ऐसा लगता है कि देश में राज्य सरकारों का एक बाज़ार यानी हाट बन गया है, जहाँ विधायक खरीदे जाने का खेल चल रहा है, जिसे दल-बदल का नाम दे दिया जाता है। पिछले महीनों में जनता की चुनी कई सरकारें दल-बदल की बेदी पर चढ़ चुकी हैं। तो क्या केंद्र में सत्ता पर काबिज़ भाजपा चाइना मॉडल पर चल रही है? इस चाइना मॉडल का सीमा पर तनाव से कुछ लेना-देना नहीं, बल्कि राजनीति से लेना-देना है। चीन में एक ही पार्टी सत्ता में है। चीन विस्तारवाद की नीति अपना रहा है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन के इस विस्तारवाद के खिलाफ हाल में तीखी टिप्पणी कर चुके हैं। लेकिन भारत में भाजपा खुद यही सत्ता के विस्तारवाद की नीति अपना रही है। वह राज्यों में जोड़-तोड़ से जनता की चुनी विपक्ष की सरकारें गिराकर अपनी राजनीति और सरकारों का विस्तार कर रही है। सरकारें बनाने के इस तरीके को लेकर खरीद-फरोख्त के ढेरों आरोप लगे हैं।
राजनीतिक हलकों में पिछले महीनों में इसे मज़ाक के तौर पर ऑपरेशन लोटस नाम दिया गया है। लोटस यानी कमल, जो भाजपा का चुनाव चिह्न है। सच तो यह है कि विपक्ष को खत्म करने की कल्पना वाला लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक नारा तो आपातकाल जैसे राजनीति के मुश्किल काल में भी नहीं लगा था; भले इंदिरा गाँधी की सरकार ने विपक्ष की आवाज़ को कुचलने के लिए उसके नेताओं को निष्ठुरता से जेलों में ठूँस दिया था। लेकिन देश की राजनीति में पहली बार भाजपा ने बड़े गर्व से और खुले रूप से कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया। इस नारे के पीछे निश्चित ही एक ही पार्टी की सत्ता की परिकल्पना है। अर्थात् राजनीतिक और एक तरह से लोकतांत्रिक विरोध का कोई स्थान नहीं रखने की कल्पना। अरुणाचल प्रदेश से लेकर कर्नाटक, मध्य प्रदेश की सरकारें पलटना इसके उदाहरण हैं और अब राजस्थान में कोशिश जारी है। क्या पता कल को महाराष्ट्र और झारखण्ड का भी नम्बर आये, जैसी कि राजनीतिक हलकों में चर्चा है। राज्यपाल संवैधानिक पद पर होते हुए भी इस खेल के खुले तौर पर राजनीतिक औज़ार बन रहे हैं। सरकारें गिराने में उनकी भूमिका निश्चित ही गम्भीर सवालों के घेरे में है।
सब जानते हैं कि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की सरकार भी भाजपा के तीखे हमलों के निशाने पर रही है, लेकिन ममता की ज़मीन इतनी मज़बूत है कि भाजपा अभी वहाँ हाथ नहीं डाल सकी है; कोशिशें भले गम्भीर होती रही हैं। ऐसे में यह बड़ा सवाल भी उठता है कि फिर चुनाव करवाने और जनता की पसन्द की सरकारें बनाने का क्या औचित्य रह जाता है? लोकतंत्र में यही एक मंच है, जहाँ जनता अपनी पसन्द की सरकार या प्रतिनिधि चुनती है, लेकिन घटनाएँ बताती हैं कि जनता के इस अधिकार पर डाका डाला जा रहा है। इसके अलावा सरकारों की इस दल-बदली ने देश के एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण दल-बदल कानून को भी एक तरह से ठेंगे पर रख दिया है। जब मर्ज़ी विधायक दल-बदलकर दूसरे दलों में जा मिलते हैं और चुनी हुई अपनी ही सरकारें गिरा देते हैं। ऐसे में यह भी बड़ा सवाल है कि चुनाव की राजनीति में स्वछता के जो कानून बने हैं, उनके क्या मायने रह जाते हैं? यह सब तो जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला मामला हो गया है।
