‘हमारी जाति डोम है और हमारे यहां सात-आठ साल में शादी अनिवार्य है. यदि आपने इससे ज्यादा देरी की तो अपने बच्चे के लिए जोड़ा मिलना मुश्किल हो जाएगा. जोड़ा तलाश भी लें तो उसमें किसी न किसी तरह की कमी होगी. वह किसी दुर्घटना या बीमारी का शिकार होगा. इसलिए हमारी जाति में समय रहते शादी की परंपरा है. गौना (लड़की की विदाई) जरूर हम अठारह पार करने के बाद ही करते हैं. विदाई में उम्र को लेकर कोई समझौता नहीं करते.’
मोहन डोम बड़ी बेबाकी से अपनी बात रखते हैं. बिहार में पश्चिम चंपारण के जिला मुख्यालय बेतिया से उनका गांव धांगड़ टोली पांच-सात किलोमीटर के फासले पर ही होगा. धांगड़ टोली की तरफ मुख्य सड़क पर जाते हुए सड़क के किनारे ही मोहन डोम का आशियाना है. वे सड़क के किनारे झोपड़ी डाल कर रहते हैं. उनसे घर पर ही मुलाकात होती है. बातचीत के बाद साफ होता है कि मोहन इकलौते व्यक्ति नहीं हैं जिन्होंने कम उम्र में अपने एक लड़के और एक लड़की की शादी की है. एक-दो दिन और भागदौड़ के बाद यह भी स्पष्ट होता है कि डोम समाज कम उम्र में शादी को स्वीकार करने वाला अकेला समाज नहीं है. कई दूसरे समाजों में भी कम उम्र में शादियां हुई हैं.
बेतिया के भरपटिया माध्यमिक विद्यालय की प्राचार्य उषा दुबे बताती हैं, ‘इतनी कम उम्र में शादी-शुदा बच्चों को देखकर मन ग्लानि से भर जाता है.’ वे आगे कहती हैं कि उन्हें इस स्कूल में एक साल ही हुआ है. पहली बार जब वे इस स्कूल में आईं और शादी-शुदा लड़कियों को देखा तो बहुत परेशान हुईं. वे कहती हैं, ‘ये बच्चियां स्कूल में आकर अपनी ससुराल का किस्सा सुनाती थीं, मैं सुनती थी क्योंकि हमें ट्रेनिंग के दौरान बताया गया है कि बच्चों के साथ घुल-मिल कर रहना है, जिससे वे आपको अपना अच्छा दोस्त समझें. इस घटना से आहत होकर मैं इन बच्चों के परिवार- वालों से भी मिली, लेकिन वे मुझसे ही लड़ने लगे. मैं शादी की बात लेकर पुलिस के पास भी जाना चाहती थी पर मेरे साथियों ने मुझे यह कहकर रोक दिया कि हमारा काम इन बच्चों को पढ़ाना और ऐसे संस्कार देना है कि बच्चों की छोटी उम्र में शादी न की जाए.’
एक स्कूल में छह साल की प्रेमा (काल्पनिक नाम) मिलती है. उसका हंसना, बोलना, बतियाना सब अपनी उम्र के बच्चों जैसा ही है. बेतिया से आठ किलोमीटर दूर अपने स्कूल की चौथी कक्षा में प्रेमा अपने क्लास के दूसरे बच्चों के साथ घुल-मिलकर ही बैठती है लेकिन अपनी एक खासियत के चलते क्लास में दूर से ही पहचानी जा सकती है. वह है उसकी मांग में भरा हुआ सिंदूर. प्रेमा के बिना कुछ कहे ही यह सिंदूर उसकी कहानी काफी कुछ बयान कर देता है. प्रेमा जिस माध्यमिक स्कूल में पढ़ती है वहां 800 बच्चे हैं. इनमें 80 बच्चे शादीशुदा हैं. यह आंकड़ा स्कूल की प्रधानाध्यापिका देती हैं, लेकिन जानकारों का कहना है कि संख्या इससे कहीं अधिक है.
प्लान यूके की एक रिपोर्ट के अनुसार हर दिन 27,397 कम उम्र की लड़कियां जबरन शादी की भेंट चढ़ती हैं. यानी हर तीन सेकंड में एक बच्ची
एक राजकीय विद्यालय में प्राचार्य जनक मिश्र की मानें तो शादीशुदा बच्चे-बच्चियां इस क्षेत्र के स्कूलों में आम हैं. मिश्र कहते हैं, ‘कड़वी सच्चाई यह है कि हमारे रोकने से यह रुकने वाला भी नहीं है. शादी के बाद बच्चे स्कूल आ रहे हैं, शुक्र मनाइए. शादी वाले मसले पर अधिक बातचीत करेंगे तो वे अपने बच्चों को स्कूल भेजना बंद कर देंगे. बहुत सोच-विचार कर हमने बच्चों को पढ़ाने और शिक्षित करने को अपनी प्राथमिकता बनाया है.’
