसे नहीं लिए। उनकी जमानत याचिका पर झारखंड हाईकोर्ट को छह अप्रैल को सुनवाई करनी है।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राजद सुप्रीमों के बीच पहले बिहार चुनाव के समय महागठबंधन बना था। मुख्यमंत्री के उस गठबंधन को तोड़ कर भाजपा के साथ जाने से लालू प्रसाद यादव की मुश्किलें अब बढ़ गई हैं। उनके परिवार के हर सदस्य पर केस हैं और उनकी पत्नी और बच्चों को सरकारी एजंसियां बुला कर पूछताछ करती रहती हैं। लालू प्रसाद हमेशा बहुजनों में एकता और सामाजिक न्याय की बात करते रहे हैं।