दिलचस्प बात यह है कि केंद्र में बहुत ताकतवर भाजपा राज्यों में हाल के महीनों में चुनावों में कमज़ोर हुई है। साल 2018 में जनता ने उसे तीन राज्यों- मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सत्ता से बेदखल कर दिया। जनता का साफ सदेश था कि वह वहाँ गैर-भाजपा (इन तीन राज्यों के मामले में कांग्रेस) सरकार चाहती है। मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस का बहुमत लगभग सीमा रेखा पर था। इसमें कोई दो राज्य नहीं कि जनता ने भाजपा को दोबारा सत्ता नहीं देने का मत दिया था। वहीं छत्तीसगढ़ में भी जनता ने कांग्रेस को स्पष्ट जनादेश दिया था।
इससे पहले कर्नाटक में नतीजे आने के बाद भाजपा सबसे बड़ा दल था, लेकिन कांग्रेस और जेडीएस ने चुनाव बाद हाथ मिला लिया और सरकार भी बना ली। सरकार कुछ महीने चली भी। लेकिन फिर दल बदल का खेल शुरू हो गया और सरकार कितने ही राजनीतिक और कानूनी दाँव-पेचों के बाद गिर गयी और भाजपा की सरकार बन गयी। कांग्रेस और जेडीएस ने बार-बार आरोप लगाया है कि भाजपा ने उसके विधायकों की खरीद-फरोख्त करके अपनी सरकार बनायी है। खरीद-फरोख्त की इस राजनीति का सबसे चिन्ताजनक पहलू यह है कि सरकारें होटलों से चलने लगी हैं। विधायकों को तोडक़र दूसरे प्रदेशों में ले जाया जा रहा है। लाखों रुपये उन पर खर्चे जा रहे हैं। और लोकतंत्र के इस चीरहरण का खेल सिर्फ राज्य सरकारें गिराने तक सीमित नहीं है। जब-जब राज्य सभा के चुनाव होते हैं, विधायकों के दल-बदल का खेल शुरू हो जाता है; क्योंकि मतदान उन्हें करना होता है। विधायकों को जनता और उनके परिवारों से दूर दूसरे प्रदेशों के होटलों में ले जाया जाता है। यह कैसा लोकतंत्र हो गया है हमारा?
आज की बात करें, तो देश कोरोना वायरस जैसी महामारी को झेल रहा है। देश में 32 हज़ार से ज़्यादा लोग मर चुके हैं। आज जब जनता को अस्पतालों, इलाज और दवाइयों की ज़रूरत है; ताकतवर सत्ता सरकारों को गिराने-बनाने के खेल में लगी है और जनता को भी इसी में उलझा दिया गया है। महामारी के भयंकर प्रकोप-काल में ही जनता की फिक्र छोड़ मध्य प्रदेश में सरकार गिराने-बचाने-बनाने का गन्दा खेल खेला गया। अब इसी संकट-काल में राजस्थान में भी यही खेल खेला जा रहा। यानी जनता जाए भाड़ में, लोग मरते हैं, तो मरें, उन्हें तो सरकारें गिराकर सत्ता छीननी है। सही मायने में देखा जाए, तो यह महामारी के संकट-काल के साथ-साथ लोकतंत्र का भी संकट-काल है।
राज्यों को खो रही भाजपा
भाजपा ने पिछले वर्षों में दल-बदल के मामले में अपनी साख तेज़ी से गँवायी है। उसका नारा ज़रूर पार्टी विद अ डिफरेंस रहा है। लेकिन उसने किया वही है, जिसके लिए वह 2014 तक कांग्रेस की कटु आलोचक रही है। बल्कि उससे भी दो कदम आगे निकल गयी है। उसने सरकारें ही नहीं गिरायीं, विधानसभा चुनावों के बाद बहुमत न होने के बावजूद जोड़-तोड़ से अपनी सरकारें बनायीं भी। राज्यों में चुनीं सरकारें गिराने के पीछे भी भाजपा की मजबूरी बनी है। और इसका कारण है विधानसभा के पिछले कई चुनावों में जनता से तरफ से उसे ठुकरा दिया जाना।
देखा जाए तो खुद को दुनिया का सबसे दल कहने वाली भाजपा जितनी तेज़ी से भारतीय राजनीतिक के फलक पर छायी थी, उतनी तेज़ी से सिमटती भी जा रही है। केंद्र को छोड़ दें, तो राज्यों में विधानसभा के चुनावों में भाजपा का ग्राफ तेज़ी से गिरा है। साल 2014 में जब नरेंद्र मोदी ने देश की कमान सँभाली, भाजपा सिर्फ सात राज्यों में सत्ता में थी। लेकिन मोदी सरकार बनने के बाद से भाजपा का रथ इतनी तेज़ी से दौड़ा कि मार्च, 2018 तक देश के 21 राज्यों में भाजपा की सरकारें बन गयीं; जिनमें कुछ सहयोगी दलों के साथ थीं। इस तरह उसका देश की 70 फीसदी आबादी पर शासन हो गया था।