कल्पना (काल्पनिक नाम) सात साल की है, तीसरी कक्षा में पढ़ती है. एक साल पहले उसकी शादी हुई. उसे पता है कि उसकी शादी साठी (बेतिया) में हुई है. पति का नाम याद नहीं आता तो उसी स्कूल में आठवीं क्लास में पढ़ने वाली उसकी बड़ी बहन याद दिलाती है. छोटी उम्र में शादी कर चुकी कुछ मुस्लिम लड़कियां भी स्कूल में मिलती हैं. उनकी मांग में सिंदूर तो नहीं मगर नाम के साथ खातून जुड़ा है. हालांकि इस सबमें एक अच्छी बात यह देखी जा सकती है कि शादी के बाद भी परिवार- वालों ने इनके स्कूल जाने पर प्रतिबंध नहीं लगाया. शादी का सही-सही अर्थ भी न जानने वाली लड़कियां, सुबह-सुबह अपने पति के नाम का सिंदूर मांग में डालकर स्कूल में उपस्थित रहती हैं.
जानकार मानते हैं कि जो परिवार शादी के बाद भी बच्चियों को स्कूल भेज रहे हैं, उन्हें अब इस बात के लिए राजी करने में सरकारी और गैरसरकारी संगठनों को अधिक परेशानी नहीं होनी चाहिए कि बच्चियों की शादी वे सही समय पर ही करें. अब छोटी उम्र में बच्चियों की शादी कराने वाले परिवारों के बीच इस बात को लेकर जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत है कि अठारह साल गौने की नहीं, कानून की तरफ से शादी की तय उम्र सीमा है. वैसे छोटी उम्र में शादी की बात की जाए तो एक अनुमान के अनुसार दुनिया भर में हर तीसरे सेकंड में एक बच्ची को जबरन शादी के लिए राजी किया जाता है. हाल ही में एक टीवी कार्यक्रम के दौरान गैरसरकारी संस्था ‘गर्ल्स नॉट ब्राइड्स’ की कम्यूनिकेशन ऑफिसर लॉरा डिकिन्सन का कहना था, ‘बहुत-से समुदायों में बाल विवाह को मंजूरी मिली हुई है, ऐसे परिवारों में लड़कियों को लड़कों से कम महत्व मिलता है.’
जब हम महिला अधिकारों की बात करते हैं, बाल अधिकारों की बात करते हैं या बच्चियों में या बच्चों में स्वास्थ्य एवं पोषण संबंधी विषयों की चर्चा करते हैं, उस दौरान ऐसे हजारों बच्चों को चर्चा में शामिल नहीं कर पाते जिनके शादी-शुदा होने की जानकारी सरकारी या किसी गैर सरकारी फाइल में भी दर्ज नहीं है. बिहार के पश्चिम चम्पारण में महादलित समाज से आने वाले बहारन राउत अपने क्षेत्र में समाज के मुखिया भी हैं. समाज के विवादों को वे पंच बनकर सुलझाते रहे हैं. वे बताते हैं, ‘मैंने तय किया कि अपनी पोती की शादी छोटी उम्र में नहीं करूंगा इसलिए दस साल के बाद ही पोती के लिए लड़का तलाशना प्रारंभ किया. लेकिन उस उम्र में भी इसके लिए लड़का तलाशना हमारे लिए मुश्किल हो रहा था क्योंकि हमारे समाज में छोटी उम्र में ही शादियां हो जाती हैं.’
बहारन के अनुसार उन्होंने जाति पंचायत में भी इस बात को उठाया, लेकिन किसी ने उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया. बहारन अपनी शादी का किस्सा भी सुनाते हैं जब वे पांच साल की उम्र में दूल्हा बने. उन्होंने शादी के मंडप पर बैठने से पहले मां का दूध पीने की जिद कर दी. अब शादी में मां मौजूद नहीं थीं. लोगों ने भागकर कहीं से गाय के दूध का इंतजाम किया और दूल्हा बने बहारन राउत शादी के मंडप पर दूध पीने के बाद ही बैठे.
आंकड़े बताते हैं कि हर सौ में से सात लड़कियों की शादी कानूनी तौर पर तय समय सीमा 18 साल से कम उम्र में हुई है. ऐसा तब है जब हमारे पास बाल विवाह पर प्रतिबंध लगाने वाला 1929 का कानून है जिसमें 1949 और 1978 में संशोधन हुआ. 2006 में बाल विवाह को लेकर कानून को और मजबूत बनाया गया. उसके बावजूद सच्चाई यह है कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे: 2005-06) के मुताबिक 20-24 वर्ष आयु वर्ग की 44.5 फीसदी युवतियां 18 साल से पहले विवाहिता हो चुकी थीं.
