सरकार की जेब ढीली हुई, बच्चों की पढ़ाई का नुकसान हुआ और यह सब जिस मकसद के लिए हुआ वह आखिर में अधूरा ही रहा. प्राथमिक स्कूलों में तैनात अप्रशिक्षित शिक्षकों को प्रशिक्षित बनाने के लिए बिहार सरकार की कवायद का हाल फिलहाल कुछ ऐसा ही नजर आ रहा है. निराला की रिपोर्ट.
सितंबर की पहली तारीख को बिहार में शिक्षा विभाग के प्रधान सचिव की तरफ से राज्य के सभी जिला शिक्षा पदाधिकारियों के नाम एक चिट्ठी जारी हुई. इसमें कहा गया था, ‘22/06/2006 को इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय एवं बिहार सरकार के शिक्षा विभाग के बीच एमओयू के बाद राज्य के नियोजित शिक्षकों को दो वर्षीय डीपीई कार्यक्रम में नामांकित करवाया गया. चार वर्षों के अंदर इसमें उत्तीर्ण होना अनिवार्य है. कतिपय शिक्षक चार वर्षों तक उत्तीर्ण नहीं हो सके हैं. ऐसे अनुत्तीर्ण शिक्षकों को सेवा में बनाए रखने के लिए विभाग जिम्मेवार नहीं है. ऐसे शिक्षकों को एक मौका और देते हुए अगली परीक्षा में उत्तीर्ण होना अनिवार्य है. उसमें भी जो पास नहीं होंगे, उन्हें सेवा से हटाने हेतु संबंधित नियोजन इकाई को निर्देश दिया जाएगा.’ इस पत्र से शिक्षकों के एक बड़े खेमे में हड़कंप का माहौल बन गया. दरअसल पिछले दो दशक के दौरान बिहार के प्राथमिक शिक्षा तंत्र में अप्रशिक्षित शिक्षकों की एक बड़ी फौज दाखिल हो चुकी है. नियमों के अनुसार इन शिक्षकों को प्रशिक्षित करने के दबाव में कुछ साल पहले बिहार सरकार ने एक कवायद शुरू की थी. लेकिन यही कवायद अब इसके गले की हड्डी बन गई है. उधर, मसले से जुड़ा हर पक्ष जवाबदेही के सवाल पर गेंद दूसरे के पाले में फेंक रहा है.
शिक्षक, सूचनाधिकार कार्यकर्ता और आंदोलनकारी रंजन कुमार बताते हैं, ‘बिहार में एक शिक्षक के जिम्मे 57 विद्यार्थी हैं जबकि शिक्षा का अधिकार कानून कहता है कि 30 बच्चों पर एक होना चाहिए. देश में इस कदर नाजुक हाल शायद ही कहीं मिले.’ प्रधान सचिव के पत्र की बाबत बात करने पर बेगूसराय निवासी कुमार का जवाब आता है, ‘जिस डिप्लोमा इन प्राइमरी एजुकेशन यानी डीपीई कोर्स का हवाला देते हुए और इसे पास नहीं करने पर नौकरी गंवाने का फरमान जारी किया गया है, वह कोर्स ही पिछले कई सालों से अंधेरे में रखकर संचालित हो रहा है.’ रंजन की मानें तो इग्नू का यह कोर्स नेशनल काउंसिल फॉर टीचर्स एजुकेशन यानी एनसीटीई के मानदंडों के अनुसार बिहार के लिए मान्य है ही नहीं. इस मुद्दे पर न तो इग्नू जवाब दे पा रहा है और न ही एनसीटीई खुलकर कुछ बताने को तैयार है. उधर, साल 2007 से शिक्षकों को इस प्रशिक्षण कोर्स में जोते जाने की कवायद के चलते स्कूलों में शिक्षण कार्य भी बाधित हुआ है. रंजन हमें कुछ कागजात देते हैं. ये सूचनाधिकार से मिली जानकारी के होते हैं. इनमें पहला इग्नू के पटना सेंटर से मिली सूचना से संबंधित है. इस सेंटर से इसी साल 18 जून को यह सूचना मांगी गई थी कि बिहार के नियोजित शिक्षकों को इग्नू द्वारा जो डीपीई का कोर्स कराया जा रहा है, क्या उसकी मान्यता बिहार के लिए एनसीटीई से है और अब इस कोर्स के बाद भी इग्नू के सहयोग से जो छह माह के लिए एक और क्षमतावर्धक प्रशिक्षण कोर्स की तैयारी है, उसका प्रारूप क्या है? सवाल यह भी था कि 2007 से अब तक कितने शिक्षकों को डीपीई में प्रशिक्षित किया जा चुका है?