लेकिन इसके बाद सत्ता भाजपा की मुट्ठी से रेत की तरह फिसलने लगी। साल 2019 का अन्त होते-होते राज्यों की सत्ता भाजपा के हाथों से ऐसी ऐसी फिसली कि वह सिर्फ 11 राज्यों तक सिमट गयी। कई बड़े राज्य उसके हाथ से निकल गये। इनमें राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के बाद महाराष्ट्र और झारखण्ड भी शामिल हैं। हरियाणा में भी उसने बहुमत खो दिया और सरकार बनाने के लिए उसे दुष्यंत चौटाला की पार्टी से हाथ मिलाना पड़ा।
हरियाणा, बिहार, नागालैंड, मेघालय, मिजोरम और सिक्किम जैसे प्रदेशों में भाजपा गठबन्धन में सरकारें चला रही है अर्थात् छोटे दल की भूमिका में है। तमिलनाडु जैसे राज्य में भाजपा का एक भी विधायक नहीं। इस तरह भाजपा का राज्यों में शासन 70 फीसदी से लुढक़कर 38 फीसदी के करीब ही रह गया है; जो एनडीए राज्यों को मिलकर करीब 45 फीसदी है। इनमें कर्नाटक और मध्य प्रदेश हैं; जहाँ उसने दल-बदल से सरकारें बनायीं।
दरअसल राज्यों में जनता के ठुकराने के बावजूद भाजपा का सत्ता में किसी भी कीमत पर बने रहने का यह मोह उसे सरकारें गिरवाकर अपनी सरकारें बनाने पर मजबूर कर रहा है। राजनीतिक विश्लेषक बी.डी. शर्मा कहते हैं कि भाजपा को यह भय है कि यदि अगले चुनाव तक वह विधानसभा के चुनाव इसी तरह हारती रही, तो जनता में यह सदेश जा सकता है कि भाजपा अपनी ज़मीन खो चुकी है। शर्मा के मुताबिक, इसके अलावा इस दौरान उसे बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे बहुत महत्त्वपूर्ण राज्यों में विधानसभाओं के चुनाव झेलने हैं। भाजपा की कोशिश है कि वह चुनाव सभाओं में यह कह सके कि उसके पास देश के इतने राज्यों में उसकी सरकार है। यह कोशिश जनता के बीच एक तरह की मनोविज्ञानिक बढ़त लेने के लिए है। लेकिन सरकारें गिराकर अपनी सरकारें बनाने का उसका दाँव उलटा भी पड़ सकता है।
जब गिरीं, चुनी सरकारें
किसी समय इंदिरा गाँधी को राजनीति में गँूगी गुडिय़ा का नाम दिया गया था। कांग्रेस देश के राजनीतिक परिदृश्य में बहुत कमज़ोर दिख रही थी। यह साल 1967 की बात है। लेकिन इहीं इंदिरा गाँधी ने 1971 में बतौर प्रधानमंत्री पाकिस्तान का विभाजन करवा दिया और अलग देश बांलादेश बनाया, तो उहोंने बहुमत के साथ देश की सत्ता हासिल की। यहाँ तक तो ठीक था, लेकिन उहोंने सत्ता में आने के बाद कई राज्यों में गठबन्धन की सरकारें बर्खास्त कर दीं। संयुक्त सरकारें उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, पंजाब, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, तमिलनाडु और केरल में गिरायी गयीं। इसी तरह 1992 में कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद का ढाँचा तोड़ दिया था, तो देश भर में तीखी प्रतिक्रिया हुई थी; खासतौर मुस्लिम समाज में। जगह-जगह प्रदर्शन और दंगे तक हुए। हालात बिगड़ते देख तब नरसिम्हा राव सरकार ने कानून व्यवस्था बिगडऩे का हवाला देकर भाजपा शासन वाली चार राज्य सरकारों को बर्खास्त कर दिया; जिनमें हिमाचल, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान शामिल थे। यूपी में तब कल्याण सिंह, हिमाचल प्रदेश में शांता