बाल विवाह पर प्रतिबंध लगाने के पीछे के तर्क जायज हैं. इन्हें आम तौर पर उन परिवारों के मुखिया स्वीकार भी करते हैं जिनसे बिहार के पश्चिम चंपारण के चनपटिया और योगापट्टी प्रखंड में हमारी बात होती है. बाल विवाह की पीडि़त आम तौर पर लड़कियां ही बनती हैं. शादी के बाद सबसे पहले उनका ही स्कूल छुड़ा दिया जाता है. जानकार मानते हैं कि यदि लड़कियों को हम स्कूल नहीं भेजेंगे तो देश भर की लड़कियों को मिले शिक्षा का अधिकार कानून का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा. दूसरे, यदि कम उम्र में लड़की की शादी होती है तो वह गर्भ धारण के लिए तैयार नहीं होगी. ऐसे में जच्चा और बच्चा दोनों असुरक्षित होंगे. देश में मातृत्व मृत्यु दर ऊंची होने की बड़ी वजह इस तरह बचपन में की जाने वाली शादी ही हैं. इस तरह की शादियों में लड़कियां बार-बार गर्भवती होती हैं. सही प्रकार से पोषक आहार और देखभाल ना मिलने के कारण उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है. वे बच्चियां नहीं जानतीं कि कब और कितनी बार उन्हें मातृत्व चाहिए, यह निर्णय लेना उनका अपना अधिकार है लेकिन किसी परिवार में उनकी नहीं सुनी जाती.
‘प्लान यूके’ लड़कियों के अधिकारों के लिए लड़ने वाली एक गैरसरकारी संस्था है. इसके अनुसार दुनिया भर में हर साल एक करोड़ लड़कियों की जबरन कम उम्र में शादी कराई जाती है. प्लान यूके की एक रिपोर्ट के अनुसार हर दिन 27,397 कम उम्र की लड़कियों की जबरन शादी कराई जाती है. यह आंकड़ा बारीकी से देखा जाए तो इसका मतलब हुआ कि हर तीन सेकंड में एक लड़की की जबरन शादी. यूनिसेफ की ‘स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स चिल्ड्रेन’ 2012 रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में हो रहे बाल विवाह में 40 फीसदी से अधिक की भागीदारी भारत की है. इसी रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में 20-24 साल की 22 फीसदी महिलाओं ने अपने पहले बच्चे को अठारह साल से कम उम्र में जन्म दिया है. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के ‘फैमिली वेलफेयर स्टेटिस्टिक्स 2011’ के अनुसार 18 साल से कम उम्र की बच्चियों की शादी के मामले में ग्रामीण भारत शहरी भारत से तीन गुना आगे है.
परंपरा, संस्कार और संस्कृति के नाम पर कब तक इन बच्चियों के साथ अन्याय होता रहेगा? बिहार का पश्चिम चंपारण अपनी शादीशुदा बेटियों को स्कूल भेज रहा है शायद इसलिए यह किस्सा बाहर आ पाया. लेकिन उन बाल विवाहिताओं का क्या जो चौखट के बाहर कदम तक नहीं रख पातीं?
बे-काम का कानून
देश में पहली बार बाल विवाह पर रोक लगाने वाला कानून 1930 में आया. ‘द चाइल्ड मैरिज रिस्ट्रेंट एक्ट 1929’ नामक इस कानून को ‘शारदा एक्ट’ के नाम से भी जाना जाता है. पहली बार इसी कानून के जरिए लड़कों के विवाह की न्यूनतम उम्र 21 साल और लड़कियों की 18 साल निर्धारित की गई. ‘शारदा एक्ट’ की कमियों को दूर करने के लिए 2007 में ‘द प्रोहिबिशन ऑफ चाइल्ड मैरिज एक्ट 2006’ लागू किया गया. नाम में इस बदलाव की वजह थी कानून के प्रावधानों को अधिक सख्त बनाना. दिल्ली उच्च न्यायालय ने इसी साल एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि यह कानून सभी निजी कानूनों से ऊपर होगा और देश के हर नागरिक पर लागू होगा.
यूनिसेफ की रिपोर्ट
वर्ष 2009 में आई यूनिसेफ की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में होने वाले कुल विवाहों में से करीब 40 फीसदी बाल विवाह होते हैं. वहीं यूनाइटेड नेशंस पॉपुलेशन फंड (यूएनएफपीए) द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण ‘मैरिंग टु यंग: एंड चाइल्ड मैरिज’ के मुताबिक देश में 20 से 24 की उम्र की 47 फीसदी महिलाओं का बाल विवाह हुआ था.