07 जुलाई 2012 को इग्नू के पटना सेंटर से डीपीई कार्यक्रम की समन्वयक विभा जोशी का जवाबी पत्र मिलता है कि ‘बिहार में डीपीई कार्यक्रम 2007 में बिहार सरकार के साथ इग्नू के द्वारा एक एमओयू के अंतर्गत चलाया गया था और इस कार्यक्रम को एनसीटीई से मान्यता प्राप्त करने की जिम्मेदारी बिहार सरकार की थी. अतः एनसीटीई से मान्यता के संबंध में कोई सवाल मानव संसाधन विकास मंत्रालय, बिहार सरकार अथवा बिहार शिक्षा परियोजना के निदेशक से करें. जहां तक आगामी क्षमतावर्द्धक प्रशिक्षण कोर्स की बात है तो वह भी बिहार सरकार के अनुरोध पर हो रहा है, उसके बारे में भी वही जानकारी देगी.’ यह जवाब अजीब किस्म का होता है. जिस इग्नू द्वारा 2007 से बिहार में यह कोर्स हजारों शिक्षकों को प्रशिक्षित करने के लिए चल रहा है, वही इग्नू इस कोर्स की मान्यता के बारे में भी खुलकर नहीं बता पाता और जिम्मेदारी बिहार सरकार के मत्थे मढ़ देता है. हमारी बात पटना में इग्नू सेंटर के प्रमुख क्यू. हैदर से होती है. वे कहते हैं, ‘मैं अभी नया हूं और बिहार सरकार से यह करार पहले का है. इसका क्या आधार था, अभी नहीं बता सकता.’ वे आगे बताते हैं कि डीपीई मान्य हो, इसीलिए इग्नू और एनसीटीई के संयुक्त तत्वावधान में छह माह का अतिरिक्त कोर्स डिजाइन किया गया है, जो क्षमतावर्धक कोर्स होगा. इसे कर लेने से डीपीई मान्य हो जाएगा.
रंजन से मिला दूसरा कागज इसी संदर्भ में एनसीटीई से मिले जवाब का होता है. 23 सितंबर, 2011 को एनसीटीई के दिल्ली स्थित मुख्यालय से पूछा गया था कि बिहार में इग्नू द्वारा जिस डीपीई कोर्स का संचालन करके बिहार में नियोजित शिक्षकों को द्विवर्षीय प्रशिक्षण दिया जा रहा है, क्या उसको एनसीटीई द्वारा बिहार के लिए मान्यता दी गई है. बकौल रंजन, दिल्ली एनसीटीई से यह पत्र भुवनेश्वर कार्यालय भेजा गया, फिर भुवनेश्वर से जयपुर. दो माह पहले एनसीटीई के जयपुर कार्यालय ने जवाब में वर्ष 2000 में जारी एक नोटिफिकेशन की कॉपी भेजी, जिसमें उक्त कोर्स के पूर्वोत्तर भारत में संचालित होने से संबंधित सूचना दर्ज है. यानी एनसीटीई भी गोलमोल जवाब में उलझा देता है. सूचना के अधिकार से मिले इन दो कागजों से यह साफ हो जाता है कि बिहार में 2007 से ही इग्नू के सौजन्य से डीपीई नाम से जो शिक्षकों को दीक्षित करने का कोर्स चल रहा है, वह रहस्यमयी है. इसी बाबत हमारी बात राज्य के शिक्षा मंत्री पीके शाही से होती है. वे कहते हैं, ‘यह इग्नू की करनी है कि वह अब तक इसकी मान्यता नहीं ले सका है. हम तो इसके लिए 15 दफा केंद्रीय शिक्षा मंत्री सिब्बल से मिल चुके हैं. जब इग्नू से इस प्रशिक्षण के लिए करार हुआ था, तब मैं शिक्षा मंत्री नहीं था, लेकिन इग्नू यह कागज पर दिखाए कि बिहार सरकार ने उसे किस रूप में और कब आश्वासन दिया था कि डीपीई की मान्यता वह ले लेगा.’