कुमार, राजस्थान में भैरों सिंह शेखावत और मध्य प्रदेश में सुन्दर लाल पटवा मुख्यमंत्री थे। सरकारों को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। दिलचस्प यह है कि इसके बाद जब इन राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए, तो चार में से भाजपा को केवल एक ही राज्य में सफलता मिली। मध्य प्रदेश और हिमाचल में कांग्रेस, उत्तर प्रदेश में सपा की मुलायम सिंह सरकार बनी; लेकिन राजस्थान में भाजपा की वापसी हुई। हालाँकि यह सरकारें केंद्र ने गिरायी थीं और खरीद-फरोख्त करके अपनी सरकारें नहीं बनायी गयी थीं। वहाँ चुनाव से ही सरकारें बनी थीं। वैसे सुप्रीम कोर्ट ने नरसिम्हा सरकार के बाबरी मस्जिद विध्वंश के बाद भाजपा की सरकारों को बर्खास्त करने राव सरकार के फैसले को सही ठहराज्या था। सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि राज्य सरकारों की बर्खास्तगी की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है और अवैध पाये जाने पर अदालत बर्खास्त सरकारों को बहाल कर सकता है। साथ ही कोर्ट ने यह व्यवस्था भी दी कि राष्ट्रपति शासन को संसद की स्वीकृति प्राप्त होनी चाहिए।
हारकर भी जीत
हाल के वर्षों में भाजपा ने खुद को हारी बाज़ी को जीत में बदल देने का विशेषज्ञ साबित किया है। गोवा के चुनाव में कांग्रेस सबसे बड़ा दल था। भाजपा की सरकार बनने सम्भावना नहीं थी। लेकिन भाजपा ने जोड़-तोड़ करके वहाँ अपनी सरकार बना ली। गोवा में 2017 के विधानसभा के इस चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा से ज़्यादा सीटें जीतीं; हालाँकि पूर्ण बहुमत हासिल नहीं कर पायी। कांग्रेस को 40 में से 17 और भाजपा को 13 सीटें मिलीं। कांग्रेस सरकार बनाने की तैयारी कर रही थी; लेकिन भाजपा ने निर्दलीय विधायकों का समर्थन लेकर गोवा में सरकार बना ली और रक्षा मंत्री पद से इस्तीफा देकर मनोहर पर्रिकर मुख्यमंत्री बने। मणिपुर में 2017 में विधानसभा चुनाव हुए। कांग्रेस ने भाजपा से ज़्यादा सीटें जीतीं। कुल 60 सदस्यों की विधानसभा में कांग्रेस को 28, भाजपा को 21, नागा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) को 4, नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) को भी 4, लोकजन शक्ति पार्टी, ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस को 1-1 सीट मिली, जबकि एक निर्दलीय भी जीता। भाजपा ने दूसरी पार्टियों से गठबन्धन करके सरकार बनायी और एन. बीरेन सिंह को मुख्यमंत्री बनाया गया। मेघालय के चुनाव में कांग्रेस सबसे बड़े दल के रूप में उभरी; लेकिन भाजपा के प्रयासों के चलते नेशनल पीपुल्स पार्टी के नेता कोनराड संगमा मुख्यमंत्री बनने में सफल रहे। भाजपा भी मेघायल सरकार में शामिल हो गयी। मिजोरम और नागालैंड विधानसभा चुनावों में भाजपा का प्रदर्शन अपेक्षानुरूप नहीं रहा; लेकिन पार्टी वहाँ की गठबन्धन सरकारों में शामिल है। दिसंबर 2019 में विधानसभा चुनाव में सीटें खोने, राजनीतिक ड्रामे के बीच भाजपा के मुख्यमंत्री के रूप में देवेंद्र फडणवीस ने सुबह 5 बजे तब शपथ ली, जब देश की जनता सोई हुई थी। बाद में फडणवीस को इस्तीफा देना पड़ा और भाजपा की खूब किरकिरी हुई। इसके अलावा हाल के वर्षों में यह दिखा है कि भाजपा ने कांग्रेस के मज़बूत क्षेत्रीय क्षत्रपों को चुनाव से ऐन पहले तोडक़र अपनी सरकारें बनायीं; इनमें असम भी शामिल है। बिहार