शाही के जवाब से साफ होता है कि बिहार में शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए पिछले पांच वर्षों से संचालित डीपीई कोर्स मान्य नहीं है. हमारा सवाल होता है कि बिना मान्यता वाले कोर्स के साथ भला क्योंकर राज्य सरकार ने हजारों शिक्षकों को प्रशिक्षण के लिए जोड़ दिया था. शाही कहते हैं कि विद्यार्थी का काम मान्यता लेना नहीं होता और यह तो इग्नू को चाहिए था कि वह इतने दिनों में मान्यता ले लेता. डीपीई को मान्य बनाने के लिए अब छह माह का एक क्षमतावर्धक प्रोग्राम तैयार हुआ है. शाही कहते हैं , ‘देखिए, वह भी तो इतने दिनों से एनसीटीई और इग्नू द्वारा सिर्फ कहा जा रहा है. ठोस रूप में तो उसका स्वरूप अभी मिला नहीं है.’
यह किसी से छिपा नहीं कि बिहार में प्राथमिक शिक्षा फिलहाल सबसे बुरे दौर में है. इस स्थिति से पार पाने के लिए यहां वर्षों से जैसे-तैसे और भारी अनियमितता से शिक्षकों को बहाल करने की पंरपरा बनी है. जब बहाल गुरुओं को दीक्षित यानी प्रशिक्षित करने की मजबूरी सामने आई तो उसके नाम पर एक किस्म का भद्दा मजाक किया गया. अब तर्क-वितर्क और कुतर्क से इग्नू, बिहार सरकार आदि अपनी बातों को सही ठहराने में लगे हुए हैं. इससे प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के प्रति बिहार में शासन का नजरिया सामने आता है. साथ ही यह सवाल भी उठता है कि कैसे सरकारी खजाने से एक अमान्य कोर्स के लिए पैसे जारी कर दिए गए थे.
शिक्षा विभाग के संयुक्त निदेशक आरएस सिंह से हम जानना चाहते हैं कि राज्य सरकार ने कितना शुल्क अदा किया. वे कहते हैं, ‘यह मामला मेरे अंतर्गत तो नहीं आता, लेकिन लगभग पांच हजार रुपये प्रति शिक्षक लगा है.’ बताया जा रहा है कि लगभग 1,20,000 शिक्षकों को इसी कोर्स के जरिए दीक्षित करने का जिम्मा दिया गया है. सीधा गणित लगाया जाए तो 60 करोड़ रु का हिसाब है.
प्राथमिक शिक्षा पर काम कर रहे और बिहार लोक अधिकार मंच से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता उदय कहते हैं, ‘बिहार में न तो शिक्षा की कोई ठोस नीति है, न शिक्षकों की बहाली की और न ही उनके प्रशिक्षण की. ऐसे में यही सब होगा. जैसे-तैसे शिक्षकों को भर्ती करके शिक्षा का बंटाधार पहले ही किया जा चुका है, अब गुणवत्ता साबित करने के लिए सर्टिफिकेट बांटने पर ही सरकार का सारा जोर है.’
बिहार के अपने शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थानों की स्थिति बात करें तो पहले ये संस्थान ही बिहार में शिक्षकों की बहाली का प्रमुख जरिया हुआ करते थे. इन ट्रेनिंग कॉलेजों में दाखिला लेने वाले प्रतिभागियों को दो साल का प्रशिक्षण दिया जाता था. फिर सफल प्रतिभागियों को शिक्षक बनने का मौका मिलता था. लालू प्रसाद यादव के जमाने में यह प्रक्रिया बदली. बिहार राज्य प्रारंभिक विद्यालय शिक्षक नियुक्ति अधिनियम 1991 बना और बिहार लोक सेवा आयोग से सीधे शिक्षकों की नियुक्ति हुई. इससे भारी संख्या में अप्रशिक्षित शिक्षक आ गए. इसी बीच केंद्र सरकार ने 1995 में एनसीटीई का गठन किया. बिहार सरकार को अप्रशिक्षित शिक्षकों को प्रशिक्षित करने का आदेश मिला.
जैसे-तैसे प्रशिक्षण की प्रक्रिया पूरी हुई. बाद में एक-एक कर बिहार के ट्रेनिंग कॉलेजों की स्थिति खस्ता होती चली गई. इस दरमियान शिक्षकों की बहाली जारी रही. 2003 में पंचायत शिक्षा मित्रों की एक व्यवस्था बनी. 100 रुपये के नॉन ज्यूडिशियल स्टांप पेपर पर 11 माह का इकरारनामा करके 1,500 रुपये महीना पगार में शिक्षा मित्र बहाल हो गए. तीन बार इकरारनामे की अवधि बढ़ी. सत्ता में नीतीश कुमार आए तो 2006 में नियोजन की नई नियमावली बनी जिसे बिहार प्रारंभिक पंचायत, प्रखंड, नगर शिक्षक नियोजन नियमावली 2006 कहा गया. इसके तहत अंकों के आधार पर 35 से 40 हजार शिक्षक बहाल हुए. 2008 और 2010 में भारी संख्या में नियोजन पर शिक्षक बहाल हुए. इस तरह आए शिक्षकों में 80 प्रतिशत से अधिक अप्रशिक्षित ही थे. 2010 से पूरे देश में शिक्षा का अधिकार कानून भी लागू हो गया. एनसीटीई ने बिहार सरकार पर शिक्षकों को प्रशिक्षित करने का दबाव बनाया. सरकार ने इसके लिए इग्नू से करार किया. एक-एक प्रखंड में तीन-तीन स्टडी सेंटर तक तैयार किए गए. साल में औसतन 200 दिन तक स्कूल चलता है. इस दौरान प्रशिक्षण में उलझे शिक्षक स्कूल छोड़कर मान्यतारहित कोर्स के जरिए प्रति माह दस-दस दिन दीक्षित होने में लगे रहे. नतीजा यह हुआ कि बच्चों की पढ़ाई चौपट होती रही.
अब एक बार फिर नियोजित होने के लिए शिक्षकों की बड़ी फौज लिखा-पढ़ी की परीक्षा पास करके जिला-जिला, प्रखंड-प्रखंड घूमकर आवेदन जमा करने में लगी हुई है. दूसरी ओर डीपीई के बाद गुरुजी लोगों की क्षमता और गुणवत्ता बढ़ाने के लिए सरकार एक और प्रशिक्षण की दस्तक दे चुकी है. दिखावे के लिए यह क्षमतावर्धन न का छह माह वाला प्रशिक्षण होगा, हकीकत में यह डीपीई के सर्टिफिकेट को मान्य कराने की प्रक्रिया होगी. इसके लिए भी राज्य सरकार इग्नू की शरण में ही पहुंची है. कहा जा रहा है कि यह कोर्स अगले माह शुरू हो जाएगा लेकिन अभी इसके स्वरूप की ही स्थिति अस्पष्ट है. क्या दाल में फिर कुछ काला है या पूरी दाल ही काली है?