में पिछले विधानसभा चुनाव में आरजेडी, जेडीयू और कांग्रेस के महागठबन्धन की सरकार बनी, जिसमें नीतीश कुमार को दूसरे नम्बर की पार्टी होने के बावजूद लालू प्रसाद ने मुख्यमंत्री बनाया; लेकिन कुछ ही महीने बाद यह गठबन्धन टूट गया और भाजपा और नीतीश कुमार ने एक राजनीतिक ड्रामे के बीच मिलकर सरकार बना ली। साल 2019 में कर्णाटक में जेडीएस-कांग्रेस विधायकों को तोडक़र भाजपा सरकार बना ली। ऐसा ही खेल मध्य प्रदेश में हुआ, जहाँ कांग्रेस को बड़ा झटका देते हुए गाँधी परिवार के विश्वासपात्र ज्योतिरादित्य सिंधिया को भाजपा में शामिल होने की ऐवज़ में राज्य सभा का सदस्य बना दिया। वहाँ कमलनाथ की चुनी हुई सरकार इस तरह गिर गयी। अरुणाचल प्रदेश में तो एक तरह से हरियाणा की भजन लाल सरकार वाला िकस्सा याद आ गया। यह 2016 की बात है, जब काफी राजनीतिक उठापटक हुई। कांग्रेस के मुख्यमंत्री पेमा खांडू 43 विधायकों के साथ पाला बदलकर भाजपा में शामिल हो गये। अब पेमा खांडू भाजपा से अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं।
जब राज्यपालों का हुआ इस्तेमाल
कांग्रेस और भाजपा दोनों के शासनकाल में राज्यपालों की भूमिका को लेकर गम्भीर सवाल उठते रहे हैं। दोनों दलों ने केंद्र में रहते हुए राज्यपालों का खूब इस्तेमाल किया है। साल 1980 में दोबारा सत्ता में आने पर इंदिरा गाँधी ने चुनी हुई जनता पार्टी की सरकारों को बर्खास्त कर दिया था। ऐसा करते हुए भाजपा और कांग्रेस ने संविधान के अनुच्छेद-356 का जमकर दुरुपयोग किया है। साल 1988 में कर्नाटक में एसआर बोम्मई की सरकार की बर्खास्त कर दी गयी थी।
साल 1994 में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच के सामने इस मामले की सुनवाई हुई। बोम्मई केस के नाम से मशहूर इस मामले का आज भी उदाहरण कानूनी दाँव-पेचों में दिया जाता है। बोम्मई केस में धारा-356 की ज़रूरत और गलत इस्तेमाल को लेकर बहस हुई। राज्यपालों के अपने हित के लिए इस्तेमाल की शुरुआत 1952 में ही हो गयी थी, जब तत्कालीन मद्रास राय में ज़्यादा विधायकों के बावजूद संयुक्त मोर्चे की जगह राज्यपाल ने कम विधायकों वाले कांग्रेस नेता सी. राजगोपालाचारी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर दिया; जो खुद उस समय विधायक नहीं थे। केरल में कम्युनिस्ट पार्टी की ईएमएस नम्बूदरीपाद के नेतृत्व वाली सरकार 1957 में चुनी गयी। लेकिन मुक्ति संग्राम के बहाने केंद्र में कांग्रेस सरकार ने इसे 1959 में बर्खास्त कर दिया। वर्ष 1979 में हरियाणा में देवीलाल के नेतृत्व में लोकदल की सरकार बनी; लेकिन तीन साल बाद ही 1982 में भजनलाल ने देवीलाल समर्थक विधायकों को तोडक़र अपने पाले में कर लिया। राज्यपाल जी.डी. तवासे ने भजनलाल को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर दिया। देवीलाल ने लाख विरोध जताया; लेकिन कुछ नहीं हुआ। यह पहला मौका था, जब किसी सूबे से विधायकों को बचने के लिए देवीलाल दिल्ली के एक होटल में लाये। बाद में भजनलाल ने बहुमत सिद्ध कर दिया। हालाँकि साल 1984 में जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल बी.के. नेहरू ने केंद्र के दबाव में आने और फारूक अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली सरकार के खिलाफ रिपोर्ट भेजने से साफ मना कर दिया, जिसके बाद उन्हें बदल; दिया गया। नये राज्यपाल ने केंद्र का काम कर दिया और राय सरकार को बर्खास्त कर दिया गया। आंध्र प्रदेश में 1983 में एनटी रामाराव के नेतृत्व बाली पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनी थी। तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) नेता और सीम रामाराव को दिल के ऑपरेशन के लिए विदेश जाना पड़ा। इंदिरा सरकार ने राज्यपाल राम लाल ठाकुर का इस्तेमाल करके सरकार को बर्खास्त करवा दिया। एन. भास्कर राव ने विधायकों के बहुमत का दावा किया; लेकिन बाद में रामाराव सरकार को बहाल करना पड़ा। साल 1983 में कर्नाटक में जनता पार्टी की सरकार में पहले रामकृष्ण हेगड़े और फिर 1988 में एसआर बोम्मई मुख्यमंत्री बने। राज्यपाल पी. वेंकटसुबैया ने अप्रैल, 1989 को बोम्मई सरकार को बर्खास्त कर दिया।
बोम्मई ने विधानसभा में बहुमत साबित करने के लिए राज्यपाल से समय माँगा; लेकिन उहोंने इन्कार कर दिया गया। बोम्मई ने राज्यपाल के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी और फैसला उनके हक में आया। इसके बाद साल 1996 में गुजरात में सुरेश मेहता मुख्यमंत्री थे। तब भाजपा नेता शंकर सिंह वाघेला ने दावा कर दिया कि उनके पास 40 विधायक हैं। राज्यपाल के मेहता को बहुमत साबित करने के लिए कहने पर विधानसभा में जमकर हंगामा हुआ और केंद्र में संयुक्त मोर्चा सरकार ने मेहता सरकार को बर्खास्त कर दिया। अब देवगौड़ा प्रधानमंत्री थे। साल 2005 में झारखण्ड में त्रिशंकु विधानसभा बनी। राज्यपाल सैयद सिब्ते रज़ी ने शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री की शपथ दिलायी, लेकिन सोरेन विधानसभा में बहुमत साबित नहीं कर पाये। साल 2005 में बिहार के राज्यपाल बूटा सिंह ने चुनाव के बाद किसी को बहुमत न मिलने पर विधानसभा भंग करने की सिफरिश की, हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने उनके इस फैसले की आलोचना की। साल 2009 में यूपीए-1 के दौरान भी हंसराज भारद्वाज ने बहुमत के बावजूद 25 जून, 2009 को कर्नाटक में भाजपा की बी.एस. येदियुरप्पा सरकार को यह कहकर कि उहोंने फर्ज़ी तरीके से बहुमत जुटाया, बर्खास्त कर दिया। दिसम्बर 2014 में अरुणााचल प्रदेश में दल-बदल के ज़रिये राय सरकार को अस्थिर कर राष्ट्रपति शासन लगाये जाने पर मामला सुप्रीम कोर्ट में जाने पर अदालत की संविधान पीठ ने राज्यपाल के रवैये पर सख्त टिप्पणियाँ करते हुए राज्यपाल की सिफरिश को असंवैधानिक करार देकर दोबारा कांग्रेस सरकार को बहाल करने का आदेश दिया था। मार्च 2016 में उत्तराखण्ड में भी अदालत ने वहाँ राष्ट्रपति शासन लगाये जाने को असंवैधानिक करार दिया था और कांग्रेस की हरीश रावत सरकार बहाल हुई थी। भगत सिंह कोशियारी ने तमाम नियम-कायदों को ताक पर रखकर 2019 के आिखर में देवेंद्र फडणवीस को सुबह पौने छ: बजे मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी।
स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहला अवसर था जब बगैर किसी आपात स्थिति के इस प्रकार रातों-रात राज्यपाल से लेकर राष्ट्रपति तक सारी सरकारी मशीनरी सक्रिय हुई और राष्ट्रपति शासन हटाने सन्बन्धी आदेश पर हस्ताक्षर करते हुए राज्यपाल ने फडणवीस को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। साल 2002 में जम्मू-कश्मीर, 2005 में झारखण्ड, 2013 में दिल्ली और 2018 में गोवा में सरकार गठन में भाजपा के हक में राज्यपाल की भूमिका पर खूब सवाल उठ चुके हैं।